जिन्हे नाज़ है हिंद पर...

Published on: 08-16-2016


आधुनिक विश्व की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी यानी भारत विभाजन के दो साल पूरे हो चुके थे। दिल्ली में नफरत की आग अब लगभग ठंडी पड़ चुकी थी। उधर भगत सिंह का शहर लाहौर बाकी रंगों के मिटाये जाने और सिर से पांव तक हरे रंग में रंगे जाने के बाद एकदम बदरंग हो चुका था। ऐसे में लाहौर में रहने वाले एक नौजवान ने मजहबी कट्टरता वाली जहरीली हवा में सांस लेने से इनकार कर दिया। वह पहले दिल्ली आया फिर वहां से उसने बंबई का रुख किया। उस नौजवान का नाम था—अब्दुल हई, जिसे बाद में दुनिया ने शायर साहिर लुधियानवी के नाम से जाना। भारत में बसने के कुछ अरसे बाद साहिर ने पूरे देश से एक सवाल किया—जिन्हे नाज है हिंद पर वो कहां हैं? रुमानियत के उस दौर में जहां नेहरू समेत इस देश के तमाम बड़े नेता भगवान की तरह पूजे जाते थे.. यह सवाल हथौड़े की चोट की तरह था--  जिन्हे नाज है हिंद पर वो कहां हैं? जवाब में सिर्फ सन्नाटा था, लेकिन सवाल यूं ही हवा में तैरता रहा और कई पीढ़ियों के मन-मष्तिष्क को मथता रहा। आजादी से इमरजेंसी और इमरजेंसी से आर्थिक उदारवाद तक वक्त लगातार बदलता रहा। धीरे-धीरे यह सवाल भी बदल गया। अब सवाल नाज़ करने वालों से नहीं बल्कि हिंद पर नाज़ ना करने वालों से पूछे जाने लगे क्योंकि वो भारत पलको पर सुनहरे ख्वाब सजाकर बैठा एक नया नवेला आज़ाद मुल्क था, ये भारत एक उभरती हुई महाशक्ति है और महाशक्तियों को सवाल पूछा जाना पसंद नहीं होता। विभाजन बहुत स्पष्ट है।



हिंद पर नाज़ करने वाले वतनपरस्त हैं और सवाल पूछने वाले नमकहराम। सवाल के बदले में सवाल है। हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी इकॉनमी हैं। अंतरमहाद्वीपय बैलेस्टिक मिसाइलों के मालिक और न्यूक्लियर पावर हैं। पच्चीस साल में दर्जन भर मिस वर्ल्ड पैदा कर चुके हैं और दो बार क्रिकेट का वर्ल्ड कप भी जीत चुके हैं। फिर क्यों ना हो हमें अपने हिंद पर नाज़? साढ़े सात परसेंट के ग्रोथ रेट के साथ दुनिया में सबसे तेज़ी से बढ़ती आर्थिक असमानता की बात करना स्वतंत्रता दिवस के पवित्र मौके पर मनहूसियत बिखेरना है। देश साझा सुख और साझा दुखों से बनता है लेकिन इस देश में साझा कुछ भी नहीं है, ये याद दिलाना बड़ी हिमाकत है। किसानों की आत्महत्या पर बात करना फैशन है और दलितों के मुद्धे उठाना ओछी राजनीति। हमलावरों का कोई भी समूह अचानक सड़क पर उतरता है और संविधान के पन्ने तार-तार करके चला जाता है। देश का चीफ जस्टिस प्रधानमंत्री के सामने रोता है और प्रधानमंत्रीजी अपनी चिर-परिचित मोदीगीरी छोड़कर गांधीगीरी पर उतर आते हैं---  मुझे गोली मार दो, लेकिन दलितों पर हमले मत करना। कार्यपालिका मजबूर, न्यायपालिका मजबूर, सिस्टम लाचार, मगर भूले से मत पूछना ये सवाल—जिन्हे नाज है, हिंद पर वो कहा हैं?
स्वतंत्र स्तम्भकार. पेशे के तौर पर 35 साल से पत्रकारिता में. आठ साल तक (2004-12) टीवी टुडे नेटवर्क के चार चैनलों आज तक, हेडलाइन्स टुडे, तेज़ और दिल्ली आज तक के न्यूज़ डायरेक्टर. 1980 से 1995 तक प्रिंट पत्रकारिता में रहे और इस बीच नवभारत टाइम्स, रविवार, चौथी दुनिया में वरिष्ठ पदों पर काम किया. 13-14 साल की उम्र से किसी न किसी रूप में पत्रकारिता और लेखन में सक्रियता रही.

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