राफेल सौदे से असहज क्यों है बीजेपी ? गहरे सवालों के चुनिंदा जवाब

Written by अजय कुमार | Published on: July 22, 2018
राफेल का सवाल जब बवाल बनकर भारत की मौजूदा रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण से संसद में टकराया तो रक्षामंत्री ने इसका जवाब दिया, ‘ऐबसोलुटेली रॉंग’ यानि कि यह पूरी तरह से गलत आरोप है। यह गोपनीय जानकारी है और इसका खुलासा नहीं किया जा सकता है। किसी मीडिया चैनल का हवाला देते हुए फ्रांस के राष्ट्रपति का भी पक्ष रख दिया कि उन्होंने भी माना है कि राफेल डील के कमर्शियल डिटेल उजागर नहीं किये जा सकते है। चलिए मान लिया कि रक्षा से जुड़ा मसला है, गोपनीयता जरूरी है। लेकिन गोपनीयता एग्रीमेंट के टेक्निकल पक्ष के लिए जरूरी होती है,उस पक्ष के लिए नहीं जो राफेल के खरीद-बिक्री के पक्ष से जुड़ी हुई है।



आम जनता को अपने टैक्स  के रूप में सरकार को दिए गए पैसे के खर्चे की जानकारी मांगनें का हक है। अगर भाजपा अपने फिजूल बहसी में जवाहर लाल नेहरू विश्वविधायलय के रिसर्च स्कॉलरों पर टैक्स की बर्बादी का आरोप लगा सकती है तो आम जनता का भी हक है कि वह सरकार से अपने टैक्स के पैसे का हिसाब मांगें। राफेल डील की जानकारियां पब्लिक डोमेन में हैं, वह रक्षामंत्री के पद के कार्यकारी कदमों पर सवाल नहीं उठा रही हैं बल्कि रक्षामंत्री के पद पर बैठे व्यक्ति से लेकर प्रधानमंत्री के पद पर बैठे व्यक्ति तक की नियत पर सवाल उठा रहीं हैं।

आइए,जानते हैं कि राफेल से जुड़ा मामला क्या है?यह मामला किस तरह से राजनीति और कॉर्पोरेट की मिलीभगत से जन्में भ्रष्टाचार के दुर्गन्ध का अंदेशा देता है?किस तरह से सेना की गोपनीयता के नाम पर भ्रष्टाचार के बड़े खेल खेले जाते हैं?

साल 2000 में सबसे पहले वायुसेना अध्यक्ष अरूप राहा ने फाइटर एयरक्राफ्ट को लेकर चिंता जाहिर की। उनका कहना था कि भारतीय वायुसेना पाकिस्तान और चीन के एक साथ हमले की स्थिति में कमजोर पड़ सकती है। भारत को आने वाले समय में इससे निपटने के लिए तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। यह अंदेशा वाजिब था और उस समय की UPA सरकार ने गंभीरता के साथ इस ओर ध्यान भी दिया।

साल 2007 में UPA सरकार के तत्कालीन रक्षामंत्री एके एंटिनी ने रक्षा विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा करने के बाद 126 फाइटर एयरक्राफ्ट की खरीद को सरकारी मंजूरी दे दी।  भारत सरकार ने एयरक्राफ्ट खरीद के लिए टेंडर जारी किया किया। दावेदार क्रेता यानी कि कम्पनियों ने टेंडर भरा और नीलामी में शामिल हो गए ।  कुछ कम्पनियों को नीलामी के पहले स्तर पर  ही बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।  

बाहर निकाली गई कंपनियों में अमेरिका की एक कम्पनी को बाहर का रास्ता इसलिए दिखाया गया क्योंकि वह पाकिस्तान को एयरक्राफ्ट मुहैया करवा रही थी। छंटनी की ऐसी प्रक्रिया को बताना इसलिए जरूरी है ताकि समझा जा सके की देश के लिए रक्षा संसाधन की खरीददारी में प्रक्रियाओं की अहमियत क्या होती है?

