बंगाल की राजनीति दिल्ली के अखबारों में हो रही थी। मेरा मानना है कि कोलकाता में भाजपा की लड़ाई दिल्ली के अखबारों में लड़ी जाए तो प्रत्यक्ष परोक्ष लाभ देश भर में मिलेगा। और पहले ऐसा हो चुका है। इसलिए कोलकाता की खबरें दिल्ली के अखबारों में रहती हैं। प्यार से रहती हैं और पहले पन्ने पर भी नजर आती हैं। कल मैंने कोलकाता की खबर का जिक्र किया था जिसे टेलीग्राफ ने पहले पन्ने पर छापा था और मेरा मानना था कि वह खबर दिल्ली में भी (पहले पन्ने पर) छप सकती थी। कल वह खबर कल दिल्ली में नहीं थी पर कुछ दूसरी खबरें पहले पन्ने पर जरूर थीं। कल मैंने उनका जिक्र भी किया था। आज नीन्द कुछ देर से खुली और सबसे पहले मैंने ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ देखा।
पहले पन्ने पर तीन कॉलम में दो लाइन के शीर्षक और फोटो के साथ कोलकाता की एक खबर टॉप पर है। शीर्षक हिन्दी में लिखा जाए तो कुछ इस प्रकार होगा, “कोलकाता में भाजपा के विरोध मार्च पर पुलिसिया कार्रवाई”। शीर्षक से स्पष्ट है कि कोई हिन्सा नहीं हुई है, पुलिस ने लाठियां नहीं भांजी हैं और कोई गिरफ्तारी भी नहीं हुई है। मैंने पहले पन्ने की पूरी खबर पढ़ भी ली ऐसी कोई सूचना नहीं है। खबर में बताया गया है कि राज्य में राजनीतिक हिंसा का विरोध करने के लिए आयोजित रैली में भाग ले रहे भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े और वाटर कैनन (पानी के फव्वारों) का उपयोग किया।
खबर के मुताबिक, भाजपा उत्तर 24 परगना जिले के बसीरहाट में अपने दो कार्यकर्ताओं की हत्या के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थी और पार्टी ने कहा कि पुलिस की कार्रवाई (भीड़ को रोकने के लिए गर्मी में लाठी नहीं वाटर कैनन का उपयोग करना और आंसू गैस के गोले छोड़ना) बगैर किसी उकसावे में की गई थी। .... मेरा मानना है कि दिल्ली की ऐसी और इससे बड़ी रैलियों की खबर दिल्ली के हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर नहीं छपी है। और अखबार शर्त लगाए तो इसे साबित किया जा सकता है। खबर के साथ छपी फोटो में पहली बार वोट देने वाले 18-20 साल के बच्चे दिखाई दे रहे हैं जो निश्चित रूप से भाजपा के कार्यकर्ता हो सकते हैं। पर शिक्षा और इससे संबंधित दूसरी मांगों पर प्रदर्शन, प्रदर्शनकारियों पर पुलिसिया लाठी तथा घायलों की फोटो नहीं छपने के सैकड़ों मामले गिनाए जा सकते हैं।
फिलहाल इस रैली की पृष्ठभूमि को समझने के लिए कुछ पुरानी खबरों की चर्चा जरूरी है। बेशक ये सारी खबरें नहीं हैं और चुनी हुई हैं। पर संबंधित तमाम सूचनाओं का अंश तो हैं ही। पुरानी खबरों, "बंगाल में सियासी हिंसा का दौर जारी, उत्तर 24 परगना में धमाका, तीन मरे, तीन जख्मी" के अनुसार उत्तर 24 परगना में एक धमाका हुआ जिसमें दो लोगों की मौत हो गई। बम फटा, तृणमूल के कार्यकर्ता मरे, पर इसकी गिनती आतंकवाद की घटना में होनी चाहिए कि नहीं? वहीं एक अन्य घटना में एक शख्स घायल हुआ है। इस तरह पिछले 24 घंटे में हुई हिंसा में तीन लोगों की मौत हुई है और तीन अन्य घायल हो गए हैं। मारे गए तीनों ही तृणमूल कांग्रेस के समर्थक बताए गए हैं।
10 जून की एक खबर, बंगाल में हिंसा के खिलाफ भाजपा ने मनाया काला दिवस, थमी ट्रेनों की रफ्तार के अनुसार उत्तर 24 परगना के संदेशखाली में चुनाव बाद जारी हिंसक झड़प में मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं के समर्थन में पार्टी ने सोमवार को बशीरहाट में 12 घंटे के बंद का आह्वान किया था। इस दौरान भाजपा समर्थकों ने जगह-जगह सड़क अवरोध व विरोध जुलूस निकाल राज्य की ममता सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर काला दिवस मनाया। वहीं, बासंती हाई-वे पर पार्टी समर्थकों के अवरोध के कारण घंटों जाम जैसे हालात बने रहे।
एक और खबर है, “बंगाल हिंसा में मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं के अंतिम संस्कार को लेकर बवाल, भाजपा कल मनाएगी काला दिवस”। भाजपा के लोग मारे गए साथी कार्यकर्ताओं का अंतिम संस्कार कोलकाता ले जाकर करना चाहते थे। लेकिन पुलिस ने उन्हें कोलकाता पहुंचने से पहले बीच रास्ते में ही रोक लिया। इसके खिलाफ बीजेपी ने 10 जून को काले दिन के रूप में मनाने का फैसला किया और लालबाजार में 12 जून को एक रैली करने का भी एलान किया है। यह खबर कल की इसी रैली की है। उपर की खबरें पृष्ठभूमि बताने के लिए है। इस मामले में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि राज्य में फैली हिंसा में तृणमूल के आठ और भाजपा के दो कार्यकर्ता मारे गए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने कहा कि भाजपा बंगाल को गुजरात बनाने की कोशिश कर रही है। निश्चित रूप से भाजपा राजनीति कर रही है और यह उसका अधिकार है। पर अखबार?
