पीएम नरेंद्र मोदी के बनारस में चांदपुर के मूर्तिकारों को स्थायी रूप से बसाने से पहले जिस तरह से उनकी बस्ती ढहा दी गई, उससे लगता है कि अब वो भी कुछ दिनों में किस्से-कहानियों के हिस्से बनकर रह जाएंगे।"
ये तस्वीर शिल्पकारों की एक ऐसी बस्ती की है जिसे विकास की शर्त पर उजाड़ दिया गया और वहां रहने वाले शिल्पकारों को कड़ाके की ठंड में ठिठुरने के लिए छोड़ दिया गया। बनारस में रोहनिया-कैंट मार्ग सड़क के किनारे मूर्तियां गढ़ने वाले करीब पांच सौ फनकार कई पीढ़ियों से यहीं रह रहे थे। इन शिल्पकारों की यादें अब तहस-नहस हो गई हैं। अगर कुछ बचा है तो टूटे-फूटे मूर्तियों व पत्थर के टुकड़े और लंगड़ाकर चलता हुआ इतिहास। वो इतिहास जो अपने जख़्मों को सहला रहा है। मानो आंसू बहाते हुए ख़ुद पर हुए ज़ुल्म की बेज़ुबां दास्तां सुना रहा हो।
बनारस के चांदपुर में जीटी रोड के किनारे कई पीढ़ियों से मूर्तियों को गढ़ने वाले शिल्पकारों के करीब 87 परिवार रहा करते थे। नेशनल हाईवे अथॉरिटी ने सड़क चौड़ी करने के लिए इनकी झोपड़-पट्टियों को एक झटके में ही गिरा दिया। मूर्तिकार कृष्ण कुमार यहीं अपने परिवार के साथ रहते थे। 05 दिसंबर 2023 की सुबह उनके लिए एक दुख का पैगाम लेकर आई। वह सुबह सोकर जागे भी नहीं थे कि पुलिस और सरकारी मशीनरी बुल्डोजर लेकर पहुंच गई। वहां रहने वाले लोगों को जल्दी से अपना घर खाली करने का अल्टीमेटम दे डाला।
थोड़ी ही देर में उनकी झोपड़-पट्टियां तोड़ी जाने लगीं। कुछ ही देर में टेंट और प्लास्टिक से बने घरों को मिट्टी में मिला दिया गया। शिल्पकारों की बस्ती ढहाने पहुंचे अफसरों का कहना था कि जिन स्थानों पर मूर्तियां गढ़ी जा रही थी वह ज़मीन सरकार की है और झोपड़-पट्टियों में अस्थायी घर बनाकर रहने वाले सैकड़ों लोग अवैध रूप से रह रहे थे।
ठंड में सिकुड रहे कला शिल्पी
‘न्यूजक्लिक’ से बातचीत में कृष्ण कुमार कहते हैं, "मैं सुबह सो रहा था तभी एक पुलिस वाला आया और उसने मुझे डंडा दिखाकर जल्दी से घर खाली करने की धमकी दी। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। बाद में उन लोगों ने मेरा घर गिरा दिया। बाद में हमें चांदपुर से करीब नौ किमी दूर लोहता रेलवे स्टेशन के नजदीक लखमीपुर गांव में एक निछद्दम बगीचे में जाकर झोपड़ी लगाने का निर्देश दिया गया। हमें न तो किसी जमीन का पट्टा दिया गया और न ही झोपड़ी लगाने के लिए कोई आर्थिक मदद। सरकारी हुक्मरानों ने घर देने का वादा काफ़ी पहले किया था, लेकिन आज तक हमें घर नहीं मिल सका।"
लखमीपुर में तीन बरस पहले भी शिल्पकारों को उसी बगीचे में छोटी-छोटी झोपड़ियां बनाने के लिए जगह दी गई थी। बाद में कुछ दबंगों ने जमीन को अपना बताते हुए शिल्पकारों से झगड़ा किया और बाद में खदेड़कर भगा दिया। मूर्तियां बढ़ने वाले फनकारों को अब दोबारा वहीं भेजा गया है। बांस-बल्ली गाड़कर पॉलिथीन लगाने की कोशिश कर रहे शिल्पकार कृष्ण कुमार कहते हैं, "लखमीपुर गांव में पचास परिवारों को 12 फीट चौड़ी और 16 फीट लंबी जमीन दी गई है। हमें लखमीपुर भेजते समय हुक्मरानों ने यह नहीं सोचा कि हमारी मूर्तियां कैसे बिकेंगी? विकास के नाम पर हमें लावारिश हाल में छोड़ दिया गया। पहले सड़क के किनारे मूर्तियां बेचकर दो पैसे कमा लिया करते थे। किसी तरह से जिंदगी चल रही थी। हमारा हुनर मिट्टी में मिल जाएगा।"
