नई पीढी का कोई दोष नहीं. वो तो प्रीतम की तरह निर्दोष है. दिक्कत तो उन घाघों से है, जो जेएनयू जैसी यूनिवर्सिटी से पॉलिटिकल हिस्ट्री पढ कर हमको बता रहे है कि सत्ता का विरोध राष्ट्र का विरोध होता है और सरकार की नीतियों की आलोचना करना विकास में बाधक होता है.
जॉर्ज के बहाने...
बताइए महाराज, फिर तो उस जमाने में जॉर्ज फर्नांडीज साहब को सीधे फांसी पर चढा देती सरकार. आपातकाल लगने से ठीक पहले की देश की स्थिति क्या थी? गुजरात में छात्र आन्दोलन शुरु होने से पहले, महंगाई चरम पर थी. ट्रेड यूनियन का हडताल अभूतपूर्व था. जॉर्ज साहब ने कहा था कि सिर्फ एक महीने रेलवे की हडताल करनी है, ताकि इस देश की फैक्ट्री की चिमनियों से धुंआ निकलना बन्द हो जाए. उधर कैंटीन में समोसे का दाम बढ जाने से गुजरात के छात्रों ने चिमन भाई सरकार की हवा निकाल दी. गुजरात की हवा बिहार पहुंची. जेपी की सेना बन गई. पूरे देश में इन्दिरा गांधी के खिलाफ जो माहौल बना, वो बना. तिस पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया. इन्दिरा गांधी का चुनाव निरस्त हुआ. देश में आपातकाल लगा. नेता जेल भेजे गए. मौजूदा केन्द्र सरकार के कई मंत्री उस दौर के गवाह रहे है. इन्दिरा सरकार के ज्यादतियों के भी और विपक्ष के उस प्रदर्शन के भी, जिसने इन्दिरा की तानाशाही को ध्वस्त कर दिया.
इसी कडी में जॉर्ज साहब के खिलाफ इन्दिरा सरकार ने बडौदा डायनामाइट केस लगा दिया. सीबीआई की चार्जशीट में जॉर्ज साहब समेत 24 अन्य लोगों पर आरोप लगा कि ये सब स्टेट के खिलाफ युद्ध कर रहे थे और तस्करी कर के डायनामाइट ला कर जमा किए थे ताकि सरकारी प्रतिष्ठानों, खास कर रेलवे ट्रैक को उडाया जा सके. सोचिए, उस दौर में जी न्यूज होता, रिपब्ल्कि टीवी होता, आज के अखबार होते, तो जॉर्ज साहब तो “अर्बन नक्सली” क्या, तब पैदा न लिए आतंकी संगठन “आईएसआईएस” के आतंकी करार दिए जा चुके होते. ये अलग बात है, इन्दिरा गई, जनता सरकार आई और सारे आरोप वापस लिए गए.
खैर, घाघों की बात छोडिए.
आगे की बात, सुबह-सुबह आईआरसीटीसी की ओर से मिले इस ईमेल से. इसमें लिखा था, Travel Insurance for e-ticket passengers will be OPTIONAL and PAID from 01-SEP-2018 onwards. मतलब, अब ट्रेन यात्रा बीमित होगी या नहीं होगी. बीमित यात्रा चाहिए तो पैसा दीजिए. पहले शून्य शुल्क पर बीमा मिलती थी. उससे भी पहले ट्रेन यात्रा स्वत: बीमित होती थी. यात्री को कोई पैसा नहीं देना होता था. अब देना होगा, जो सीधे किसी प्राइवेट बीमाकर्ता कंपनी के खाते में जाएगा. तो पहले क्यों नहीं पैसा लेते थे, अब क्यों ले रहे है? उस पर भी, टिकट पर यह लिख कर एहसान जताते है कि आपके यात्रा का 43 फीसदी खर्च आम जनता वहन करती है. जैसे, रेल मंत्री जी अपना पूरा खर्च अपने खेत की कमाई से चलाते है.
अब मैं कहूं कि ये गलत है. तो आप मुझे क्या कहेंगे?
