रामजस कॉलेज में आयोजित सेमिनार के दौरान एबीवीपी कार्यकर्ताओं द्वारा की गई तोड़फोड़ को लेकर ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी ‘का सवाल बड़े पैमाने पर उठा। इस बहस के बीच में दिल्ली बीजेपी की उपाध्यक्ष शाज़िया इल्मी ने आरोप लगाया कि उन्हें एक सेमिनार में जामिया मिलिया इस्लामिया में नहीं बोलने दिया गया, तब ‘सिकुलर’ जमात चुप क्यों थी। ज़ाहिर है, कोई भी लोकतंत्र पसंद व्यक्ति शाज़िया के सवाल से इत्तेफ़ाक रखेगा, लेकिन अब साफ़ हुआ है कि शाज़िया ने इस मामले में झूठ बोला था ताकि एबीवीपी की कारग़ुज़ारियों से ध्यान हट सके। कैच न्यूज़ में शाहनवाज़ मलिक ने सभी पक्षों से बात करके जो रिपोर्ट लिखी है वह बताती है कि शाज़िया अब पक्की नेता बन गई हैं। वे बतौर पत्रकार पढ़ा गया यह पाठ पूरी तरह भूल चुकी हैं कि तथ्य पवित्र होते हैं, उनके साथ छेड़छाड़ गुनाह है। पढ़िये शाहनवाज़ की यह रिपोर्ट–
17 सितंबर 1951 को आज़ाद भारत के पहले क़ानून मंत्री डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल सदन के पटल पर रखा तो संसद से लेकर सड़क तक उन्हें तीखा विरोध झेलना पड़ा. आरएसएस, हिंदू महासभा समेत कई हिंदूवादी संगठन आंबेडकर के उस क्रांतिकारी बिल के ख़िलाफ़ खड़े हो गए जिसमें हिंदू औरतों के लिए संपत्ति समेत तमाम अधिकार शामिल थे. हिंदू कोड बिल पर चौतरफा विरोध के नाते डॉक्टर आंबेडकर ने तभी मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. आज़ाद भारत की पहली सरकार में किसी मंत्री का यह पहला इस्तीफ़ा था.
हिंदू औरतों को भेदभाव वाली व्यवस्था से मुक्त किए जाने की कोशिश का विरोध करने वाली वही आरएसएस बीते एक साल से मुस्लिम औरतों के अधिकारों के लिए ख़ासतौर पर ‘चिंतित’ है. हाल में अपनी कई उच्चस्तरीय बैठकों में आरएसएस ने तीन तलाक़ का मुद्दा उठाया है. इंद्रेश कुमार की अगुवाई में राष्ट्रीय मुस्लिम मंच देश के अलग-अलग हिस्सों में इस मुद्दे पर बहस करवा रहा है.
इसी साल 31 जनवरी को जबलपुर के सिविक सेंटर में जब मंच ने तीन तलाक़ पर प्रोग्राम किया तो विरोध करने पर स्थानीय मुस्लिम लड़कों पर पुलिसकर्मियों ने बुरी तरह लाठियां बरसाईं, बाद में जिसके कई वीडियो सामने आए.
मध्यप्रदेश पुलिस की इस बर्बर कार्रवाई पर मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने कहा, ‘प्रदर्शनकारी तीन तलाक़ के समर्थक और कट्टरपंथी हैं. वे नहीं चाहते कि मुसलमान औरतें अपने अधिकारों के बारे में जागरूक हो सकें. ऐसे कट्टरपंथी ये भी नहीं चाहते कि मुस्लिम समुदाय के लोग देश में विकास की राह पर चलें.’
आरएसएस पर गहन अध्ययन करने वाले दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर शमसुल इस्लाम कहते हैं कि यह आरएसएस का फॉर्मूला है जिसमें पीड़ित को ही हमलावर बनाकर पेश कर दिया जाता है. जहां भी मुसलमान आरएसएस का विरोध करेंगे, उन्हें खलनायक घोषित करने की कोशिश होगी.
(पुराना पोस्टर जिसमें विषय तीन तलाक़ है और वक़्ताओं में भाजपा की नेता मीनाक्षी लेखी और शाज़िया इल्मी.)
वीसी तलत अजीज़ के मुताबिक ग़लत सूचना देने के कारण आयोजकों की अर्ज़ी रद्द की गई. इसकी जानकारी देते हुए संयोजक शैलेष वत्स ने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा कि जामिया में होने वाला कार्यक्रम स्थगित हो गया है लेकिन उन्होंने स्थगन के कारण का उल्लेख नहीं किया.