"हमारा वही हाल है जैसे लोग अपनी बकरियों को चरने के लिए खेतों में छोड़ दिया करते हैं। हमें कोई व्यवस्था नहीं दी गई। न पीने के साफ पानी का इंतजाम है और न ही शौचालय का। हम खुले आसमान के नीचे आ गए हैं। हमारी सैकड़ों मूर्तियां तहस-नहस हो गई हैं। आवास के लिए हमारी बस्ती के लोग बनारस के कलेक्टर से लगायात बीजेपी के जिलाध्यक्ष एमएलसी हंसराज विश्वकर्मा से मिलकर अर्जी दे चुके हैं। लेकिन, नतीजा वही ढाक के तीन पात। अब तो हम साइकिल से गांव-गांव जाकर सिर्फ सिलबट्टे ही बेच पाएंगे। सब ध्वस्त हो गया। वहां दो पैसा कम मिलता था लेकिन जिंदगी चल जा रही थी। अब साइकिल पर सील-लोढ़ा बेचेंगे।"
घुटन भरे रास्ते पर धकेले गए
कृष्ण कुमार के पिता कैलाश जाने-माने मूर्तिकार हैं। इनके दो छोटे भाई कमलेश और महेश की चिंता यह है कि इनके पास अब कोई काम नहीं है। दोनों युवक पहले पत्थरों पर नाम की खुदाई करके पेट भरने के लिए पैसे कमा लिया करते थे। कभी देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाते तो कभी युग पुरुषों की प्रतिमाएं। पत्थर के पिलर, गुंबद, जाली, नक्काशीदार मेहराब, घोड़ा-हाथी, सीलबट्टा आदि बनाने में इन्हें महारत हासिल है।
विंध्य पहाड़ियों से निकले लाल बलुआ पत्थरों पर इनके हाथ की कारीगरी देखने लायक होती है। इन्होंने हर धर्म और हर संप्रदाय से जुड़े देवी-देवताओं की मूर्तियां बिना भेदभाव के गढ़ा। साथ ही गली-कूचों में घूमकर लोगों तक पहुंचाया भी। छल-कपट से कोसों दूर शिल्पकारों ने अपनी कला को न सिर्फ कद्रदानों तक पहुंचाया, बल्कि अपने हुनर को दिल खोलकर बांटा। अपने जैसे फटेहाल लोगों की मदद की। वह भी बिना किसी लिंग भेद और वर्ग के आधार पर।
मूर्तिकार कैलाश कहते हैं, "हम जनजाति समुदाय के लोग हैं। करीब 80 साल पहले अयोध्या से यहां आकर चांदपुर में सड़क के किनारे बस गए थे। अहरौरा से पत्थर लाकर मूर्तियां गढ़ा करते थे। सड़क के किनारे रखकर उन्हें बेच दिया करते थे। जब से हम लखमीपुर आए हैं तभी से गांव के कुछ दबंग हमें भगा रहे हैं। जिस स्थान पर हमें बसने के लिए कहा गया है वहां आम और महुआ का बगीचा है। बंजर की जमीन है, इसलिए हर कोई अपनी दावेदारी जता रहा है। लखमीपुर में स्थायी रूप से बसने के लिए हमें अभी तक कोई कागज नहीं दिया गया है। किसी भी दिन हमें यहां से भी खदेड़ दिया जाए तो कोई अचरज की बात नहीं है। सरकार ने हमें एक अंधेरे, घुटन भरे मुस्तक़बिल की ओर धकेल दिया है।"
शिल्पकारों की सालों पुरानी बस्ती के उजाड़े जाने से शिल्पकारों की जिंदगी की तमाम कहानियां भी दफन हो गई हैं। वो कहानियां जो बलुआ पत्थरों पर छेनी-हथौड़ी की आवाज से निकला करती थीं। इसी बस्ती में रहने वाले विनोद बनारस के उन हजारों शिल्पकारों में से एक हैं जो रोटी और रोजगार के लिए जिंदगी से जंग लड़ रहे थे। चांदपुर चौराहे से खदेड़े जाने के बाद अब वो मुफलिसी की पीड़ा झेल रहे हैं। विनोद कहते हैं, "हम अपनी तकदीर के लिए मूर्तियों के रंग का एक छींटा भी नहीं बचा सके हैं। कद्रदानों की कमी और सरकारी नुमाइंदों की बेरुखी से हमारा हौसला पहले से ही टूटा हुआ था। अब यह समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर हम अपनी जिंदगी की निश्चित शक्ल कैसे गढ़ पाएंगे?"