नोटबंदी फेल होने पर आर्थिक सलाहकार परिषद की सदस्य सवाल उठा रही है. मेरे जैसा आर्थिक समझ न रखने वाला आदमी भी ये समझ नहीं पा रहा कि इससे आखिर भला किसका हुआ, जब सारे पैसे बैंक में वापस आ ही गए. कुछ घाघ ये भी कहते है कि इससे बैंकों की हालत ठीक हो गई. मूर्ख, बैंक की हालत उल्टे खराब है, ब्याज देते-देते. इसीलिए, रोजाना ब्याज की दरे कम हो रही है. कभी सोचो उन लाखों बुजुर्गों के बारे में जिनका पेंशन यहीं ब्याज है.
अब मैं कहूं कि ये गलत है. तो आप मुझे क्या कहेंगे?
रुपया गिर रहा है, पेट्रोल का दाम आसमान छू रहा है, तो कहिए न कि ये मेरी किस्मत से हो रहा है. जीडीपी बढ रहा है, नौकरी मिल नहीं रही. फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट कानून बना कर आपने सारे कर्मचारियों/मजदूरों को धोबी का गदहा बना दिया है. ये कौन सा विकास का मॉडल बनाया है आपने. स्वच्छता अभियान के नाम पर हजारों करोड सेस (उपकर) जमा कर लिया जनता की जेब से. लेकिन, आरटीआई बताती है कि मैला प्रथा में लगेगी व्यक्ति के पुनर्वास के लिए इस सरकार ने एक भी पैसा अलॉट नहीं किया है.
अब मैं कहूं कि ये गलत है. तो आप मुझे क्या कहेंगे?
आदिवासी. डिस्ट्रिक्ट मिनरल फंड हो या ट्राइबल सब प्लान. एक पैसा भी आप आदिवासियों के हिस्से का दे नहीं रहे है. लेकिन, गोड्डा में खेत में लगी फसल पर अडानी के आदमी पहुंच जाते है, जमीन पर कब्जा जमाने. माने, बिजली बनेगी गोड्डा में, बेची जाएगी बांग्लादेश को, जमीन जाएगी गोड्डा के गरीब लोगों की. काहे भाई, जा कर बांगला देश में ही बनाओ बिजली, वही बेचो.
अब मैं कहूं कि ये गलत है. तो आप मुझे क्या कहेंगे?
फसल बीमा योजना का ढोल पीटा था आपने. आकडा उठाइए. लगातार किसानों का स्वैच्छिक नामाँकन इसमें कम हो रहा है. सोचा कभी, क्यों? वो तो आपका कानून ही ऐसा है कि जो किसान लोन लेगा, उसे मजबूरन फसल बीमा भी लेना होगा. अन्यथा एक किसान भी ये घटिया फसल बीमा योजना न ले. मेरी बात पर यकीन न करे. डाउन टू अर्थ के ताजा अंक में ये रिपोर्ट पढ़ ले.
अब मैं कहूं कि ये गलत है. तो आप मुझे क्या कहेंगे?
तो भाई, आप जो भी कहे. लेकिन, याद रखिए, सत्ता राष्ट्र नहीं है. सत्ता, राष्ट्र का एक बहुत छोटा पुर्जा है. ये बदलता रहता है. माननीय मोदी जी से पहले 12 पीएम आए-गए, इनके बाद भी आते-जाते रहेंगे. इसलिए, बोलिए, खूब बोलिए सत्ता के खिलाफ. सत्ता का दायित्व ही है अच्छा काम करना. इस काम के बदले हम अपनी मेहनत की कमाई से उनके सारे ऐशोआराम की व्यवस्था करते है. हमेन उन्हें शासन दे कर उन पर एहसान किया है. वे अच्छा शासन दे कर बस अपना दायित्व निभाते है, हम पर कोई एहसान नहीं करते है.
जॉर्ज साहब ने आवाज नहीं उठाई होती, तो इन्दिरा गांधी की तानाशाही खत्म नहीं होती. लेकिन, जेपी न तो अर्बन नक्सली थे न खलनायक. वे हमारे समय के महानायक है, रहेंगे. जनता जब तक सत्ता के खिलाफ बोलती रहेगी. भारत एक राष्ट्र के तौर पर और मजबूत होता जाएगा...जब सत्ता के खिलाफ आवाजें बंद हो जाए तो समझिए राष्ट्र के लिए बुरा समय शुरू हो गया है...