आयोजकों की इस हरकत पर जामिया प्रशासन उन्हें अपना ऑडिटोरियम देने से मना कर सकता था लेकिन यूनिवर्सिटी ने दोबारा अनुमति दी. आयोजकों ने इस बार भी स्पष्ट किया कि सेमिनार ‘मुस्लिम महिलाओं का सशक्तिकरण: मुद्दे और चुनौतियां’ विषय पर होगा.
यह प्रोग्राम 28 फरवरी को होना था लेकिन इस बार आयोजकों ने भाजपा की दोनों नेताओं मीनाक्षी लेखी या शाज़िया इल्मी का नाम हटाकर लेखिका नूर ज़हीर और इतिहासकार सैय्यद ज़ुबीन ज़ेहरा का नाम शामिल कर लिया.
(नया पोस्टर जिसमें शाज़िया इल्मी और मीनाक्षी लेखी का नाम नहीं है लेकिन उन्होंने चुप्पी 1 मार्च को तोड़ी.)
नूर ज़हीर के अलावा इतिहासकार मुबीन ज़ेहरा भी कार्यक्रम में शामिल नहीं हुईं. हालांकि उन्होंने आयोजकों को मैसेज किया कि तबियत ख़राब होने के नाते वह इसमें शामिल नहीं हो रही हैं.
इस प्रोग्राम में कुल छह वक्ता थे. अन्य वक्ताओं में कैट के रिटायर्ड जस्टिस प्रमोद कोहली, राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन जसबीर सिंह, मुहम्मद हनीफ़ शास्त्री और प्रोफ़ेसर मुहम्मद शब्बीर शामिल हैं. हनीफ़ और शब्बीर राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के कार्यक्रमों में अक्सर बोलते हुए पाए जाते हैं.
कार्यक्रम के दौरान ही जामिया एमसीआरसी की एक छात्रा मरियम हसन ने मंच पर चढ़कर आयोजकों से पूछा कि तीन तलाक़ और बुर्क़े पर यह कैसी बहस चल रही है जिसमें एक भी वक़्ता महिला नहीं हैं. मरियम ने दूसरा सवाल किया कि आरएसएस को मुस्लिम महिलाओं के मुद्दों में इतनी दिलचस्पी क्यों है?
कैच न्यूज़ ने जामिया के कई छात्रों से बात की. कंप्यूटर साइंस के छात्र ख़ालिद हसन ने कहा कि तीन तलाक़ पर बहस के बहाने आयोजक छात्रों को उकसाना और प्रोटेस्ट करवाना चाहते थे. वो चाहते थे कि ऐसा हो और इसकी जानकारी मीडिया में पहुंचा दी जाए.
छात्र अरीब रिज़वी कहते हैं कि जामिया में ना बोलने देने की परंपरा नहीं रही है. इसी कैंपस में नरेंद्र मोदी के क़रीबी ज़फ़र सरेशवाला आकर बोलकर गए, शाज़िया इल्मी नियमित तौर पर आती हैं लेकिन कभी विरोध नहीं हुआ.
आयोजकों की मंशा को लेकर भी अब सवाल उठ रहे हैं. क्या उन्होंंने शाजिया के साथ मिलकर जानबूझकर मीडिया में इस तरह की बात फैलाई ताकि बोलने की आज़ादी के लिए सिर्फ एबीवीपी को निशाना नहीं बनाया जा सके, रामजस कॉलेज की घटना के बरक्स जामिया के मुस्लिम छात्रों को भी बदनाम किया जाना भी उनकी योजना का हिस्सा था. इस तरह की तमाम अटकलें जामिया परिसर में उड़ रही हैं. अंत समय में सेमिनार का विषय बदलना अपने आप में कई सवाल खड़े करता है.
(जामिया के ऑडिटोरियम में राष्ट्रीय सुरक्षा जागरण मंच का कार्यक्रम)
सायमा ने कहा, आयोजकों को जिस विषय पर जिन वक्ताओं के साथ जहां सेमिनार करवाना है, वो करें. जामिया ने उन्हें निमंत्रण तो दिया नहीं था, वह ख़ुद किराए पर ऑडिटोरियम मांगने आए थे. मगर जामिया में ही करना है, तीन तलाक़ पर ही करना है, राजनीतिक हस्तियों को ही वक़्ता बनाना है, यह थोड़ा अजीबो-गरीब लगती है.
