काग्रेस की पहचान नेहरु-गांधी परिवार से जुडी है. बीजेपी की पहचान संघ परिवार से जुडी है. बिना नेहरु-गांधी परिवार के काग्रेस हो ही नहीं सकती तो काग्रेस की कमजोरी-ताकत दोनो ही नेहरु-गांधी परिवार में सिमटी है और बिना संघ परिवार के बीजेपी का आस्त्तिव ही नहीं है तो वैचारिक तौर पर संघ की सोच हो या हिन्दुत्व की छतरी तले बीजेपी के राजनीतिक भविष्य को आक्सीजन देने का काम यह संघ परिवार पर ही टिका है. काग्रेस अभी तक नेहरु गांधी परिवार के करिष्माई नेतृत्व के आसरे सत्ता पर काबिज रही है चाहे वह नेहरु का काल हो या इंदिरा गांधी का या फिर राजीव गांधी या परदे के पीछे सोनिया गांधी की सियासत का.
इस दौर में जनसंघ से जनता पार्टी होते हुये बीजेपी में उभरी स्वयसेवको की टोली की ये पहचान रही कि वह काग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण के विरोध के आसरे धीरे धीरे आगे बढती रही . और सत्ता के जरीये काग्रेस विरोध के दायरे को बढाती भी रही और काग्रेस विरोध के आसरे अपनी सत्ता गढती भी रही . लेकिन सौ बरस की उम्र पार कर चुकी काग्रेस में ये पहला मौका है कि नेहरु गांधी परिवार की पांचवी पीढी के दो सदस्य काग्रेस को संभालने के लिये एक साथ चलने को तैयार है और दूसरी तरफ 2025 में सौ बरस की होने जा रहे संघ परिवार से निकले स्वयसेवको का सत्ताकरण ही कुछ इस तरह हुआ कि वह संघ परिवार को ही कमजोर कर सत्ता की ताकत तले संघ परिवार को ले आये.
तो ये वाकई दिलचस्प हो चला है कि एक तरफ करिष्माई नेतृत्व के आसरे सत्ता की चौखट पर पहुंचने वाली काग्रेस में धीरे धीरे राहुल गांधी ने चुनावी जीत के आसरे खुद को करिष्माई तौर पर स्थापित करने की दिशा में कदम बढाये है तो प्रियकां गांधी की राजनीतिक झलकियो ने ही उन्हे पहले से करिष्माई मान लिया है . तो दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी ने पूंरव स्वयसेवको की लीक छोड 2014 मेंखुद को करिष्माई तौर पर स्थापित तो किया लेकिन इसी स्थापना को अपनी ताकत मान कर संघ परिवार की सोच तक को खारिज कर दिया या कहे मोदी सत्ता के दौर में संघ परिवर के मुद्दे भी सरोकार खो कर मोदी के करिष्माई नेतृत्व में ही हिन्दुत्व से लेकर स्वदेशी और भारतीयकरण से लेकर स्वयसेवक होने के पीछे के संघर्ष को ही खत्म कर बैठे. तो नेहरु-गांधी परिवार और संघ परिवार की इसी बिसात पर 2019 का आम चुनाव होना है . तो पांसे कैसे और किस तरह फेंके जायेगें ये वाकई रोचक है. और सवाल कई है .
मसलन, क्या मोदी का करिष्माई नेतृत्व बीजेपी-संघ परिवार की सत्ता को बरकरार रख पायेगा. क्या राहुल गांधी के साथ खडी प्रियंका का करिष्मा मोदी सत्ता की जडे हिला देगा. क्या मोदी-शाह में सिमट चुकी बीजेपी के पास कोई नेता ही नहीं है जो काग्रेस के करिष्माई नेतृत्व को चुनाव मैदान में पटकनी दे दें या फिर बीजेपी में हर नेता के सामने ये चुनौती है कि वह कैसे मोदी-शाह को पहले पटकनी दें फिर खडा हो सके.
क्या राहुल प्रियंका की जोडी अब मोदी विरोध के गठबंधन के सामने ही चुनौती बन रह है. यानी एक वक्त के बाद क्षत्रपो के सामने संकट होगा कि वह बीजेपी विरोध के साथ काग्रेस विरोध की दिशा में भी बढ जाये. जाहिर है ये सारे सवाल है. लेकिन इन सवालों के आसरे ही चुनावी राजनीति के परखे तो तीन सच सामने उभरगें.