कोलकाता की रैली की खबर दिल्ली के अखबार में पहले पन्ने पर इतनी प्रमुखता से छपी है तो ऐसे ही नहीं है। खबर में लिखा है, भाजपा को एक समय राज्य में मामूली समझा जाता था। हाल के लोकसभा चुनाव में उसने राज्य की 42 में से 18 सीटें जीत ली हैं। और यह टीएमसी की सीटों के मुकाबले सिर्फ चार कम है और इस तरह यह 2021 के चुनावों के लिए बनर्जी (मुख्यमंत्री) की पार्टी के लिए मुख्य चुनौती बन रही है। ऐसे में कोलकाता की खबरें दिल्ली में प्रमुखता से छपने के कारण बताने (और समझने) की जरूरत नहीं है। वैसे, कहा जा सकता है कि खबरों का चयन बहुत सारी बातों पर निर्भर करता है और इसमें खबर मिलने के समय से लेकर उसकी गुणवत्ता तथा उसे दुरुस्त करने की क्षमता व स्थितियों – सब का मतलब है। इसलिए खबरों के चयन में पूर्वग्रह का आरोप लगाना अनुचित है।
मैं भी इससे सहमत हूं और एक कदम आगे संपादकीय स्वतंत्रता तथा विवेक का मामला मानता हूं। पर स्वतंत्रता और विवेक भाजपा (या किसी एक राजनीतिक दल के पक्ष में हो) तो इसे रेखांकित करना भी जरूरी मानता हूं। कायदे से इस स्वतंत्रता और विवेक का उपयोग ही नहीं, दुरुपयोग भी जनहित के लिए ही किया जाना चाहिए और तब उसे प्रशंसा में रेखांकित किया जाएगा। पर अभी तो हो रहा है वह निश्चित रूप से राजनीति है जो अखबारों का काम नहीं है और शर्मनाक है। मैं ऐसा कह रहा हूं तो इसलिए कि आज भी द टेलीग्राफ ने कोलकाता के अस्पतालों में चिकित्सकों के विरोध की खबर है जो दिल्ली के अखबारों में नहीं है।
द टेलीग्राफ की आज की खबर ममता बनर्जी के पक्ष में नहीं है और जनहित में है। पहले पन्ने पर सात कॉलम की लीड का फ्लैग शीर्षक हिन्दी में लिखा होता तो इस प्रकार होता, "मुख्यमंत्री शांत, अभिषेक के बयान और स्वास्थ्य सचिव की अपील चिकित्सकों का गुस्सा कम करने में नाकाम"। इसके साथ दो खबरें हैं। मुख्य खबर का शीर्षक है, “ममता अलग, भाजपा अपनी पर”। दूसरी खबर का शीर्षक है, "चिकित्सकों ने दिखाया कि काम करते हुए कैसे विरोध किया जाता है"। पहली खबर की शुरुआत इस तरह होती है, “ममता बनर्जी ने स्वास्थ्य सेवा संकट प्रबंध का सार्वजनिक चेहरा अपने भतीजे और स्वास्थ्य सचिव को बना दिया है। इससे चिकित्सक ज्यादा नाराज हो गए हैं और भाजपा ध्रुवीकरण की अपनी कोशिशों को और तेज करने के लिए आजाद हो गई है।” इसमें भाजपा के सहयोग के साथ ममता बनर्जी का विरोध तो है ही, जनहित की चिन्ता भी नजर आ रही है जो रैली की खबर में नहीं हो सकती है। इंडियन एक्सप्रेस ने आज इसे दिल्ली में अपने पहले पन्ने पर छापा है। यह संयोग है और अच्छी बात है कि दिल्ली के अखबारों में आज इन दो खबरों के अलावा पहले पन्ने पर कोलकाता की कोई खबर नहीं है।
बंगाल की राजनीति दिल्ली के अखबारों में हो रही थी। मेरा मानना है कि कोलकाता में भाजपा की लड़ाई दिल्ली के अखबारों में लड़ी जाए तो प्रत्यक्ष परोक्ष लाभ देश भर में मिलेगा। और पहले ऐसा हो चुका है। इसलिए कोलकाता की खबरें दिल्ली के अखबारों में रहती हैं। प्यार से रहती हैं और पहले पन्ने पर भी नजर आती हैं। कल मैंने कोलकाता की खबर का जिक्र किया था जिसे टेलीग्राफ ने पहले पन्ने पर छापा था और मेरा मानना था कि वह खबर दिल्ली में भी (पहले पन्ने पर) छप सकती थी। कल वह खबर कल दिल्ली में नहीं थी पर कुछ दूसरी खबरें पहले पन्ने पर जरूर थीं। कल मैंने उनका जिक्र भी किया था। आज नीन्द कुछ देर से खुली और सबसे पहले मैंने ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ देखा।