प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम बताते हैं कि 26 नवंबर, 1949 को जब संविधान सभा ने देश का संविधान पारित किया तो कुछ दिन बाद ही 30 नवंबर को आरएसएस ने अपने मुखपत्र ऑर्गनाइज़र में इसके ख़िलाफ़ एक लेख लिखा. उसका ज़ोर इस बात पर था कि संविधान को रद्दी की टोकरे में डाल देना चाहिए. इसकी जगह मनुस्मृति को लाया जाना चाहिए. आरएसएस के भीतर संविधान के प्रति यह सोच आज भी कायम है.
शम्सुल आगे कहते हैं, ‘और उसी मनुस्मृति के चैप्टर संख्या-9 में औरतों के लिए जानवरों से भी बदतर ज़िंदगी की व्यवस्था है. आठ तरह की शादियों का ज़िक्र है. औरत बचपन में बाप, जवानी में पति और बुढ़ापे में बेटे के अधीन है. आरएसएस जब इस ग्रंथ के आगे ढाल बनकर खड़ा है तो मुस्लिम औरतों के हक़ की बात किस मुंह से करता है.’
Courtesy: Media Vigil
17 सितंबर 1951 को आज़ाद भारत के पहले क़ानून मंत्री डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल सदन के पटल पर रखा तो संसद से लेकर सड़क तक उन्हें तीखा विरोध झेलना पड़ा. आरएसएस, हिंदू महासभा समेत कई हिंदूवादी संगठन आंबेडकर के उस क्रांतिकारी बिल के ख़िलाफ़ खड़े हो गए जिसमें हिंदू औरतों के लिए संपत्ति समेत तमाम अधिकार शामिल थे. हिंदू कोड बिल पर चौतरफा विरोध के नाते डॉक्टर आंबेडकर ने तभी मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. आज़ाद भारत की पहली सरकार में किसी मंत्री का यह पहला इस्तीफ़ा था.
हिंदू औरतों को भेदभाव वाली व्यवस्था से मुक्त किए जाने की कोशिश का विरोध करने वाली वही आरएसएस बीते एक साल से मुस्लिम औरतों के अधिकारों के लिए ख़ासतौर पर ‘चिंतित’ है. हाल में अपनी कई उच्चस्तरीय बैठकों में आरएसएस ने तीन तलाक़ का मुद्दा उठाया है. इंद्रेश कुमार की अगुवाई में राष्ट्रीय मुस्लिम मंच देश के अलग-अलग हिस्सों में इस मुद्दे पर बहस करवा रहा है.
इसी साल 31 जनवरी को जबलपुर के सिविक सेंटर में जब मंच ने तीन तलाक़ पर प्रोग्राम किया तो विरोध करने पर स्थानीय मुस्लिम लड़कों पर पुलिसकर्मियों ने बुरी तरह लाठियां बरसाईं, बाद में जिसके कई वीडियो सामने आए.
मध्यप्रदेश पुलिस की इस बर्बर कार्रवाई पर मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने कहा, ‘प्रदर्शनकारी तीन तलाक़ के समर्थक और कट्टरपंथी हैं. वे नहीं चाहते कि मुसलमान औरतें अपने अधिकारों के बारे में जागरूक हो सकें. ऐसे कट्टरपंथी ये भी नहीं चाहते कि मुस्लिम समुदाय के लोग देश में विकास की राह पर चलें.’
आरएसएस पर गहन अध्ययन करने वाले दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर शमसुल इस्लाम कहते हैं कि यह आरएसएस का फॉर्मूला है जिसमें पीड़ित को ही हमलावर बनाकर पेश कर दिया जाता है. जहां भी मुसलमान आरएसएस का विरोध करेंगे, उन्हें खलनायक घोषित करने की कोशिश होगी.
1 मार्च को भाजपा नेता शाज़िया इल्मी ने ट्वीट कर कहा कि जामिया यूनिवर्सिटी ने तीन तलाक़ पर आयोजित एक सेमिनार में बोलने से उन्हें रोक दिया है. इसके बाद मीडिया में बवंडर खड़ा हो गया. मगर इस कार्यक्रम की सच्चाई क्या है, शाज़िया के विरोध की वजह क्या है और जैसा उन्होंने मीडिया के सामने रखा क्या बात उतनी सीधी-सपाट है? इस विषय को खंगालने पर एक अलग ही सच सामने आता है.
