क्या ये प्रेमचंद हमारे जमाने की जरूरत नहीं हैं?
वैसे, हमारे वक्त में प्रेमचंद का क्या काम?
जाहिर है, ऐसा लग सकता है। प्रेमचंद का इंतकाल 1936 में यानी आज से 81 साल पहले हुआ था। जो भी लिखा 81 साल पहले ही लिखा। उस वक्त देश गुलाम था। अंग्रेजों का राज था। आजादी की लड़ाई तरह-तरह से लड़ी जा रही थी। आँखों में नया भारत बनाने का ख्वाब था। जाहिर है, उस वक्त की समाजी-सियासी जरूरत कुछ और ही रही होगी। चुनौतियाँ भी कुछ और रही होंगी। हाँ, इतना तो तय है कि उनकी लिखी बातें उस वक्त को समझने के लिए जरूर कारगर होंगी।
फिर हम आज प्रेमचंद की बातों को क्यों याद कर रहे हैं? उनकी बात आज के वक्त में हमारे समय की चुनौतियों से टकराने के लिए कैसे काम की हो सकती हैं? दुरुस्त बात है। मगर जब पिछले काम अधूरे छूटते जाते हैं, तो बार-बार सहारे के लिए, हालात समझने के लिए पीछे लौटना ही पड़ता है। आजादी के बाद हमने अनेक समाजी काम अधूरे छोड़े। इसलिए सत्तर साल बाद भी ऐसे ढेरों सवालों से हम हर रोज टकरा रहे हैं, जो सवाल मुल्क के सामने आजादी से पहले भी दरपेश थे।
प्रेमचंद सिर्फ नावेल या कहानियाँ नहीं लिखा करते थे। वे सहाफी यानी पत्रकार के रोल में भी अपने समय से गुफ्तगू कर रहे थे। प्रेमचंद के दौर में भी फिरकापरस्ती यानी साम्प्रदायिकता, नफरत फैलाने और बाँटने का अपना जरूरी काम बखूबी कर रही थी। आजादी के आंदोलन की पहली पांत के लीडरों की तरह ही प्रेमचंद का भी मानना था कि स्वराज के लिए इस मसले का खत्म होना जरूरी है।
उनके बेटे अमृतराय ने विविध प्रसंग नाम से उनके लेखों को इकट्ठा किया है। इसी में 15 जनवरी 1934 को छपा उनका एक लेख है- साम्प्रदायिकता और संस्कृति। यह लेख काफी मशहूर है और अक्सर हम इससे टकराते हैं। हम यहाँ उस लम्बे लेख के चुनिंदा हिस्से आपके सामने पेश कर रहे हैं। पढि़ए, सुनिए और अच्छा लगे तो साझा कीजिए...