पहले पन्ने पर तीन कॉलम में दो लाइन के शीर्षक और फोटो के साथ कोलकाता की एक खबर टॉप पर है। शीर्षक हिन्दी में लिखा जाए तो कुछ इस प्रकार होगा, “कोलकाता में भाजपा के विरोध मार्च पर पुलिसिया कार्रवाई”। शीर्षक से स्पष्ट है कि कोई हिन्सा नहीं हुई है, पुलिस ने लाठियां नहीं भांजी हैं और कोई गिरफ्तारी भी नहीं हुई है। मैंने पहले पन्ने की पूरी खबर पढ़ भी ली ऐसी कोई सूचना नहीं है। खबर में बताया गया है कि राज्य में राजनीतिक हिंसा का विरोध करने के लिए आयोजित रैली में भाग ले रहे भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े और वाटर कैनन (पानी के फव्वारों) का उपयोग किया।
खबर के मुताबिक, भाजपा उत्तर 24 परगना जिले के बसीरहाट में अपने दो कार्यकर्ताओं की हत्या के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थी और पार्टी ने कहा कि पुलिस की कार्रवाई (भीड़ को रोकने के लिए गर्मी में लाठी नहीं वाटर कैनन का उपयोग करना और आंसू गैस के गोले छोड़ना) बगैर किसी उकसावे में की गई थी। .... मेरा मानना है कि दिल्ली की ऐसी और इससे बड़ी रैलियों की खबर दिल्ली के हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर नहीं छपी है। और अखबार शर्त लगाए तो इसे साबित किया जा सकता है। खबर के साथ छपी फोटो में पहली बार वोट देने वाले 18-20 साल के बच्चे दिखाई दे रहे हैं जो निश्चित रूप से भाजपा के कार्यकर्ता हो सकते हैं। पर शिक्षा और इससे संबंधित दूसरी मांगों पर प्रदर्शन, प्रदर्शनकारियों पर पुलिसिया लाठी तथा घायलों की फोटो नहीं छपने के सैकड़ों मामले गिनाए जा सकते हैं।
फिलहाल इस रैली की पृष्ठभूमि को समझने के लिए कुछ पुरानी खबरों की चर्चा जरूरी है। बेशक ये सारी खबरें नहीं हैं और चुनी हुई हैं। पर संबंधित तमाम सूचनाओं का अंश तो हैं ही। पुरानी खबरों, "बंगाल में सियासी हिंसा का दौर जारी, उत्तर 24 परगना में धमाका, तीन मरे, तीन जख्मी" के अनुसार उत्तर 24 परगना में एक धमाका हुआ जिसमें दो लोगों की मौत हो गई। बम फटा, तृणमूल के कार्यकर्ता मरे, पर इसकी गिनती आतंकवाद की घटना में होनी चाहिए कि नहीं? वहीं एक अन्य घटना में एक शख्स घायल हुआ है। इस तरह पिछले 24 घंटे में हुई हिंसा में तीन लोगों की मौत हुई है और तीन अन्य घायल हो गए हैं। मारे गए तीनों ही तृणमूल कांग्रेस के समर्थक बताए गए हैं।
10 जून की एक खबर, बंगाल में हिंसा के खिलाफ भाजपा ने मनाया काला दिवस, थमी ट्रेनों की रफ्तार के अनुसार उत्तर 24 परगना के संदेशखाली में चुनाव बाद जारी हिंसक झड़प में मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं के समर्थन में पार्टी ने सोमवार को बशीरहाट में 12 घंटे के बंद का आह्वान किया था। इस दौरान भाजपा समर्थकों ने जगह-जगह सड़क अवरोध व विरोध जुलूस निकाल राज्य की ममता सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर काला दिवस मनाया। वहीं, बासंती हाई-वे पर पार्टी समर्थकों के अवरोध के कारण घंटों जाम जैसे हालात बने रहे।
एक और खबर है, “बंगाल हिंसा में मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं के अंतिम संस्कार को लेकर बवाल, भाजपा कल मनाएगी काला दिवस”। भाजपा के लोग मारे गए साथी कार्यकर्ताओं का अंतिम संस्कार कोलकाता ले जाकर करना चाहते थे। लेकिन पुलिस ने उन्हें कोलकाता पहुंचने से पहले बीच रास्ते में ही रोक लिया। इसके खिलाफ बीजेपी ने 10 जून को काले दिन के रूप में मनाने का फैसला किया और लालबाजार में 12 जून को एक रैली करने का भी एलान किया है। यह खबर कल की इसी रैली की है। उपर की खबरें पृष्ठभूमि बताने के लिए है। इस मामले में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि राज्य में फैली हिंसा में तृणमूल के आठ और भाजपा के दो कार्यकर्ता मारे गए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने कहा कि भाजपा बंगाल को गुजरात बनाने की कोशिश कर रही है। निश्चित रूप से भाजपा राजनीति कर रही है और यह उसका अधिकार है। पर अखबार?