प्याज-रोटी के भरोसे चलती है जिंदगी
लोक संस्कृति और कला को समृद्धशाली बनाने वाले ये शिल्पियों पर भले ही मुसीबत आई हो, लेकिन इनकी उंगलियों में गजब का हुनर रचा-बसा है। मगर ऐसे हुनर का क्या फायदा जो रहने को छत, दो वक्त की रोटी और तन ढंकने के लिए कायदे का कपड़ा भी मयस्सर न करा सके। मायूसी से यह सवाल करती है 56 वर्षीया कंचन देवी। इन्हें मूर्तियों के साथ ही पत्थरों का सिलबट्टा बनाने में महारत हासिल हैं। कंचन भी छेनी हथौड़ी से पत्थरों पर मनमोहक मूर्तियां गढ़ती है।
कंचन देवी के कुनबे के बच्चों ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा, लेकिन उनकी उंगलियों में गजब का हुनर रचा-बसा है। इनकी बेटियां मूर्तियों पर गजब का चटक रंग भरती हैं। बच्चों के स्कूल नहीं जा पाने की कंचन को आज भी कसक है। वह कहती है, "जानती हूं, हमारे कुनबे के छोटे-छोटे बच्चों का भविष्य बर्बाद हो रहा है। मगर पास में फूटी कौड़ी नहीं। काम में हाथ नहीं बटाएगी तो हम खाएंगे क्या? जहां तक सिलबट्टे की बात है तो अब इसका चलन पुराना हो गया है। छेनी और हथौड़ी की मदद से पटिया पर हमें नक्काशी करनी पड़ती है।"
कंचन कहती हैं, "एक सिलौटी बनाने में हमें कम-से-कम दो घंटे का समय लगता है। एक सिलबट्टा हम 350-400 रुपये में बेचते हैं। सिलबट्टा नहीं बिकता तो उसे लेकर हम गांव-गांव में घूमते हैं। किसी दिन सभी सिलौटी बिक जाती है और किसी दिन खाली हाथ लौटना पड़ता है। बारिश के दिनों में हमें मुश्किलों का सामना करना पड़ता है क्योंकि उस वक्त सिलबट्टे की बिक्री कम होती है। मिक्सी मशीन आने के बाद इसके कद्रदान नहीं रह गए हैं। बाज़ार में हम जैसे लोग पीसे जा रहे हैं। हमारी जिंदगी किसी अफसाने से कम नहीं। अयोध्या से बनारस आकर हमारी कला तो जरूर निखरी है, लेकिन कद्रदानों से मायूसी ही मिली है। त्योहारों पर हमारी मूर्तियों बिक्री ठीक-ठाक हो जाती थी, लेकिन अब दो वक्त की रोटी जुटा पाना मुहाल हो जाएगा।"
कला-संस्कृति के इन पुजारियों को गाहे-बगाहे पुलिस भी परेशान करती है। पुलिस सुविधा शुल्क वसूलती है तो कुछ लोग फोकट में मूर्तियां चाहते हैं। गाहे-बगाहे सिरफिरे भी इन्हें तंग करते हैं। परिवार और इज्जत का सवाल जुड़े होने के कारण ये मूर्तिकार उफ् तक नहीं करते। शिल्पकार कैलाश गिहार कहते हैं, "जब से लोग आर्ट गैलरियों से मूर्तियां खरीदने लगे हैं तब से हमारा धंधा चौपट हो गया है। अगर हम गली-गली घूमकर मूर्तियां और सिलबट्टे बेचना बंद कर दें तो दो वक्त की रोटी जुटा पाना भारी पड़ेगा। ऑफ सीजन में तो वैसे भी रोटी और प्याज के भरोसे ही जिंदगी चलती है। कई बार सूदखोरों से कर्ज लेकर किसी तरह जिंदगी की गाड़ी खींचनी पड़ती है। यह किसी तरह ही हमारी जिंदगी का संबल है। लाचारी है, इसलिए धंधा नहीं छोड़ पा रहे हैं।"
मूर्तिकला के धंधे को चलाने के लिए ऋण और सरकार का नाम लेते ही शिल्पकार करण विश्वकर्मा के चेहरे की लकीरें तन जाती हैं। दरअसल इन्हें सरकारी तंत्र के रवैये से बेहद नफरत है। कारण, इसके पास अपना न आधार है, न राशन कार्ड। सस्ता अनाज इनके लिए सपना है। यह त्रासदी केवल करण और उसके परिवार की नहीं, बल्कि मूर्तियां गढ़ने वाले सभी शिल्पकारों की जिंदगी के दस्तावेज हैं। अपनी किस्मत को कोसते हुए करण कहते हैं, "पांच सौ लोगों की आबादी भले ही लखमीपुर में बसाई गई है, लेकिन पास में कोई शौचालय नहीं होने के कारण रात में ही खेतों में जाना पड़ रहा है। सरकारी हैंडपंप भी आसपास नहीं है। औरतें साड़ी का पर्दा बनाकर नहाती हैं।"
