लोकतंत्र की महिमा कहिए कि जो नेता अपने को किसी राजा और महाराजा से कम नहीं समझते थे, वो अब जनता के सामने झुकते फिर रहे हैं और जनता को ही असली राजा बता रहे हैं।
राजस्थान में 5 साल के मुख्यमंत्रित्व काल में वसुंधरा राजे ने जिस राजशाही शैली से हुकूमत चलाई और अपनी पार्टी में किसी की नहीं सुनीं, वही अब अपने को सेवादारनी बता रही हैं।
ये अलग बात है कि अपने को सेवादारनी कहते समय भी उनकी आवाज में एक खास तरह का घमंड कायम रहता है। यह भी सही है कि अपने राज में उन्होंने अपनी पार्टी के आलाकमान तक की नहीं सुनी। घनश्याम तिवाड़ी जैसे वरिष्ठ नेता तक को पार्टी छोड़ने पर मजबूर कर दिया जो अब अलग पार्टी बनाकर भाजपा की लुटिया डुबो रहे हैं।
जनता में भारतीय जनता पार्टी और वसुंधरा राजे के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर और नाराजगी का असर कम करने के लिए वसुंधरा राजे अब यह कहने को मजबूर हो गई हैं कि जनता ही महाराज और महारानी है। खास बात यह है कि वसुंधरा के भाई कांग्रेस नेता स्वर्गीय माधवराव सिंधिया और भतीजे ज्योतिरादित्य सिंधिया अब भी महाराज ही कहलाते हैं। खुद वसुंधरा महारानी साहिबा कहलाती हैं, लेकिन अब चुनाव के मौके पर ऐसी मुसीबत फंसी कि दिखावे के लिए ही सही, वसुंधरा को महारानी का अपना ये खिताब जनता के सिर पर रखना पड़ गया।
इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र में जनता की शासक होती है, लेकिन इस बात की अनदेखी सबसे ज्यादा तो वसुंधरा और उनकी ही तरह के राज परंपरा वाले नेता सबसे ज्यादा करते रहे हैं। अब चुनाव के वक्त जनता उनसे जवाब भी मांग रही है तो महारानी साहिबा को दिक्कत हो रही है।
ऐसे ही एक महिला ने जनसंपर्क के दौरान वसुंधरा से कह भी दिया कि जब युवाओं को नौकरी नहीं मिली तो तुम्हें क्यों वोट दें। ये सुनते ही वसुंधरा राजे फिर महारानी के तेवर में आ गईं और ये कहते हुए तुरंत आगे बढ़ गईं कि ठीक है, मत देना वोट।
वसुंधरा राजे के अंदर सामंतवाद इतना प्रबल है कि चुनावों के दौरान भी जब उनसे पत्रकार या जनता उनके कामों का हिसाब लेना चाहती है तो वे असहज हो उठती हैं। या तो वे जवाब टाल देती हैं या स्पष्ट रूप से मना कर देती हैं।
राजस्थान में 5 साल के मुख्यमंत्रित्व काल में वसुंधरा राजे ने जिस राजशाही शैली से हुकूमत चलाई और अपनी पार्टी में किसी की नहीं सुनीं, वही अब अपने को सेवादारनी बता रही हैं।
ये अलग बात है कि अपने को सेवादारनी कहते समय भी उनकी आवाज में एक खास तरह का घमंड कायम रहता है। यह भी सही है कि अपने राज में उन्होंने अपनी पार्टी के आलाकमान तक की नहीं सुनी। घनश्याम तिवाड़ी जैसे वरिष्ठ नेता तक को पार्टी छोड़ने पर मजबूर कर दिया जो अब अलग पार्टी बनाकर भाजपा की लुटिया डुबो रहे हैं।
जनता में भारतीय जनता पार्टी और वसुंधरा राजे के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर और नाराजगी का असर कम करने के लिए वसुंधरा राजे अब यह कहने को मजबूर हो गई हैं कि जनता ही महाराज और महारानी है। खास बात यह है कि वसुंधरा के भाई कांग्रेस नेता स्वर्गीय माधवराव सिंधिया और भतीजे ज्योतिरादित्य सिंधिया अब भी महाराज ही कहलाते हैं। खुद वसुंधरा महारानी साहिबा कहलाती हैं, लेकिन अब चुनाव के मौके पर ऐसी मुसीबत फंसी कि दिखावे के लिए ही सही, वसुंधरा को महारानी का अपना ये खिताब जनता के सिर पर रखना पड़ गया।
इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र में जनता की शासक होती है, लेकिन इस बात की अनदेखी सबसे ज्यादा तो वसुंधरा और उनकी ही तरह के राज परंपरा वाले नेता सबसे ज्यादा करते रहे हैं। अब चुनाव के वक्त जनता उनसे जवाब भी मांग रही है तो महारानी साहिबा को दिक्कत हो रही है।
ऐसे ही एक महिला ने जनसंपर्क के दौरान वसुंधरा से कह भी दिया कि जब युवाओं को नौकरी नहीं मिली तो तुम्हें क्यों वोट दें। ये सुनते ही वसुंधरा राजे फिर महारानी के तेवर में आ गईं और ये कहते हुए तुरंत आगे बढ़ गईं कि ठीक है, मत देना वोट।
वसुंधरा राजे के अंदर सामंतवाद इतना प्रबल है कि चुनावों के दौरान भी जब उनसे पत्रकार या जनता उनके कामों का हिसाब लेना चाहती है तो वे असहज हो उठती हैं। या तो वे जवाब टाल देती हैं या स्पष्ट रूप से मना कर देती हैं।