कोलकाता की रैली की खबर दिल्ली के अखबार में पहले पन्ने पर इतनी प्रमुखता से छपी है तो ऐसे ही नहीं है। खबर में लिखा है, भाजपा को एक समय राज्य में मामूली समझा जाता था। हाल के लोकसभा चुनाव में उसने राज्य की 42 में से 18 सीटें जीत ली हैं। और यह टीएमसी की सीटों के मुकाबले सिर्फ चार कम है और इस तरह यह 2021 के चुनावों के लिए बनर्जी (मुख्यमंत्री) की पार्टी के लिए मुख्य चुनौती बन रही है। ऐसे में कोलकाता की खबरें दिल्ली में प्रमुखता से छपने के कारण बताने (और समझने) की जरूरत नहीं है। वैसे, कहा जा सकता है कि खबरों का चयन बहुत सारी बातों पर निर्भर करता है और इसमें खबर मिलने के समय से लेकर उसकी गुणवत्ता तथा उसे दुरुस्त करने की क्षमता व स्थितियों – सब का मतलब है। इसलिए खबरों के चयन में पूर्वग्रह का आरोप लगाना अनुचित है।
मैं भी इससे सहमत हूं और एक कदम आगे संपादकीय स्वतंत्रता तथा विवेक का मामला मानता हूं। पर स्वतंत्रता और विवेक भाजपा (या किसी एक राजनीतिक दल के पक्ष में हो) तो इसे रेखांकित करना भी जरूरी मानता हूं। कायदे से इस स्वतंत्रता और विवेक का उपयोग ही नहीं, दुरुपयोग भी जनहित के लिए ही किया जाना चाहिए और तब उसे प्रशंसा में रेखांकित किया जाएगा। पर अभी तो हो रहा है वह निश्चित रूप से राजनीति है जो अखबारों का काम नहीं है और शर्मनाक है। मैं ऐसा कह रहा हूं तो इसलिए कि आज भी द टेलीग्राफ ने कोलकाता के अस्पतालों में चिकित्सकों के विरोध की खबर है जो दिल्ली के अखबारों में नहीं है।
द टेलीग्राफ की आज की खबर ममता बनर्जी के पक्ष में नहीं है और जनहित में है। पहले पन्ने पर सात कॉलम की लीड का फ्लैग शीर्षक हिन्दी में लिखा होता तो इस प्रकार होता, "मुख्यमंत्री शांत, अभिषेक के बयान और स्वास्थ्य सचिव की अपील चिकित्सकों का गुस्सा कम करने में नाकाम"। इसके साथ दो खबरें हैं। मुख्य खबर का शीर्षक है, “ममता अलग, भाजपा अपनी पर”। दूसरी खबर का शीर्षक है, "चिकित्सकों ने दिखाया कि काम करते हुए कैसे विरोध किया जाता है"। पहली खबर की शुरुआत इस तरह होती है, “ममता बनर्जी ने स्वास्थ्य सेवा संकट प्रबंध का सार्वजनिक चेहरा अपने भतीजे और स्वास्थ्य सचिव को बना दिया है। इससे चिकित्सक ज्यादा नाराज हो गए हैं और भाजपा ध्रुवीकरण की अपनी कोशिशों को और तेज करने के लिए आजाद हो गई है।” इसमें भाजपा के सहयोग के साथ ममता बनर्जी का विरोध तो है ही, जनहित की चिन्ता भी नजर आ रही है जो रैली की खबर में नहीं हो सकती है। इंडियन एक्सप्रेस ने आज इसे दिल्ली में अपने पहले पन्ने पर छापा है। यह संयोग है और अच्छी बात है कि दिल्ली के अखबारों में आज इन दो खबरों के अलावा पहले पन्ने पर कोलकाता की कोई खबर नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं।)
पहले पन्ने पर तीन कॉलम में दो लाइन के शीर्षक और फोटो के साथ कोलकाता की एक खबर टॉप पर है। शीर्षक हिन्दी में लिखा जाए तो कुछ इस प्रकार होगा, “कोलकाता में भाजपा के विरोध मार्च पर पुलिसिया कार्रवाई”। शीर्षक से स्पष्ट है कि कोई हिन्सा नहीं हुई है, पुलिस ने लाठियां नहीं भांजी हैं और कोई गिरफ्तारी भी नहीं हुई है। मैंने पहले पन्ने की पूरी खबर पढ़ भी ली ऐसी कोई सूचना नहीं है। खबर में बताया गया है कि राज्य में राजनीतिक हिंसा का विरोध करने के लिए आयोजित रैली में भाग ले रहे भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े और वाटर कैनन (पानी के फव्वारों) का उपयोग किया।