चिंता में डूबे मूर्तिकार
30 वर्षीय शिल्पकार मिथिलेश कुमार ने जब से होश संभाला है तभी से छेनी-हथौड़ी से मूर्तियां गढ़ रहे हैं। वह कहते हैं, "हमारे पास इतनी दौलत नहीं है कि बच्चों को पढ़ा सकें। हमारे दादा कन्हैया ने तीन बरस की उम्र में ही हमें मूर्तियां गढ़ने का हुनर सिखाना शुरू कर दिया था। कोरोना के संकटकाल में दिक्कतें बहुत आईं। उस समय बस किसी तरह से हम जिंदा बच पाए। छत पाने के लिए हम दौड़ते-दौड़ते थक गए, पर किसी ने हमारी नहीं सुनी। किसी योजना का हमें कोई लाभ नहीं मिला। हम पिछले दस बरस से बीजेपी को वोट देते आ रहे हैं। हम चाहते हैं कि पीएम नरेंद्र मोदी हमें भी सरकारी आवास दिलाएं और खेती के लिए जमीन भी। हमारी मूर्तियां भी लालपुर के संकुल में बेची जाएं।"
"गांव के लोग" मैग्जीन से जुड़े कला संपादक अमन विश्वकर्मा कहते हैं, "चांदपुर में मूर्तियों को गढ़ने वाले फनकार इंसानी सभ्यता की कामयाबी के बड़े प्रतीक बन गए थे। इनका हुनर बनारस के इतिहास को गढ़ा करता था। साथ ही इस बात को भी तस्दीक किया करता था कि इंसान के हाथों का हुनर, दिमाग़ का खुलापन, कैसे पत्थरों पर ख़ूबसूरत मूर्तियां उकेर सकता है। शिल्पकारों की मूर्तियां सिर्फ कल्पना भर नहीं थीं, वो एक तल्ख सच्चाई भी बयां किया करती थीं। उजाड़े जाने के बाद इन शिल्पकारों के चेहरे पर अब चिंता की गहरी लकीरें उभर आई हैं, जिसे देखकर आसानी से समझा जा सकता है कि उनकी बस्ती के टूटने से इंसानियत ने कितना बड़ा नुक़सान उठाया होगा। इसे एक धरोहर की बर्बादी की मिसाल मानी जा सकती है।"
बनारस के वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, "बनारस में लोग कभी न जाने के लिए आते हैं, लेकिन इस शहर से बहुत कुछ चला गया। ज़िंदगी की एक लय और सुकून ही नहीं, हज़ारों फनकारों का हुनर भी गुमशुदा हो गया। वो फनकार जिनकी अदा पर बनारस फिदा होता था। जिनके हुनर का हर कोई दीवाना हुआ करता था। अब सिर्फ बेचैनियां भरी पड़ी हैं। आडंबर है, बेबसी है, खलबली है। मौजूदा समय में बाज़ार तो हैं, लेकिन तौर-तरीके बदल गए हैं।"
"अनूठे शहर बनारस में भी सिर्फ वही बच रहा है जो बदली हुई ज़रूरतों के हिसाब से खुद को बदलने की कोशिश कर रहा है। कुछ जाने-अनजाने में कुछ सरकार और नौकरशाही की अनदेखी के चलते। लोग कहते हैं कि समय बदल रहा है, लेकिन वक्त के साथ जो चीज़ें बदल रही हैं अब उनका कहीं कोई ज़िक्र नहीं होता। होता भी है तो सिर्फ किस्से और कहानियों में। अब न उनके खरीदार बचे हैं और न पहले जैसे कारीगर। पीएम नरेंद्र मोदी के बनारस में चांदपुर के मूर्तिकारों को स्थायी रूप से बसाने से पहले जिस तरह से उनकी बस्ती ढहा दी गई, उससे लगता है कि अब वो भी कुछ दिनों में किस्से-कहानियों के हिस्से बनकर रह जाएंगे।"
(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
Courtesy: Newsclick