संघ के बड़े नेता इंद्रेश कुमार मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के अलावा एक और बड़ा संगठन राष्ट्रीय सुरक्षा जागरण मंच चलाते हैं. शाजिया को जिस कार्यक्रम में हिस्सा लेना था वह इसी संगठन ने आयोजित कर रखा था. इसके राष्ट्रीय संयोजक शैलेष वत्स ने कैच न्यूज़ को बताया, ‘हम जामिया में तीन तलाक़ विषय पर एक कार्यक्रम करवाना चाहते थे. हमारा कार्यक्रम हुआ भी लेकिन जामिया में 10 फ़ीसदी छात्र तालिबानी सोच के हैं. यूनिवर्सिटी प्रशासन उन तालिबानी छात्रों के साथ खड़ा है जिनकी वजह से उन्हें वक़्ता और तीन तलाक़ का विषय बदलना पड़ गया.’
इस विवाद पर विश्व हिंदू परिषद के महासचिव सुरेंद्र जैन ने मेल टुडे से कहा, ‘अब जामिया आतंकवादियों और अतिवादियों के छिपने का अड्डा बन गया है. कैंपस के आसपास के इलाक़ों से हथियार बरामद होते हैं. जनता के रुपयों से चलने वाला शिक्षण स्थान देशद्रोही गतिविधियों का केंद्र है.’ राकेश सिन्हा समेत कई अन्य ने भी जामिया पर हमला करते हुए ट्वीट किए.
संघ के बड़े नेता इंद्रेश कुमार मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के अलावा एक और बड़ा संगठन राष्ट्रीय सुरक्षा जागरण मंच चलाते हैं. शाजिया को जिस कार्यक्रम में हिस्सा लेना था वह इसी संगठन ने आयोजित कर रखा था. इसके राष्ट्रीय संयोजक शैलेष वत्स ने कैच न्यूज़ को बताया, ‘हम जामिया में तीन तलाक़ विषय पर एक कार्यक्रम करवाना चाहते थे. हमारा कार्यक्रम हुआ भी लेकिन जामिया में 10 फ़ीसदी छात्र तालिबानी सोच के हैं. यूनिवर्सिटी प्रशासन उन तालिबानी छात्रों के साथ खड़ा है जिनकी वजह से उन्हें वक़्ता और तीन तलाक़ का विषय बदलना पड़ गया.’
इस विवाद पर विश्व हिंदू परिषद के महासचिव सुरेंद्र जैन ने मेल टुडे से कहा, ‘अब जामिया आतंकवादियों और अतिवादियों के छिपने का अड्डा बन गया है. कैंपस के आसपास के इलाक़ों से हथियार बरामद होते हैं. जनता के रुपयों से चलने वाला शिक्षण स्थान देशद्रोही गतिविधियों का केंद्र है.’ राकेश सिन्हा समेत कई अन्य ने भी जामिया पर हमला करते हुए ट्वीट किए.
वक्ता और विषय क्यों बदले?
(पुराना पोस्टर जिसमें विषय तीन तलाक़ है और वक़्ताओं में भाजपा की नेता मीनाक्षी लेखी और शाज़िया इल्मी.)
जामिया के वाइस चांसलर तलत अजीज़ के मुताबिक़ आयोजकों ने मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण पर प्रोग्राम के लिए किराए पर ऑडिटोरियम बुक किया था. मगर 16 फरवरी यानी कि प्रोग्राम से ठीक एक दिन पहले आयोजकों ने महिला सशक्तिकरण की बजाय सेमिनार तीन तलाक़ पर केंद्रित कर नेताओं को वक्ता बना दिया. इस तरह से अंतिम समय में वक्ताओं और विषय को बदलने के पीछे आयोजकों की कुछ छिपी मंशा हो सकती है.
वीसी बताते हैं, आयोजकों ने कैंपस में तीन तलाक़ पर सेमिनार का पोस्टर लगा दिया जिसमें जामिया प्रशासन की इजाज़त के बिना यूनिवर्सिटी का लोगो भी इस्तेमाल हुआ. इस पोस्टर में वक़्ताओं की लिस्ट में भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी और भाजपा नेता शाज़िया इल्मी का नाम था.वीसी तलत अजीज़ के मुताबिक ग़लत सूचना देने के कारण आयोजकों की अर्ज़ी रद्द की गई. इसकी जानकारी देते हुए संयोजक शैलेष वत्स ने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा कि जामिया में होने वाला कार्यक्रम स्थगित हो गया है लेकिन उन्होंने स्थगन के कारण का उल्लेख नहीं किया.