खबर के मुताबिक, भाजपा उत्तर 24 परगना जिले के बसीरहाट में अपने दो कार्यकर्ताओं की हत्या के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थी और पार्टी ने कहा कि पुलिस की कार्रवाई (भीड़ को रोकने के लिए गर्मी में लाठी नहीं वाटर कैनन का उपयोग करना और आंसू गैस के गोले छोड़ना) बगैर किसी उकसावे में की गई थी। .... मेरा मानना है कि दिल्ली की ऐसी और इससे बड़ी रैलियों की खबर दिल्ली के हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर नहीं छपी है। और अखबार शर्त लगाए तो इसे साबित किया जा सकता है। खबर के साथ छपी फोटो में पहली बार वोट देने वाले 18-20 साल के बच्चे दिखाई दे रहे हैं जो निश्चित रूप से भाजपा के कार्यकर्ता हो सकते हैं। पर शिक्षा और इससे संबंधित दूसरी मांगों पर प्रदर्शन, प्रदर्शनकारियों पर पुलिसिया लाठी तथा घायलों की फोटो नहीं छपने के सैकड़ों मामले गिनाए जा सकते हैं।
फिलहाल इस रैली की पृष्ठभूमि को समझने के लिए कुछ पुरानी खबरों की चर्चा जरूरी है। बेशक ये सारी खबरें नहीं हैं और चुनी हुई हैं। पर संबंधित तमाम सूचनाओं का अंश तो हैं ही। पुरानी खबरों, "बंगाल में सियासी हिंसा का दौर जारी, उत्तर 24 परगना में धमाका, तीन मरे, तीन जख्मी" के अनुसार उत्तर 24 परगना में एक धमाका हुआ जिसमें दो लोगों की मौत हो गई। बम फटा, तृणमूल के कार्यकर्ता मरे, पर इसकी गिनती आतंकवाद की घटना में होनी चाहिए कि नहीं? वहीं एक अन्य घटना में एक शख्स घायल हुआ है। इस तरह पिछले 24 घंटे में हुई हिंसा में तीन लोगों की मौत हुई है और तीन अन्य घायल हो गए हैं। मारे गए तीनों ही तृणमूल कांग्रेस के समर्थक बताए गए हैं।
10 जून की एक खबर, बंगाल में हिंसा के खिलाफ भाजपा ने मनाया काला दिवस, थमी ट्रेनों की रफ्तार के अनुसार उत्तर 24 परगना के संदेशखाली में चुनाव बाद जारी हिंसक झड़प में मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं के समर्थन में पार्टी ने सोमवार को बशीरहाट में 12 घंटे के बंद का आह्वान किया था। इस दौरान भाजपा समर्थकों ने जगह-जगह सड़क अवरोध व विरोध जुलूस निकाल राज्य की ममता सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर काला दिवस मनाया। वहीं, बासंती हाई-वे पर पार्टी समर्थकों के अवरोध के कारण घंटों जाम जैसे हालात बने रहे।
एक और खबर है, “बंगाल हिंसा में मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं के अंतिम संस्कार को लेकर बवाल, भाजपा कल मनाएगी काला दिवस”। भाजपा के लोग मारे गए साथी कार्यकर्ताओं का अंतिम संस्कार कोलकाता ले जाकर करना चाहते थे। लेकिन पुलिस ने उन्हें कोलकाता पहुंचने से पहले बीच रास्ते में ही रोक लिया। इसके खिलाफ बीजेपी ने 10 जून को काले दिन के रूप में मनाने का फैसला किया और लालबाजार में 12 जून को एक रैली करने का भी एलान किया है। यह खबर कल की इसी रैली की है। उपर की खबरें पृष्ठभूमि बताने के लिए है। इस मामले में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि राज्य में फैली हिंसा में तृणमूल के आठ और भाजपा के दो कार्यकर्ता मारे गए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने कहा कि भाजपा बंगाल को गुजरात बनाने की कोशिश कर रही है। निश्चित रूप से भाजपा राजनीति कर रही है और यह उसका अधिकार है। पर अखबार?
