प्रणव मुखर्जी के आरएसएसएस के शिविर में संबोधन में केवल प्राचीन भारत एवं आधुनिक भारत का सेलेक्टिव ज़िक्र था. जैसे प्राचीन भारत में आर्यों के बारे में भी वो मौन ही रहे.पता नही क्यों उन्होने मध्य काल को पूरा नज़र अंदाज कर दिया. न रविदास, ना कबीर, ना दादू, चोखमेला, यहाँ तक नानक का भी ज़िक्र नही था. उन्होने भारत को गंगा-जमुनी तहज़ीब का पुंज तो ज़रूर बताया. परंतु यह गंगा-जमुनी तहज़ीब कैसे बनी इसका ज़िक्र उन्होने एक बार भी नही किया.
क्या यह गंगा-जमुनी तहज़ीब भारत की 450 से अधिक जन-जातियों (जिनकी आबादी 8.5% है), 1200 दलितों जातियों (जिनकी संख्या लगभग 18%), 3743 अति-पिछड़ी जातियाँ (जिनकी आबादी लगभग 52% है) और लगभग 15 प्रतिशत धर्माणतरित अप्ल्संख्यकों के योगदान के बगैर बन सकती है? अगर नही तो प्राणव मुखर्जी ने अपने इस संबोधन में उपरोक्त सामाजिक समूहों का ज़िक्र क्यों नही किया. उन्होने इतिहास के एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य की भी अनदेखी की.
उन्होने यह नही बताया ही नही कि इस्लाम भारत में विशेषकर तीन लहरों मे आया. पहला-व्यापारियों के साथ, दूसरा सूफ़ियों के साथ और तीसरा आक्रांताओं के साथ. उन्होने केवल तीसरी लहर का ज़िक्र किया और अन्य दो लहरों को भुला दिया. भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति को बनाने में यह दोनो इन दोनो लहरो का ख़ासा योगदान है जो आज भी विद्ड़मान है. परन्तु प्रणब जी इन्हे भूल गये.
उन्होने आधुनिक भारत मे टैगोर, गाँधी, सुरेंद्रनाथ, नेहरू, पटेल का ज़िक्र किया. राष्ट्र-भक्ति को संविधान के प्रति प्रतिबद्धता की परिभाषा भी दी किंतु आधुनिक भारत के निर्माण में बाबसाहेब आम्बेडकर के योगदान का नाम तक नही लिया तो जोतिबा फूले एवं पेरियार का नाम क्या ही लेते.
भारत की संस्कृति एवं सभ्यता के निर्माण में भारतीय महिलाओं का क्या योगदान है उन्होने इसका भी ज़िक्र नही किया. और ना ही यह ही बताया की आज भी भारत एक कृषि प्रधान देश है और वे भी हमारी संस्कृति के निर्माण में अपना योगदान देते है.
क्या राष्ट्र का निर्माण उपरोक्तं संतों, समुदायों, सामाजिक समूहों एवम् व्यक्तियों का संज्ञान लिए हुए बगैर किया जा सकता है. अतः मेरे लिए प्रणव मुखर्जी का यह संबोधन केवल एक उच्च-वार्णीय हिंदू भारत के उद्घोश से ज़्यादा कुछ नही था.
(ये लेखक के निजी विचार हैं। विवेक कुमार जेएनयु में प्रोफेसर और विख्यात समाजशास्त्री हैं। ये लेख मूलतः उनके फेसबुक पोस्ट पर प्रकाशित किया गया है।)
क्या यह गंगा-जमुनी तहज़ीब भारत की 450 से अधिक जन-जातियों (जिनकी आबादी 8.5% है), 1200 दलितों जातियों (जिनकी संख्या लगभग 18%), 3743 अति-पिछड़ी जातियाँ (जिनकी आबादी लगभग 52% है) और लगभग 15 प्रतिशत धर्माणतरित अप्ल्संख्यकों के योगदान के बगैर बन सकती है? अगर नही तो प्राणव मुखर्जी ने अपने इस संबोधन में उपरोक्त सामाजिक समूहों का ज़िक्र क्यों नही किया. उन्होने इतिहास के एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य की भी अनदेखी की.
उन्होने यह नही बताया ही नही कि इस्लाम भारत में विशेषकर तीन लहरों मे आया. पहला-व्यापारियों के साथ, दूसरा सूफ़ियों के साथ और तीसरा आक्रांताओं के साथ. उन्होने केवल तीसरी लहर का ज़िक्र किया और अन्य दो लहरों को भुला दिया. भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति को बनाने में यह दोनो इन दोनो लहरो का ख़ासा योगदान है जो आज भी विद्ड़मान है. परन्तु प्रणब जी इन्हे भूल गये.
उन्होने आधुनिक भारत मे टैगोर, गाँधी, सुरेंद्रनाथ, नेहरू, पटेल का ज़िक्र किया. राष्ट्र-भक्ति को संविधान के प्रति प्रतिबद्धता की परिभाषा भी दी किंतु आधुनिक भारत के निर्माण में बाबसाहेब आम्बेडकर के योगदान का नाम तक नही लिया तो जोतिबा फूले एवं पेरियार का नाम क्या ही लेते.
भारत की संस्कृति एवं सभ्यता के निर्माण में भारतीय महिलाओं का क्या योगदान है उन्होने इसका भी ज़िक्र नही किया. और ना ही यह ही बताया की आज भी भारत एक कृषि प्रधान देश है और वे भी हमारी संस्कृति के निर्माण में अपना योगदान देते है.
क्या राष्ट्र का निर्माण उपरोक्तं संतों, समुदायों, सामाजिक समूहों एवम् व्यक्तियों का संज्ञान लिए हुए बगैर किया जा सकता है. अतः मेरे लिए प्रणव मुखर्जी का यह संबोधन केवल एक उच्च-वार्णीय हिंदू भारत के उद्घोश से ज़्यादा कुछ नही था.
(ये लेखक के निजी विचार हैं। विवेक कुमार जेएनयु में प्रोफेसर और विख्यात समाजशास्त्री हैं। ये लेख मूलतः उनके फेसबुक पोस्ट पर प्रकाशित किया गया है।)