आयोजकों की इस हरकत पर जामिया प्रशासन उन्हें अपना ऑडिटोरियम देने से मना कर सकता था लेकिन यूनिवर्सिटी ने दोबारा अनुमति दी. आयोजकों ने इस बार भी स्पष्ट किया कि सेमिनार ‘मुस्लिम महिलाओं का सशक्तिकरण: मुद्दे और चुनौतियां’ विषय पर होगा.
यह प्रोग्राम 28 फरवरी को होना था लेकिन इस बार आयोजकों ने भाजपा की दोनों नेताओं मीनाक्षी लेखी या शाज़िया इल्मी का नाम हटाकर लेखिका नूर ज़हीर और इतिहासकार सैय्यद ज़ुबीन ज़ेहरा का नाम शामिल कर लिया.
(नया पोस्टर जिसमें शाज़िया इल्मी और मीनाक्षी लेखी का नाम नहीं है लेकिन उन्होंने चुप्पी 1 मार्च को तोड़ी.)
मगर लेखिका नूर ज़हीर को जब आयोजकों के आरएसएस से जुड़ाव के बारे में पता चला तो उन्होंने इस प्रोग्राम में शामिल होने से मना कर दिया. उनके विरोध की सैद्धांतिक वजहें थीं. कैच न्यूज़ से उन्होंने बताया, ‘मुझे एक दिन पहले मालूम हुआ कि आयोजक आरएसएस के लोग हैं, इसलिए मैंने जाने से मना कर दिया. उन्होंने दो-तीन बार संपर्क किया लेकिन मैंने साफ कहा कि हमारी सोच अलग है. हम संघ के साथ मंंच साझा नहीं कर सकते.’
नूर ज़हीर ने कैच से ये भी कहा, ‘आयोजकों से हुई बातचीत से यह साफ पता चल रहा था कि उनकी मंशा तीन तलाक पर विमर्श की बजाय मुसलमानों को अपमानित करना और उन्हें कमतर साबित करना है.’नूर ज़हीर के अलावा इतिहासकार मुबीन ज़ेहरा भी कार्यक्रम में शामिल नहीं हुईं. हालांकि उन्होंने आयोजकों को मैसेज किया कि तबियत ख़राब होने के नाते वह इसमें शामिल नहीं हो रही हैं.
इस प्रोग्राम में कुल छह वक्ता थे. अन्य वक्ताओं में कैट के रिटायर्ड जस्टिस प्रमोद कोहली, राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन जसबीर सिंह, मुहम्मद हनीफ़ शास्त्री और प्रोफ़ेसर मुहम्मद शब्बीर शामिल हैं. हनीफ़ और शब्बीर राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के कार्यक्रमों में अक्सर बोलते हुए पाए जाते हैं.
प्रोग्राम तीन तलाक़ पर ही हुआ
राष्ट्रीय सुरक्षा जागरण मंच का सेमिनार 28 फरवरी की शाम 4 बजे जामिया के ऑडीटोरियम में हुआ. संयोजक शैलेष वत्स ने कैच न्यूज़ से बातचीत में कहा कि विषय मुस्लिम महिलाओं का सशक्तिकरण ज़रूर था लेकिन वक़्ता तीन तलाक़ पर ही बोल रहे थे.कार्यक्रम के दौरान ही जामिया एमसीआरसी की एक छात्रा मरियम हसन ने मंच पर चढ़कर आयोजकों से पूछा कि तीन तलाक़ और बुर्क़े पर यह कैसी बहस चल रही है जिसमें एक भी वक़्ता महिला नहीं हैं. मरियम ने दूसरा सवाल किया कि आरएसएस को मुस्लिम महिलाओं के मुद्दों में इतनी दिलचस्पी क्यों है?
कैच न्यूज़ ने जामिया के कई छात्रों से बात की. कंप्यूटर साइंस के छात्र ख़ालिद हसन ने कहा कि तीन तलाक़ पर बहस के बहाने आयोजक छात्रों को उकसाना और प्रोटेस्ट करवाना चाहते थे. वो चाहते थे कि ऐसा हो और इसकी जानकारी मीडिया में पहुंचा दी जाए.
छात्र अरीब रिज़वी कहते हैं कि जामिया में ना बोलने देने की परंपरा नहीं रही है. इसी कैंपस में नरेंद्र मोदी के क़रीबी ज़फ़र सरेशवाला आकर बोलकर गए, शाज़िया इल्मी नियमित तौर पर आती हैं लेकिन कभी विरोध नहीं हुआ.