कोलकाता की रैली की खबर दिल्ली के अखबार में पहले पन्ने पर इतनी प्रमुखता से छपी है तो ऐसे ही नहीं है। खबर में लिखा है, भाजपा को एक समय राज्य में मामूली समझा जाता था। हाल के लोकसभा चुनाव में उसने राज्य की 42 में से 18 सीटें जीत ली हैं। और यह टीएमसी की सीटों के मुकाबले सिर्फ चार कम है और इस तरह यह 2021 के चुनावों के लिए बनर्जी (मुख्यमंत्री) की पार्टी के लिए मुख्य चुनौती बन रही है। ऐसे में कोलकाता की खबरें दिल्ली में प्रमुखता से छपने के कारण बताने (और समझने) की जरूरत नहीं है। वैसे, कहा जा सकता है कि खबरों का चयन बहुत सारी बातों पर निर्भर करता है और इसमें खबर मिलने के समय से लेकर उसकी गुणवत्ता तथा उसे दुरुस्त करने की क्षमता व स्थितियों – सब का मतलब है। इसलिए खबरों के चयन में पूर्वग्रह का आरोप लगाना अनुचित है।
मैं भी इससे सहमत हूं और एक कदम आगे संपादकीय स्वतंत्रता तथा विवेक का मामला मानता हूं। पर स्वतंत्रता और विवेक भाजपा (या किसी एक राजनीतिक दल के पक्ष में हो) तो इसे रेखांकित करना भी जरूरी मानता हूं। कायदे से इस स्वतंत्रता और विवेक का उपयोग ही नहीं, दुरुपयोग भी जनहित के लिए ही किया जाना चाहिए और तब उसे प्रशंसा में रेखांकित किया जाएगा। पर अभी तो हो रहा है वह निश्चित रूप से राजनीति है जो अखबारों का काम नहीं है और शर्मनाक है। मैं ऐसा कह रहा हूं तो इसलिए कि आज भी द टेलीग्राफ ने कोलकाता के अस्पतालों में चिकित्सकों के विरोध की खबर है जो दिल्ली के अखबारों में नहीं है।
द टेलीग्राफ की आज की खबर ममता बनर्जी के पक्ष में नहीं है और जनहित में है। पहले पन्ने पर सात कॉलम की लीड का फ्लैग शीर्षक हिन्दी में लिखा होता तो इस प्रकार होता, "मुख्यमंत्री शांत, अभिषेक के बयान और स्वास्थ्य सचिव की अपील चिकित्सकों का गुस्सा कम करने में नाकाम"। इसके साथ दो खबरें हैं। मुख्य खबर का शीर्षक है, “ममता अलग, भाजपा अपनी पर”। दूसरी खबर का शीर्षक है, "चिकित्सकों ने दिखाया कि काम करते हुए कैसे विरोध किया जाता है"। पहली खबर की शुरुआत इस तरह होती है, “ममता बनर्जी ने स्वास्थ्य सेवा संकट प्रबंध का सार्वजनिक चेहरा अपने भतीजे और स्वास्थ्य सचिव को बना दिया है। इससे चिकित्सक ज्यादा नाराज हो गए हैं और भाजपा ध्रुवीकरण की अपनी कोशिशों को और तेज करने के लिए आजाद हो गई है।” इसमें भाजपा के सहयोग के साथ ममता बनर्जी का विरोध तो है ही, जनहित की चिन्ता भी नजर आ रही है जो रैली की खबर में नहीं हो सकती है। इंडियन एक्सप्रेस ने आज इसे दिल्ली में अपने पहले पन्ने पर छापा है। यह संयोग है और अच्छी बात है कि दिल्ली के अखबारों में आज इन दो खबरों के अलावा पहले पन्ने पर कोलकाता की कोई खबर नहीं है।
बंगाल की राजनीति दिल्ली के अखबारों में हो रही थी। मेरा मानना है कि कोलकाता में भाजपा की लड़ाई दिल्ली के अखबारों में लड़ी जाए तो प्रत्यक्ष परोक्ष लाभ देश भर में मिलेगा। और पहले ऐसा हो चुका है। इसलिए कोलकाता की खबरें दिल्ली के अखबारों में रहती हैं। प्यार से रहती हैं और पहले पन्ने पर भी नजर आती हैं। कल मैंने कोलकाता की खबर का जिक्र किया था जिसे टेलीग्राफ ने पहले पन्ने पर छापा था और मेरा मानना था कि वह खबर दिल्ली में भी (पहले पन्ने पर) छप सकती थी। कल वह खबर कल दिल्ली में नहीं थी पर कुछ दूसरी खबरें पहले पन्ने पर जरूर थीं। कल मैंने उनका जिक्र भी किया था। आज नीन्द कुछ देर से खुली और सबसे पहले मैंने ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ देखा।