पहला , प्रियकां के जरीये महिलाये और युवाओ का वोट सिर्फ बीजेपी ही नहीं बल्कि अखिलेश-मायावती से भी खिसकेगा. दूसरा, यूपी में चेहरा खोज रही काग्रेस को पियंका का एक ऐसा चेहरा मिल चुका है जो लोकसभा चुनाव के बाद आखिलेश-मायावती के उस सौदबाजी में सेंघ लगाने के लिये काफी है कि राज्य कौन संभाले और केन्द्र कौन संभाले [ अगर लोकसभा चुनाव के बाद मायावती पीएम उम्मीदवार के तौर पर उभरती है ] . क्योकि काग्रेस ने अभी प्रियंका गांधी को पूर्वी यूपी की कमान सौपी है. अगला कदम रायबरेली से चुनाव मैदान में उतारना होगा और फिर 2022 में यूपी विधानसभा के वक्त प्रिंयका गांधी को ही सीएम उम्मीदवार पद के लिये उतरना.
तीसरा, क्षत्रपो को अब समझ में आने लगा है कि गठबंधन का मतलब तभी है जब उसमें काग्रेस शामिल हो. यानी सिर्फ क्षत्रपो का मिलना गठबंधन तो है लेकिन वह सिर्फ सत्ता के लिये सौदेबाजी का दायरा बढना है और इन तीन हालातो के दौर को और किसी ने नहीं बल्कि मोदी के करिष्माई नेतृत्व ने ही पैदा किया है . और मोदी के करिष्माई नेतृत्व के पीछे संघ परिवार को ही कमोजरी करना रहा . क्योकि संघ परिवार का हर वह संगठन जो काग्रेस की सत्ता को चुनौती देने के लिये संघर्ष करते हुये बीजेपी का रास्ता अभी तक बनाता रहा उसे ही मोदी के करिष्माई नेतृत्व ने खत्म कर दिया.
विहिप के पास प्रवीण तोगडिया नहीं है तो विहिप को प्रवीण तोगडिया के हर कदम से लडना पडा रहा है. किसान संघ के सक्षम नेतृत्व को कैसे मोदी सत्ता के काल में खत्म किया गया ये मध्यप्रदेश में क्काजी के जरीये उभरा. फिर भारतीय मजदूर संघ हो या स्वदेशी जागरण मंच या फिर आदिवासी कल्याण संघ , हर संघठन को कमजोर किया गया या कहे संघ के हर संगठन का काम ही जब करिष्माई नेतृत्व मोदी के लिये ताली बजाना हो गया तो फिर वह नीतिया भी बेमानी हो गई जो किसान को खुदखुशी की तरफ धकेल रही थी . युवाओ को बेरोजगारी की तरफ. उत्पादन ठप पडा है तो उघोगपतियो के पास काम नहीं. व्यापरियो के सामने जीएसटी से लेकर विदेशी निवेश और ई-मारकेटिंग का खतरा है . मजदूर को नोटबंदी ने तबाह कर दिया . यानी संकट काल स्वयसेवक की सत्ता के वक्त संघ की सोच के विपरीत है.
तो आखरी सवाल यही हो चला है कि काग्रेस की राजनीति ने संघ या पुरानी बीजेपी की कार्यशौली को अपना लिया है . और मोदी के करिष्माई नेतृत्व ने काग्रेस के करिष्माई सोच को अपना लिया है .
इस दौर में जनसंघ से जनता पार्टी होते हुये बीजेपी में उभरी स्वयसेवको की टोली की ये पहचान रही कि वह काग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण के विरोध के आसरे धीरे धीरे आगे बढती रही . और सत्ता के जरीये काग्रेस विरोध के दायरे को बढाती भी रही और काग्रेस विरोध के आसरे अपनी सत्ता गढती भी रही . लेकिन सौ बरस की उम्र पार कर चुकी काग्रेस में ये पहला मौका है कि नेहरु गांधी परिवार की पांचवी पीढी के दो सदस्य काग्रेस को संभालने के लिये एक साथ चलने को तैयार है और दूसरी तरफ 2025 में सौ बरस की होने जा रहे संघ परिवार से निकले स्वयसेवको का सत्ताकरण ही कुछ इस तरह हुआ कि वह संघ परिवार को ही कमजोर कर सत्ता की ताकत तले संघ परिवार को ले आये.
तो ये वाकई दिलचस्प हो चला है कि एक तरफ करिष्माई नेतृत्व के आसरे सत्ता की चौखट पर पहुंचने वाली काग्रेस में धीरे धीरे राहुल गांधी ने चुनावी जीत के आसरे खुद को करिष्माई तौर पर स्थापित करने की दिशा में कदम बढाये है तो प्रियकां गांधी की राजनीतिक झलकियो ने ही उन्हे पहले से करिष्माई मान लिया है . तो दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी ने पूंरव स्वयसेवको की लीक छोड 2014 मेंखुद को करिष्माई तौर पर स्थापित तो किया लेकिन इसी स्थापना को अपनी ताकत मान कर संघ परिवार की सोच तक को खारिज कर दिया या कहे मोदी सत्ता के दौर में संघ परिवर के मुद्दे भी सरोकार खो कर मोदी के करिष्माई नेतृत्व में ही हिन्दुत्व से लेकर स्वदेशी और भारतीयकरण से लेकर स्वयसेवक होने के पीछे के संघर्ष को ही खत्म कर बैठे. तो नेहरु-गांधी परिवार और संघ परिवार की इसी बिसात पर 2019 का आम चुनाव होना है . तो पांसे कैसे और किस तरह फेंके जायेगें ये वाकई रोचक है. और सवाल कई है .