साल 2012 में नीलामी की सारी प्रक्रियाओं के बाद सबसे किफायती दावेदार के रूप में फ्रांस की डासौल्ट कम्पनी उभरी। यानी कि भारत सरकार फ्रांस की dasault कम्पनी के साथ एअरक्राफ्ट खरीददारी के लिए करार करने के तरफ आगे बढ़ी।  इस करार के तहत dasault कम्पनी करीब 54,000 करोड़ रूपये में 18 राफेल यानी की मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट को फाइनल कंडीशन में देने और 106 राफेल को बेंगलुरु में स्थित हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) के साथ मिलकर बनाने के लिए राज़ी हुई।  चूँकि इसे हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड के साथ मिलकर बनाने का भी करार था इसलिए राफेल एयरक्राफ्ट से जुड़े टेक्नॉलजी ट्रान्सफर जैसे प्रावधान को भी करार में शामिल किया गया। 

पर सबसे जरूरी सवाल तो यही है कि राफेल है क्या?

राफेल मल्टी रोल मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट है।  इसे साल 2027 तक भारतीय वायुसेना और नौसेना के उपयोग के लायक बना देने का इरादा है।  इसे जमीन से जमीन की लड़ाई, बमबार्डिंग, और दुश्मन पर आक्रमण करने के लिए बनाया जा रहा है।  ये पांचवी जेनेरेसन की कॉम्बैट एयरक्राफ्ट है। इसकी खासियत यह होगी की यह कमोबेस स्टील्थ टेक्नोलॉजी से लैस होगी, यानी की किसी भी तरह का रडार इसकी मौजूदगी को डिटेक्ट नहीं कर पायेगा। 

पर राफेल विवादों में क्यों है?

हुआ यह कि साल 2012 में dasault के साथ किया गया करार बिचौलियों की मिलीभगत के अंदेशे की वजह से स्थगित कर दिया गया।  मोदी सरकार आने के बाद साल फरवरी 2015 में dasault के चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स की फैक्ट्री बेंगलुरु में आते हैं और घोषणा करते हैं की dasault के साथ किया हुआ करार पुरानी शर्तों के आधार पर ही हकीकत में बदलेगा।  यानी कि अभी तक मामला ठीक ठाक चल रहा था विवादों का खेल इसके बाद शुरू हुआ। 

अप्रैल 2015 में भारत के माननीय प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी फ्रांस के दौरे पर गये। और dasault के साथ पुराने करारनामे की धज्जिया उड़ाते हुए नया करार कर लिया। जिस करार की सबसे आधारभूत कमी यह थी कि करार के लिए न ही रक्षामंत्री की सलाह ली गई, न ही टेंडर निकाला गया और न ही नीलामी हुई।  जबकि डिफेन्स प्रोक्यूरेमनट प्रोसीजर का पैराग्राफ 71 कहता है कि ऐसे स्ट्रेटेजिक करार कम्पीटेंट फिनांसियल अथॉरिटी के क्लीरेंस के बाद ही किये जा सकते हैं। इसके आगे पैराग्राफ 73 कहता है कि स्ट्रैटजिक सुरक्षा सौदों के खरीद का फैसला कैबिनेट कमिटी ऑफ़ सिक्योरिटी, डिफेंस प्रोक्यूर्मेंट बोर्ड के सलाह  के आधार पर करेगी।

कहने का मतलब यह है की प्रधानमंत्री ने करार करने के लिए जरूरी हर तरह की प्रक्रिया को जानबूझकर मार दिया। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि रक्षा संसाधनों की खरीददारी गंभीर मसला है,जहाँ प्रक्रियाओं के आभाव में उठाया गया किसी भी तरह का कदम  गंभीर खतरा पैदा कर सकती है,इसे बहुत अच्छी तरह से जानने के बाद भी माननीय प्रधानमंत्री इसका पालन नहीं करते हैं। करार भी ऐसा करते हैं जिसकी विषयवस्तु को पचा पाना अभी भी बेहद मुश्किल हो रहा है। इस करार के तहत 58 हज़ार करोड़ की कीमत पर फ्रांस की dasault कम्पनी भारत को 36 राफेल विमान देने पर राज़ी होती है, जबकि करार में राफेल से जुड़ी टेक्नोलॉजी ट्रान्सफर शामिल नहीं की जाती है। 