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ये तस्वीर शिल्पकारों की एक ऐसी बस्ती की है जिसे विकास की शर्त पर उजाड़ दिया गया और वहां रहने वाले शिल्पकारों को कड़ाके की ठंड में ठिठुरने के लिए छोड़ दिया गया। बनारस में रोहनिया-कैंट मार्ग सड़क के किनारे मूर्तियां गढ़ने वाले करीब पांच सौ फनकार कई पीढ़ियों से यहीं रह रहे थे। इन शिल्पकारों की यादें अब तहस-नहस हो गई हैं। अगर कुछ बचा है तो टूटे-फूटे मूर्तियों व पत्थर के टुकड़े और लंगड़ाकर चलता हुआ इतिहास। वो इतिहास जो अपने जख़्मों को सहला रहा है। मानो आंसू बहाते हुए ख़ुद पर हुए ज़ुल्म की बेज़ुबां दास्तां सुना रहा हो।
बनारस के चांदपुर में जीटी रोड के किनारे कई पीढ़ियों से मूर्तियों को गढ़ने वाले शिल्पकारों के करीब 87 परिवार रहा करते थे। नेशनल हाईवे अथॉरिटी ने सड़क चौड़ी करने के लिए इनकी झोपड़-पट्टियों को एक झटके में ही गिरा दिया। मूर्तिकार कृष्ण कुमार यहीं अपने परिवार के साथ रहते थे। 05 दिसंबर 2023 की सुबह उनके लिए एक दुख का पैगाम लेकर आई। वह सुबह सोकर जागे भी नहीं थे कि पुलिस और सरकारी मशीनरी बुल्डोजर लेकर पहुंच गई। वहां रहने वाले लोगों को जल्दी से अपना घर खाली करने का अल्टीमेटम दे डाला।
थोड़ी ही देर में उनकी झोपड़-पट्टियां तोड़ी जाने लगीं। कुछ ही देर में टेंट और प्लास्टिक से बने घरों को मिट्टी में मिला दिया गया। शिल्पकारों की बस्ती ढहाने पहुंचे अफसरों का कहना था कि जिन स्थानों पर मूर्तियां गढ़ी जा रही थी वह ज़मीन सरकार की है और झोपड़-पट्टियों में अस्थायी घर बनाकर रहने वाले सैकड़ों लोग अवैध रूप से रह रहे थे।
ठंड में सिकुड रहे कला शिल्पी
‘न्यूजक्लिक’ से बातचीत में कृष्ण कुमार कहते हैं, "मैं सुबह सो रहा था तभी एक पुलिस वाला आया और उसने मुझे डंडा दिखाकर जल्दी से घर खाली करने की धमकी दी। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। बाद में उन लोगों ने मेरा घर गिरा दिया। बाद में हमें चांदपुर से करीब नौ किमी दूर लोहता रेलवे स्टेशन के नजदीक लखमीपुर गांव में एक निछद्दम बगीचे में जाकर झोपड़ी लगाने का निर्देश दिया गया। हमें न तो किसी जमीन का पट्टा दिया गया और न ही झोपड़ी लगाने के लिए कोई आर्थिक मदद। सरकारी हुक्मरानों ने घर देने का वादा काफ़ी पहले किया था, लेकिन आज तक हमें घर नहीं मिल सका।"
लखमीपुर में तीन बरस पहले भी शिल्पकारों को उसी बगीचे में छोटी-छोटी झोपड़ियां बनाने के लिए जगह दी गई थी। बाद में कुछ दबंगों ने जमीन को अपना बताते हुए शिल्पकारों से झगड़ा किया और बाद में खदेड़कर भगा दिया। मूर्तियां बढ़ने वाले फनकारों को अब दोबारा वहीं भेजा गया है। बांस-बल्ली गाड़कर पॉलिथीन लगाने की कोशिश कर रहे शिल्पकार कृष्ण कुमार कहते हैं, "लखमीपुर गांव में पचास परिवारों को 12 फीट चौड़ी और 16 फीट लंबी जमीन दी गई है। हमें लखमीपुर भेजते समय हुक्मरानों ने यह नहीं सोचा कि हमारी मूर्तियां कैसे बिकेंगी? विकास के नाम पर हमें लावारिश हाल में छोड़ दिया गया। पहले सड़क के किनारे मूर्तियां बेचकर दो पैसे कमा लिया करते थे। किसी तरह से जिंदगी चल रही थी। हमारा हुनर मिट्टी में मिल जाएगा।"