मसलन, क्या मोदी का करिष्माई नेतृत्व बीजेपी-संघ परिवार की सत्ता को बरकरार रख पायेगा. क्या राहुल गांधी के साथ खडी प्रियंका का करिष्मा मोदी सत्ता की जडे हिला देगा. क्या मोदी-शाह में सिमट चुकी बीजेपी के पास कोई नेता ही नहीं है जो काग्रेस के करिष्माई नेतृत्व को चुनाव मैदान में पटकनी दे दें या फिर बीजेपी में हर नेता के सामने ये चुनौती है कि वह कैसे मोदी-शाह को पहले पटकनी दें फिर खडा हो सके.
क्या राहुल प्रियंका की जोडी अब मोदी विरोध के गठबंधन के सामने ही चुनौती बन रह है. यानी एक वक्त के बाद क्षत्रपो के सामने संकट होगा कि वह बीजेपी विरोध के साथ काग्रेस विरोध की दिशा में भी बढ जाये. जाहिर है ये सारे सवाल है. लेकिन इन सवालों के आसरे ही चुनावी राजनीति के परखे तो तीन सच सामने उभरगें.
पहला , प्रियकां के जरीये महिलाये और युवाओ का वोट सिर्फ बीजेपी ही नहीं बल्कि अखिलेश-मायावती से भी खिसकेगा. दूसरा, यूपी में चेहरा खोज रही काग्रेस को पियंका का एक ऐसा चेहरा मिल चुका है जो लोकसभा चुनाव के बाद आखिलेश-मायावती के उस सौदबाजी में सेंघ लगाने के लिये काफी है कि राज्य कौन संभाले और केन्द्र कौन संभाले [ अगर लोकसभा चुनाव के बाद मायावती पीएम उम्मीदवार के तौर पर उभरती है ] . क्योकि काग्रेस ने अभी प्रियंका गांधी को पूर्वी यूपी की कमान सौपी है. अगला कदम रायबरेली से चुनाव मैदान में उतारना होगा और फिर 2022 में यूपी विधानसभा के वक्त प्रिंयका गांधी को ही सीएम उम्मीदवार पद के लिये उतरना.
तीसरा, क्षत्रपो को अब समझ में आने लगा है कि गठबंधन का मतलब तभी है जब उसमें काग्रेस शामिल हो. यानी सिर्फ क्षत्रपो का मिलना गठबंधन तो है लेकिन वह सिर्फ सत्ता के लिये सौदेबाजी का दायरा बढना है और इन तीन हालातो के दौर को और किसी ने नहीं बल्कि मोदी के करिष्माई नेतृत्व ने ही पैदा किया है . और मोदी के करिष्माई नेतृत्व के पीछे संघ परिवार को ही कमोजरी करना रहा . क्योकि संघ परिवार का हर वह संगठन जो काग्रेस की सत्ता को चुनौती देने के लिये संघर्ष करते हुये बीजेपी का रास्ता अभी तक बनाता रहा उसे ही मोदी के करिष्माई नेतृत्व ने खत्म कर दिया.
विहिप के पास प्रवीण तोगडिया नहीं है तो विहिप को प्रवीण तोगडिया के हर कदम से लडना पडा रहा है. किसान संघ के सक्षम नेतृत्व को कैसे मोदी सत्ता के काल में खत्म किया गया ये मध्यप्रदेश में क्काजी के जरीये उभरा. फिर भारतीय मजदूर संघ हो या स्वदेशी जागरण मंच या फिर आदिवासी कल्याण संघ , हर संघठन को कमजोर किया गया या कहे संघ के हर संगठन का काम ही जब करिष्माई नेतृत्व मोदी के लिये ताली बजाना हो गया तो फिर वह नीतिया भी बेमानी हो गई जो किसान को खुदखुशी की तरफ धकेल रही थी . युवाओ को बेरोजगारी की तरफ. उत्पादन ठप पडा है तो उघोगपतियो के पास काम नहीं. व्यापरियो के सामने जीएसटी से लेकर विदेशी निवेश और ई-मारकेटिंग का खतरा है . मजदूर को नोटबंदी ने तबाह कर दिया . यानी संकट काल स्वयसेवक की सत्ता के वक्त संघ की सोच के विपरीत है.
तो आखरी सवाल यही हो चला है कि काग्रेस की राजनीति ने संघ या पुरानी बीजेपी की कार्यशौली को अपना लिया है . और मोदी के करिष्माई नेतृत्व ने काग्रेस के करिष्माई सोच को अपना लिया है .