आयोजकों की मंशा को लेकर भी अब सवाल उठ रहे हैं. क्या उन्होंंने शाजिया के साथ मिलकर जानबूझकर मीडिया में इस तरह की बात फैलाई ताकि बोलने की आज़ादी के लिए सिर्फ एबीवीपी को निशाना नहीं बनाया जा सके, रामजस कॉलेज की घटना के बरक्स जामिया के मुस्लिम छात्रों को भी बदनाम किया जाना भी उनकी योजना का हिस्सा था. इस तरह की तमाम अटकलें जामिया परिसर में उड़ रही हैं. अंत समय में सेमिनार का विषय बदलना अपने आप में कई सवाल खड़े करता है.
(जामिया के ऑडिटोरियम में राष्ट्रीय सुरक्षा जागरण मंच का कार्यक्रम)
इस बीच सारे विवाद की सूत्रधार शाज़िया इल्मी से संपर्क करने की कैच की तमाम कोशिशें असफल सिद्ध हुईं. वो लगातार समाचार चैनलों की बहसों में व्यस्तता बताकर बातचीत से बचती रहीं. शाज़िया इल्मी 16 फरवरी के कार्यक्रम में वक्ता थीं मगर यह कार्यक्रम रद्द होने पर उन्होंने मीडिया को इसकी जानकारी नहीं दी. क्या उन्हें इससे आयोजकों की विषय बदलने की चोरी पकड़े जाने का डर था?
यह प्रोग्राम दोबारा 28 फ़रवरी को करने की अनुमति मिली और आयोजकों ने इस बार वक़्ताओं की लिस्ट में शाज़िया और लेखी का नाम शामिल नहीं किया, तब भी शाज़िया इल्मी ने मीडिया में इस मुद्दे को उठाकर जामिया पर दबाव बनाने की कोशिश नहीं की. उन्होंने एक मार्च की दोपहर में ट्वीट कर इसका खुलासा किया जबकि प्रोग्राम एक दिन पहले ही ख़त्म हो चुका था.क्या आरएसएस को सचमुच चिंता है?
जामिया की डिप्टी मीडिया कोऑर्डिनेटर सायमा सईद ने कहा कि यह उच्च शिक्षा का शिक्षण संस्थान है. तीन तलाक़ हो या फिर कोई अन्य संवेदनशील विषय, लाइब्रेरी में किताबें और जर्नल भरे पड़े हैं. सभी विषयों पर सेमिनार होते रहते हैं. 100 साल पुरानी विरासत है इस संस्थान की. मगर आयोजकों ने शोधार्थियों को बुलाने की बजाय नेताओं को बुलाकर एक संवेदनशील विषय के राजनीतिकरण की कोशिश की.सायमा ने कहा, आयोजकों को जिस विषय पर जिन वक्ताओं के साथ जहां सेमिनार करवाना है, वो करें. जामिया ने उन्हें निमंत्रण तो दिया नहीं था, वह ख़ुद किराए पर ऑडिटोरियम मांगने आए थे. मगर जामिया में ही करना है, तीन तलाक़ पर ही करना है, राजनीतिक हस्तियों को ही वक़्ता बनाना है, यह थोड़ा अजीबो-गरीब लगती है.
प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम बताते हैं कि 26 नवंबर, 1949 को जब संविधान सभा ने देश का संविधान पारित किया तो कुछ दिन बाद ही 30 नवंबर को आरएसएस ने अपने मुखपत्र ऑर्गनाइज़र में इसके ख़िलाफ़ एक लेख लिखा. उसका ज़ोर इस बात पर था कि संविधान को रद्दी की टोकरे में डाल देना चाहिए. इसकी जगह मनुस्मृति को लाया जाना चाहिए. आरएसएस के भीतर संविधान के प्रति यह सोच आज भी कायम है.
शम्सुल आगे कहते हैं, ‘और उसी मनुस्मृति के चैप्टर संख्या-9 में औरतों के लिए जानवरों से भी बदतर ज़िंदगी की व्यवस्था है. आठ तरह की शादियों का ज़िक्र है. औरत बचपन में बाप, जवानी में पति और बुढ़ापे में बेटे के अधीन है. आरएसएस जब इस ग्रंथ के आगे ढाल बनकर खड़ा है तो मुस्लिम औरतों के हक़ की बात किस मुंह से करता है.’
Courtesy: Media Vigil
जामिया में यही हथकंडा