जॉर्ज के बहाने...
बताइए महाराज, फिर तो उस जमाने में जॉर्ज फर्नांडीज साहब को सीधे फांसी पर चढा देती सरकार. आपातकाल लगने से ठीक पहले की देश की स्थिति क्या थी? गुजरात में छात्र आन्दोलन शुरु होने से पहले, महंगाई चरम पर थी. ट्रेड यूनियन का हडताल अभूतपूर्व था. जॉर्ज साहब ने कहा था कि सिर्फ एक महीने रेलवे की हडताल करनी है, ताकि इस देश की फैक्ट्री की चिमनियों से धुंआ निकलना बन्द हो जाए. उधर कैंटीन में समोसे का दाम बढ जाने से गुजरात के छात्रों ने चिमन भाई सरकार की हवा निकाल दी. गुजरात की हवा बिहार पहुंची. जेपी की सेना बन गई. पूरे देश में इन्दिरा गांधी के खिलाफ जो माहौल बना, वो बना. तिस पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया. इन्दिरा गांधी का चुनाव निरस्त हुआ. देश में आपातकाल लगा. नेता जेल भेजे गए. मौजूदा केन्द्र सरकार के कई मंत्री उस दौर के गवाह रहे है. इन्दिरा सरकार के ज्यादतियों के भी और विपक्ष के उस प्रदर्शन के भी, जिसने इन्दिरा की तानाशाही को ध्वस्त कर दिया.
इसी कडी में जॉर्ज साहब के खिलाफ इन्दिरा सरकार ने बडौदा डायनामाइट केस लगा दिया. सीबीआई की चार्जशीट में जॉर्ज साहब समेत 24 अन्य लोगों पर आरोप लगा कि ये सब स्टेट के खिलाफ युद्ध कर रहे थे और तस्करी कर के डायनामाइट ला कर जमा किए थे ताकि सरकारी प्रतिष्ठानों, खास कर रेलवे ट्रैक को उडाया जा सके. सोचिए, उस दौर में जी न्यूज होता, रिपब्ल्कि टीवी होता, आज के अखबार होते, तो जॉर्ज साहब तो “अर्बन नक्सली” क्या, तब पैदा न लिए आतंकी संगठन “आईएसआईएस” के आतंकी करार दिए जा चुके होते. ये अलग बात है, इन्दिरा गई, जनता सरकार आई और सारे आरोप वापस लिए गए.
खैर, घाघों की बात छोडिए.
आगे की बात, सुबह-सुबह आईआरसीटीसी की ओर से मिले इस ईमेल से. इसमें लिखा था, Travel Insurance for e-ticket passengers will be OPTIONAL and PAID from 01-SEP-2018 onwards. मतलब, अब ट्रेन यात्रा बीमित होगी या नहीं होगी. बीमित यात्रा चाहिए तो पैसा दीजिए. पहले शून्य शुल्क पर बीमा मिलती थी. उससे भी पहले ट्रेन यात्रा स्वत: बीमित होती थी. यात्री को कोई पैसा नहीं देना होता था. अब देना होगा, जो सीधे किसी प्राइवेट बीमाकर्ता कंपनी के खाते में जाएगा. तो पहले क्यों नहीं पैसा लेते थे, अब क्यों ले रहे है? उस पर भी, टिकट पर यह लिख कर एहसान जताते है कि आपके यात्रा का 43 फीसदी खर्च आम जनता वहन करती है. जैसे, रेल मंत्री जी अपना पूरा खर्च अपने खेत की कमाई से चलाते है.
अब मैं कहूं कि ये गलत है. तो आप मुझे क्या कहेंगे?