पहले पन्ने पर तीन कॉलम में दो लाइन के शीर्षक और फोटो के साथ कोलकाता की एक खबर टॉप पर है। शीर्षक हिन्दी में लिखा जाए तो कुछ इस प्रकार होगा, “कोलकाता में भाजपा के विरोध मार्च पर पुलिसिया कार्रवाई”। शीर्षक से स्पष्ट है कि कोई हिन्सा नहीं हुई है, पुलिस ने लाठियां नहीं भांजी हैं और कोई गिरफ्तारी भी नहीं हुई है। मैंने पहले पन्ने की पूरी खबर पढ़ भी ली ऐसी कोई सूचना नहीं है। खबर में बताया गया है कि राज्य में राजनीतिक हिंसा का विरोध करने के लिए आयोजित रैली में भाग ले रहे भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े और वाटर कैनन (पानी के फव्वारों) का उपयोग किया।
खबर के मुताबिक, भाजपा उत्तर 24 परगना जिले के बसीरहाट में अपने दो कार्यकर्ताओं की हत्या के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थी और पार्टी ने कहा कि पुलिस की कार्रवाई (भीड़ को रोकने के लिए गर्मी में लाठी नहीं वाटर कैनन का उपयोग करना और आंसू गैस के गोले छोड़ना) बगैर किसी उकसावे में की गई थी। .... मेरा मानना है कि दिल्ली की ऐसी और इससे बड़ी रैलियों की खबर दिल्ली के हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर नहीं छपी है। और अखबार शर्त लगाए तो इसे साबित किया जा सकता है। खबर के साथ छपी फोटो में पहली बार वोट देने वाले 18-20 साल के बच्चे दिखाई दे रहे हैं जो निश्चित रूप से भाजपा के कार्यकर्ता हो सकते हैं। पर शिक्षा और इससे संबंधित दूसरी मांगों पर प्रदर्शन, प्रदर्शनकारियों पर पुलिसिया लाठी तथा घायलों की फोटो नहीं छपने के सैकड़ों मामले गिनाए जा सकते हैं।
फिलहाल इस रैली की पृष्ठभूमि को समझने के लिए कुछ पुरानी खबरों की चर्चा जरूरी है। बेशक ये सारी खबरें नहीं हैं और चुनी हुई हैं। पर संबंधित तमाम सूचनाओं का अंश तो हैं ही। पुरानी खबरों, "बंगाल में सियासी हिंसा का दौर जारी, उत्तर 24 परगना में धमाका, तीन मरे, तीन जख्मी" के अनुसार उत्तर 24 परगना में एक धमाका हुआ जिसमें दो लोगों की मौत हो गई। बम फटा, तृणमूल के कार्यकर्ता मरे, पर इसकी गिनती आतंकवाद की घटना में होनी चाहिए कि नहीं? वहीं एक अन्य घटना में एक शख्स घायल हुआ है। इस तरह पिछले 24 घंटे में हुई हिंसा में तीन लोगों की मौत हुई है और तीन अन्य घायल हो गए हैं। मारे गए तीनों ही तृणमूल कांग्रेस के समर्थक बताए गए हैं।
10 जून की एक खबर, बंगाल में हिंसा के खिलाफ भाजपा ने मनाया काला दिवस, थमी ट्रेनों की रफ्तार के अनुसार उत्तर 24 परगना के संदेशखाली में चुनाव बाद जारी हिंसक झड़प में मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं के समर्थन में पार्टी ने सोमवार को बशीरहाट में 12 घंटे के बंद का आह्वान किया था। इस दौरान भाजपा समर्थकों ने जगह-जगह सड़क अवरोध व विरोध जुलूस निकाल राज्य की ममता सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर काला दिवस मनाया। वहीं, बासंती हाई-वे पर पार्टी समर्थकों के अवरोध के कारण घंटों जाम जैसे हालात बने रहे।
एक और खबर है, “बंगाल हिंसा में मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं के अंतिम संस्कार को लेकर बवाल, भाजपा कल मनाएगी काला दिवस”। भाजपा के लोग मारे गए साथी कार्यकर्ताओं का अंतिम संस्कार कोलकाता ले जाकर करना चाहते थे। लेकिन पुलिस ने उन्हें कोलकाता पहुंचने से पहले बीच रास्ते में ही रोक लिया। इसके खिलाफ बीजेपी ने 10 जून को काले दिन के रूप में मनाने का फैसला किया और लालबाजार में 12 जून को एक रैली करने का भी एलान किया है। यह खबर कल की इसी रैली की है। उपर की खबरें पृष्ठभूमि बताने के लिए है। इस मामले में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि राज्य में फैली हिंसा में तृणमूल के आठ और भाजपा के दो कार्यकर्ता मारे गए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने कहा कि भाजपा बंगाल को गुजरात बनाने की कोशिश कर रही है। निश्चित रूप से भाजपा राजनीति कर रही है और यह उसका अधिकार है। पर अखबार?