"हमारा वही हाल है जैसे लोग अपनी बकरियों को चरने के लिए खेतों में छोड़ दिया करते हैं। हमें कोई व्यवस्था नहीं दी गई। न पीने के साफ पानी का इंतजाम है और न ही शौचालय का। हम खुले आसमान के नीचे आ गए हैं। हमारी सैकड़ों मूर्तियां तहस-नहस हो गई हैं। आवास के लिए हमारी बस्ती के लोग बनारस के कलेक्टर से लगायात बीजेपी के जिलाध्यक्ष एमएलसी हंसराज विश्वकर्मा से मिलकर अर्जी दे चुके हैं। लेकिन, नतीजा वही ढाक के तीन पात। अब तो हम साइकिल से गांव-गांव जाकर सिर्फ सिलबट्टे ही बेच पाएंगे। सब ध्वस्त हो गया। वहां दो पैसा कम मिलता था लेकिन जिंदगी चल जा रही थी। अब साइकिल पर सील-लोढ़ा बेचेंगे।"
घुटन भरे रास्ते पर धकेले गए
कृष्ण कुमार के पिता कैलाश जाने-माने मूर्तिकार हैं। इनके दो छोटे भाई कमलेश और महेश की चिंता यह है कि इनके पास अब कोई काम नहीं है। दोनों युवक पहले पत्थरों पर नाम की खुदाई करके पेट भरने के लिए पैसे कमा लिया करते थे। कभी देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाते तो कभी युग पुरुषों की प्रतिमाएं। पत्थर के पिलर, गुंबद, जाली, नक्काशीदार मेहराब, घोड़ा-हाथी, सीलबट्टा आदि बनाने में इन्हें महारत हासिल है।
विंध्य पहाड़ियों से निकले लाल बलुआ पत्थरों पर इनके हाथ की कारीगरी देखने लायक होती है। इन्होंने हर धर्म और हर संप्रदाय से जुड़े देवी-देवताओं की मूर्तियां बिना भेदभाव के गढ़ा। साथ ही गली-कूचों में घूमकर लोगों तक पहुंचाया भी। छल-कपट से कोसों दूर शिल्पकारों ने अपनी कला को न सिर्फ कद्रदानों तक पहुंचाया, बल्कि अपने हुनर को दिल खोलकर बांटा। अपने जैसे फटेहाल लोगों की मदद की। वह भी बिना किसी लिंग भेद और वर्ग के आधार पर।
मूर्तिकार कैलाश कहते हैं, "हम जनजाति समुदाय के लोग हैं। करीब 80 साल पहले अयोध्या से यहां आकर चांदपुर में सड़क के किनारे बस गए थे। अहरौरा से पत्थर लाकर मूर्तियां गढ़ा करते थे। सड़क के किनारे रखकर उन्हें बेच दिया करते थे। जब से हम लखमीपुर आए हैं तभी से गांव के कुछ दबंग हमें भगा रहे हैं। जिस स्थान पर हमें बसने के लिए कहा गया है वहां आम और महुआ का बगीचा है। बंजर की जमीन है, इसलिए हर कोई अपनी दावेदारी जता रहा है। लखमीपुर में स्थायी रूप से बसने के लिए हमें अभी तक कोई कागज नहीं दिया गया है। किसी भी दिन हमें यहां से भी खदेड़ दिया जाए तो कोई अचरज की बात नहीं है। सरकार ने हमें एक अंधेरे, घुटन भरे मुस्तक़बिल की ओर धकेल दिया है।"
शिल्पकारों की सालों पुरानी बस्ती के उजाड़े जाने से शिल्पकारों की जिंदगी की तमाम कहानियां भी दफन हो गई हैं। वो कहानियां जो बलुआ पत्थरों पर छेनी-हथौड़ी की आवाज से निकला करती थीं। इसी बस्ती में रहने वाले विनोद बनारस के उन हजारों शिल्पकारों में से एक हैं जो रोटी और रोजगार के लिए जिंदगी से जंग लड़ रहे थे। चांदपुर चौराहे से खदेड़े जाने के बाद अब वो मुफलिसी की पीड़ा झेल रहे हैं। विनोद कहते हैं, "हम अपनी तकदीर के लिए मूर्तियों के रंग का एक छींटा भी नहीं बचा सके हैं। कद्रदानों की कमी और सरकारी नुमाइंदों की बेरुखी से हमारा हौसला पहले से ही टूटा हुआ था। अब यह समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर हम अपनी जिंदगी की निश्चित शक्ल कैसे गढ़ पाएंगे?"