अब आप ही फैसला कीजिये कि  साल 2012 में dasault 54 हज़ार करोड़ में 126 राफेल देने के साथ टेक्नोलॉजी ट्रांसफर से जुड़े करार पर राज़ी था, उसी dasault कम्पनी के साथ मोदी जी 58 हज़ार करोड़ में केवल 36 राफेल विमान बिना टेक्नोलॉजी ट्रान्सफर के साथ खरीदने के नये करार पर राज़ी हुए हैं, इसे कैसे पचाया जाए? क्यों न इस अपच के कारणों को उभारने के लिए कुछ और घटनाओं के तार जोड़ने की कोशिश की जाए। इस लिहाज से यह जानना खटकता है कि मोदी जी के फ़्रांस दौरे के कुछ दिन पहले ही अनिल अम्बानी की रिलायंस डिफेन्स नामक कम्पनी रक्षा बाज़ार में एक नई कम्पनी के तौर पर सामने आती है। 

औपचारिक मंजूरी मिलने के 2 हफ्ते बाद, फ्रांस की dasault कम्पनी अनिल अम्बानी की रिलायंस डिफेन्स कम्पनी के साथ 22 हजार करोड़ रूपये का ओफ़्सेट कॉन्ट्रैक्ट कर लेती है।  जिसका मतलब यह हुआ की फ्रांस की dasault कम्पनी के सुरक्षा से जुड़े भारत में कलपुर्जे बनाने का 22 हजार करोड़ रूपये का काम रिलायंस डिफेंस के हाथो में है। अब यहाँ समझने वाली और कारणों की तार जोड़ने वाली बात यह है की भारत और dasault कम्पनी के बीच हुए नये करार में टेक्नोलॉजी ट्रान्सफर का मुद्दा नहीं है और dasault कम्पनी भारत में डिफेंस के कल पुर्जे बनाने के काम में जीरो अनुभव रखने वाली रिलाइंस  डिफेन्स को 22 हजार करोड़ का काम सौप देती है। ऐसा कैसे हुआ संभव हो सकता है की एक विश्व की एक प्रतिष्ठित एयरक्राफ्ट बनाने वाली कम्पनी लाखों करोड़ रूपये के कर्जे में डूबी साख वाली कम्पनी की सहयोगी कम्पनी से करोंड़ो का करार कर लेती हैं। कही यह  पूंजीवाद के दौर में क्रोनि कैपिटलिज्म का बेहतरीन उदहारण तो नहीं,कही यह कॉर्पोरेट और राजनीति की मिलीभगत तो नहीं है,कहीं यह जनता के पैसे के साथ खिलवाड़ तो नहीं है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि राफेल डील से हुई कमाई को छुपाने के लिए संसद में सेना के नाम पर किसी मॉब लिंचिंग के अगुवा की तरह मोदी जी कांग्रेस को ललकार रहे हैं ?   

ये कुछ जरूरी सवाल हैं:

1.) यह फैसला किसने किया की भारत को 126 की बजाए केवल 36 एयर क्राफ्ट चाहिए? क्या इतने बड़े रक्षा करार की जानकारी यूनियन कैबिनेट को नहीं थी ?

2.) किसी वजह के बिना राफेल से जुड़ा पुराना करार रद्द क्यों कर दिया गया और नये सौदे में प्रति राफेल विमान की कीमत पहले की अपेक्षा तीन गुनी अधिक क्यों स्वीकार की गयी ?

3.) टेक्नोलॉजी ट्रान्सफर से जुड़ा जरूरी क्लॉज़ नए करार से क्यों हटा लिया गया ?

4.) जिस कंपनी को रक्षा मेटेरियल बनाने के क्षेत्र में जीरो अनुभव है उससे 22 हज़ार करोड़ का ओफ़्सेट करार कैसे कर लिया गया?

ये कुछ सवाल है जिनका जवाब मिल गया तो सच्चे देशप्रेमी ये सवाल नहीं उठाएंगे की चुनाव के दौर में पार्टियां चुनावी राफेल वाले विमान का जुगाड़ कैसे करती है?

साभारः न्यूज क्लिक

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