कोलकाता की रैली की खबर दिल्ली के अखबार में पहले पन्ने पर इतनी प्रमुखता से छपी है तो ऐसे ही नहीं है। खबर में लिखा है, भाजपा को एक समय राज्य में मामूली समझा जाता था। हाल के लोकसभा चुनाव में उसने राज्य की 42 में से 18 सीटें जीत ली हैं। और यह टीएमसी की सीटों के मुकाबले सिर्फ चार कम है और इस तरह यह 2021 के चुनावों के लिए बनर्जी (मुख्यमंत्री) की पार्टी के लिए मुख्य चुनौती बन रही है। ऐसे में कोलकाता की खबरें दिल्ली में प्रमुखता से छपने के कारण बताने (और समझने) की जरूरत नहीं है। वैसे, कहा जा सकता है कि खबरों का चयन बहुत सारी बातों पर निर्भर करता है और इसमें खबर मिलने के समय से लेकर उसकी गुणवत्ता तथा उसे दुरुस्त करने की क्षमता व स्थितियों – सब का मतलब है। इसलिए खबरों के चयन में पूर्वग्रह का आरोप लगाना अनुचित है।
मैं भी इससे सहमत हूं और एक कदम आगे संपादकीय स्वतंत्रता तथा विवेक का मामला मानता हूं। पर स्वतंत्रता और विवेक भाजपा (या किसी एक राजनीतिक दल के पक्ष में हो) तो इसे रेखांकित करना भी जरूरी मानता हूं। कायदे से इस स्वतंत्रता और विवेक का उपयोग ही नहीं, दुरुपयोग भी जनहित के लिए ही किया जाना चाहिए और तब उसे प्रशंसा में रेखांकित किया जाएगा। पर अभी तो हो रहा है वह निश्चित रूप से राजनीति है जो अखबारों का काम नहीं है और शर्मनाक है। मैं ऐसा कह रहा हूं तो इसलिए कि आज भी द टेलीग्राफ ने कोलकाता के अस्पतालों में चिकित्सकों के विरोध की खबर है जो दिल्ली के अखबारों में नहीं है।
द टेलीग्राफ की आज की खबर ममता बनर्जी के पक्ष में नहीं है और जनहित में है। पहले पन्ने पर सात कॉलम की लीड का फ्लैग शीर्षक हिन्दी में लिखा होता तो इस प्रकार होता, "मुख्यमंत्री शांत, अभिषेक के बयान और स्वास्थ्य सचिव की अपील चिकित्सकों का गुस्सा कम करने में नाकाम"। इसके साथ दो खबरें हैं। मुख्य खबर का शीर्षक है, “ममता अलग, भाजपा अपनी पर”। दूसरी खबर का शीर्षक है, "चिकित्सकों ने दिखाया कि काम करते हुए कैसे विरोध किया जाता है"। पहली खबर की शुरुआत इस तरह होती है, “ममता बनर्जी ने स्वास्थ्य सेवा संकट प्रबंध का सार्वजनिक चेहरा अपने भतीजे और स्वास्थ्य सचिव को बना दिया है। इससे चिकित्सक ज्यादा नाराज हो गए हैं और भाजपा ध्रुवीकरण की अपनी कोशिशों को और तेज करने के लिए आजाद हो गई है।” इसमें भाजपा के सहयोग के साथ ममता बनर्जी का विरोध तो है ही, जनहित की चिन्ता भी नजर आ रही है जो रैली की खबर में नहीं हो सकती है। इंडियन एक्सप्रेस ने आज इसे दिल्ली में अपने पहले पन्ने पर छापा है। यह संयोग है और अच्छी बात है कि दिल्ली के अखबारों में आज इन दो खबरों के अलावा पहले पन्ने पर कोलकाता की कोई खबर नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं।)