प्याज-रोटी के भरोसे चलती है जिंदगी
लोक संस्कृति और कला को समृद्धशाली बनाने वाले ये शिल्पियों पर भले ही मुसीबत आई हो, लेकिन इनकी उंगलियों में गजब का हुनर रचा-बसा है। मगर ऐसे हुनर का क्या फायदा जो रहने को छत, दो वक्त की रोटी और तन ढंकने के लिए कायदे का कपड़ा भी मयस्सर न करा सके। मायूसी से यह सवाल करती है 56 वर्षीया कंचन देवी। इन्हें मूर्तियों के साथ ही पत्थरों का सिलबट्टा बनाने में महारत हासिल हैं। कंचन भी छेनी हथौड़ी से पत्थरों पर मनमोहक मूर्तियां गढ़ती है।
कंचन देवी के कुनबे के बच्चों ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा, लेकिन उनकी उंगलियों में गजब का हुनर रचा-बसा है। इनकी बेटियां मूर्तियों पर गजब का चटक रंग भरती हैं। बच्चों के स्कूल नहीं जा पाने की कंचन को आज भी कसक है। वह कहती है, "जानती हूं, हमारे कुनबे के छोटे-छोटे बच्चों का भविष्य बर्बाद हो रहा है। मगर पास में फूटी कौड़ी नहीं। काम में हाथ नहीं बटाएगी तो हम खाएंगे क्या? जहां तक सिलबट्टे की बात है तो अब इसका चलन पुराना हो गया है। छेनी और हथौड़ी की मदद से पटिया पर हमें नक्काशी करनी पड़ती है।"
कंचन कहती हैं, "एक सिलौटी बनाने में हमें कम-से-कम दो घंटे का समय लगता है। एक सिलबट्टा हम 350-400 रुपये में बेचते हैं। सिलबट्टा नहीं बिकता तो उसे लेकर हम गांव-गांव में घूमते हैं। किसी दिन सभी सिलौटी बिक जाती है और किसी दिन खाली हाथ लौटना पड़ता है। बारिश के दिनों में हमें मुश्किलों का सामना करना पड़ता है क्योंकि उस वक्त सिलबट्टे की बिक्री कम होती है। मिक्सी मशीन आने के बाद इसके कद्रदान नहीं रह गए हैं। बाज़ार में हम जैसे लोग पीसे जा रहे हैं। हमारी जिंदगी किसी अफसाने से कम नहीं। अयोध्या से बनारस आकर हमारी कला तो जरूर निखरी है, लेकिन कद्रदानों से मायूसी ही मिली है। त्योहारों पर हमारी मूर्तियों बिक्री ठीक-ठाक हो जाती थी, लेकिन अब दो वक्त की रोटी जुटा पाना मुहाल हो जाएगा।"
कला-संस्कृति के इन पुजारियों को गाहे-बगाहे पुलिस भी परेशान करती है। पुलिस सुविधा शुल्क वसूलती है तो कुछ लोग फोकट में मूर्तियां चाहते हैं। गाहे-बगाहे सिरफिरे भी इन्हें तंग करते हैं। परिवार और इज्जत का सवाल जुड़े होने के कारण ये मूर्तिकार उफ् तक नहीं करते। शिल्पकार कैलाश गिहार कहते हैं, "जब से लोग आर्ट गैलरियों से मूर्तियां खरीदने लगे हैं तब से हमारा धंधा चौपट हो गया है। अगर हम गली-गली घूमकर मूर्तियां और सिलबट्टे बेचना बंद कर दें तो दो वक्त की रोटी जुटा पाना भारी पड़ेगा। ऑफ सीजन में तो वैसे भी रोटी और प्याज के भरोसे ही जिंदगी चलती है। कई बार सूदखोरों से कर्ज लेकर किसी तरह जिंदगी की गाड़ी खींचनी पड़ती है। यह किसी तरह ही हमारी जिंदगी का संबल है। लाचारी है, इसलिए धंधा नहीं छोड़ पा रहे हैं।"
मूर्तिकला के धंधे को चलाने के लिए ऋण और सरकार का नाम लेते ही शिल्पकार करण विश्वकर्मा के चेहरे की लकीरें तन जाती हैं। दरअसल इन्हें सरकारी तंत्र के रवैये से बेहद नफरत है। कारण, इसके पास अपना न आधार है, न राशन कार्ड। सस्ता अनाज इनके लिए सपना है। यह त्रासदी केवल करण और उसके परिवार की नहीं, बल्कि मूर्तियां गढ़ने वाले सभी शिल्पकारों की जिंदगी के दस्तावेज हैं। अपनी किस्मत को कोसते हुए करण कहते हैं, "पांच सौ लोगों की आबादी भले ही लखमीपुर में बसाई गई है, लेकिन पास में कोई शौचालय नहीं होने के कारण रात में ही खेतों में जाना पड़ रहा है। सरकारी हैंडपंप भी आसपास नहीं है। औरतें साड़ी का पर्दा बनाकर नहाती हैं।"