नोटबंदी फेल होने पर आर्थिक सलाहकार परिषद की सदस्य सवाल उठा रही है. मेरे जैसा आर्थिक समझ न रखने वाला आदमी भी ये समझ नहीं पा रहा कि इससे आखिर भला किसका हुआ, जब सारे पैसे बैंक में वापस आ ही गए. कुछ घाघ ये भी कहते है कि इससे बैंकों की हालत ठीक हो गई. मूर्ख, बैंक की हालत उल्टे खराब है, ब्याज देते-देते. इसीलिए, रोजाना ब्याज की दरे कम हो रही है. कभी सोचो उन लाखों बुजुर्गों के बारे में जिनका पेंशन यहीं ब्याज है.
अब मैं कहूं कि ये गलत है. तो आप मुझे क्या कहेंगे?
रुपया गिर रहा है, पेट्रोल का दाम आसमान छू रहा है, तो कहिए न कि ये मेरी किस्मत से हो रहा है. जीडीपी बढ रहा है, नौकरी मिल नहीं रही. फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट कानून बना कर आपने सारे कर्मचारियों/मजदूरों को धोबी का गदहा बना दिया है. ये कौन सा विकास का मॉडल बनाया है आपने. स्वच्छता अभियान के नाम पर हजारों करोड सेस (उपकर) जमा कर लिया जनता की जेब से. लेकिन, आरटीआई बताती है कि मैला प्रथा में लगेगी व्यक्ति के पुनर्वास के लिए इस सरकार ने एक भी पैसा अलॉट नहीं किया है.
अब मैं कहूं कि ये गलत है. तो आप मुझे क्या कहेंगे?
आदिवासी. डिस्ट्रिक्ट मिनरल फंड हो या ट्राइबल सब प्लान. एक पैसा भी आप आदिवासियों के हिस्से का दे नहीं रहे है. लेकिन, गोड्डा में खेत में लगी फसल पर अडानी के आदमी पहुंच जाते है, जमीन पर कब्जा जमाने. माने, बिजली बनेगी गोड्डा में, बेची जाएगी बांग्लादेश को, जमीन जाएगी गोड्डा के गरीब लोगों की. काहे भाई, जा कर बांगला देश में ही बनाओ बिजली, वही बेचो.
अब मैं कहूं कि ये गलत है. तो आप मुझे क्या कहेंगे?
फसल बीमा योजना का ढोल पीटा था आपने. आकडा उठाइए. लगातार किसानों का स्वैच्छिक नामाँकन इसमें कम हो रहा है. सोचा कभी, क्यों? वो तो आपका कानून ही ऐसा है कि जो किसान लोन लेगा, उसे मजबूरन फसल बीमा भी लेना होगा. अन्यथा एक किसान भी ये घटिया फसल बीमा योजना न ले. मेरी बात पर यकीन न करे. डाउन टू अर्थ के ताजा अंक में ये रिपोर्ट पढ़ ले.
अब मैं कहूं कि ये गलत है. तो आप मुझे क्या कहेंगे?
तो भाई, आप जो भी कहे. लेकिन, याद रखिए, सत्ता राष्ट्र नहीं है. सत्ता, राष्ट्र का एक बहुत छोटा पुर्जा है. ये बदलता रहता है. माननीय मोदी जी से पहले 12 पीएम आए-गए, इनके बाद भी आते-जाते रहेंगे. इसलिए, बोलिए, खूब बोलिए सत्ता के खिलाफ. सत्ता का दायित्व ही है अच्छा काम करना. इस काम के बदले हम अपनी मेहनत की कमाई से उनके सारे ऐशोआराम की व्यवस्था करते है. हमेन उन्हें शासन दे कर उन पर एहसान किया है. वे अच्छा शासन दे कर बस अपना दायित्व निभाते है, हम पर कोई एहसान नहीं करते है.
जॉर्ज साहब ने आवाज नहीं उठाई होती, तो इन्दिरा गांधी की तानाशाही खत्म नहीं होती. लेकिन, जेपी न तो अर्बन नक्सली थे न खलनायक. वे हमारे समय के महानायक है, रहेंगे. जनता जब तक सत्ता के खिलाफ बोलती रहेगी. भारत एक राष्ट्र के तौर पर और मजबूत होता जाएगा...जब सत्ता के खिलाफ आवाजें बंद हो जाए तो समझिए राष्ट्र के लिए बुरा समय शुरू हो गया है...