चिंता में डूबे मूर्तिकार
30 वर्षीय शिल्पकार मिथिलेश कुमार ने जब से होश संभाला है तभी से छेनी-हथौड़ी से मूर्तियां गढ़ रहे हैं। वह कहते हैं, "हमारे पास इतनी दौलत नहीं है कि बच्चों को पढ़ा सकें। हमारे दादा कन्हैया ने तीन बरस की उम्र में ही हमें मूर्तियां गढ़ने का हुनर सिखाना शुरू कर दिया था। कोरोना के संकटकाल में दिक्कतें बहुत आईं। उस समय बस किसी तरह से हम जिंदा बच पाए। छत पाने के लिए हम दौड़ते-दौड़ते थक गए, पर किसी ने हमारी नहीं सुनी। किसी योजना का हमें कोई लाभ नहीं मिला। हम पिछले दस बरस से बीजेपी को वोट देते आ रहे हैं। हम चाहते हैं कि पीएम नरेंद्र मोदी हमें भी सरकारी आवास दिलाएं और खेती के लिए जमीन भी। हमारी मूर्तियां भी लालपुर के संकुल में बेची जाएं।"
"गांव के लोग" मैग्जीन से जुड़े कला संपादक अमन विश्वकर्मा कहते हैं, "चांदपुर में मूर्तियों को गढ़ने वाले फनकार इंसानी सभ्यता की कामयाबी के बड़े प्रतीक बन गए थे। इनका हुनर बनारस के इतिहास को गढ़ा करता था। साथ ही इस बात को भी तस्दीक किया करता था कि इंसान के हाथों का हुनर, दिमाग़ का खुलापन, कैसे पत्थरों पर ख़ूबसूरत मूर्तियां उकेर सकता है। शिल्पकारों की मूर्तियां सिर्फ कल्पना भर नहीं थीं, वो एक तल्ख सच्चाई भी बयां किया करती थीं। उजाड़े जाने के बाद इन शिल्पकारों के चेहरे पर अब चिंता की गहरी लकीरें उभर आई हैं, जिसे देखकर आसानी से समझा जा सकता है कि उनकी बस्ती के टूटने से इंसानियत ने कितना बड़ा नुक़सान उठाया होगा। इसे एक धरोहर की बर्बादी की मिसाल मानी जा सकती है।"
बनारस के वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, "बनारस में लोग कभी न जाने के लिए आते हैं, लेकिन इस शहर से बहुत कुछ चला गया। ज़िंदगी की एक लय और सुकून ही नहीं, हज़ारों फनकारों का हुनर भी गुमशुदा हो गया। वो फनकार जिनकी अदा पर बनारस फिदा होता था। जिनके हुनर का हर कोई दीवाना हुआ करता था। अब सिर्फ बेचैनियां भरी पड़ी हैं। आडंबर है, बेबसी है, खलबली है। मौजूदा समय में बाज़ार तो हैं, लेकिन तौर-तरीके बदल गए हैं।"
"अनूठे शहर बनारस में भी सिर्फ वही बच रहा है जो बदली हुई ज़रूरतों के हिसाब से खुद को बदलने की कोशिश कर रहा है। कुछ जाने-अनजाने में कुछ सरकार और नौकरशाही की अनदेखी के चलते। लोग कहते हैं कि समय बदल रहा है, लेकिन वक्त के साथ जो चीज़ें बदल रही हैं अब उनका कहीं कोई ज़िक्र नहीं होता। होता भी है तो सिर्फ किस्से और कहानियों में। अब न उनके खरीदार बचे हैं और न पहले जैसे कारीगर। पीएम नरेंद्र मोदी के बनारस में चांदपुर के मूर्तिकारों को स्थायी रूप से बसाने से पहले जिस तरह से उनकी बस्ती ढहा दी गई, उससे लगता है कि अब वो भी कुछ दिनों में किस्से-कहानियों के हिस्से बनकर रह जाएंगे।"
(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
Courtesy: Newsclick
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