उत्तर प्रदेश: कतर्निया घाट वन्यजीव अभयारण्य में रहने वाले वनाश्रितों को कब मिलेंगे अधिकार?

Written by Manoj Singh | Published on: August 24, 2022
वन अधिकार अधिनियम 2006 को लागू हुए 16 साल हो गए हैं लेकिन बहराइच के कतर्नियाघाट वन्यजीव अभयारण्य के निवासियों को हक मिलना तो दूर, आज भी हर रोज बेदखली, घर तोड़ने और गिरफ्तारी के डर के साये में जीवन बसर करना पड़ रहा है।

कतर्निया घाट वन्यजीव अभयारण्य स्थित ककरहा वन बस्ती में अपने उजड़े हुए घर के सामने खड़े सुरेश जायसवाल. फोटो - मनोज  सिंह

वन अधिकार क़ानून लागू होने के 16 वर्ष बाद भी अभयारण्य के तहत आने वाले पांच वन ग्रामों को ही अब तक राजस्व गांव बनाया जा सका है और सिर्फ़ 273 लोगों को भूमि के व्यक्तिगत अधिकार दिए गए हैं, जबकि सभी वन ग्रामों व वन बस्तियों में 2,383 परिवार रह रहे हैं। इनमें भी 93 वनवासियों को प्रमाण पत्र दिए जा चुके हैं जबकि 180 पत्र प्रशासन द्वारा वितरित किए जाने बाकी हैं। इस बीच अनुमंडल स्तरीय समिति ने 895 दावों को खारिज कर दिया। जिन लोगों के व्यक्तिगत दावों को मंजूरी दी गई है, उन्हें अभी तक उनकी खतौनी (कानूनी भूमि रिकॉर्ड) जारी नहीं की गई है, जिसके कारण वे कई सरकारी योजनाओं और बैंकों की सुविधाओं का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। वहीं खास है कि अभी तक जिले की 15 वन बस्तियों में वन अधिकार अधिनियम के तहत किसी व्यक्ति या समुदाय का दावा स्वीकार नहीं किया गया है। वन विभाग इन बस्तियों को अनधिकृत अतिक्रमण मानता है और बेदखली अभियान चलाता है, निवासियों को परेशान करता है और अक्सर उन्हें नोटिस जारी करता है।

गोरखपुर न्यूजलाइन में मनोज सिंह की छपी विशेष रिपोर्ट के अनुसार, यूपी के बहराइच जिले के कतर्निया घाट वन्यजीव अभयारण्य के पांच वन ग्रामों और 15 वन बस्तियों में रहने वाले वनवासियों का वन अधिकार कानून (अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006) के तहत अधिकार देने का कार्य बेहद धीमा है। वन अधिकार कानून लागू होने के 16 वर्ष बाद अभी तक पांच वन ग्रामों को ही राजस्व गांव बनाया जा सका है और सिर्फ 273 लोगों को भूमि के व्यक्तिगत अधिकार दिए गए हैं, जबकि सभी वन ग्रामों व वन बस्तियों में 2,383 परिवार रह रहे हैं।

अभयारण्य में बसी 15 में से 14 वन बस्तियों के वजूद को वन विभाग अभी भी स्वीकार नहीं कर रहा है। वन विभाग के अनुसार वे अतिक्रमणकारी हैं और वन अधिकार कानून के तहत उनका तीन पीढ़ियों के रहवास का दावा प्रमाणित नहीं होता है। वन विभाग गाहे-बेगाहे इन बस्तियों पर कार्रवाई करता रहा हैं। अभी हाल में एक वन बस्ती को खाली करने का नोटिस दिया गया। दूसरी वन बस्तियों में शौचालय, आवास, पेयजल, सड़क जैसी जरूरी योजनाओं को लागू नहीं होने दिया जा रहा है।

अभयारण्य 517 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला हुआ है। भारत-नेपाल सीमा पर स्थित यह वन क्षेत्र दुधवा टाइगर रिजर्व के अंतर्गत आता है। नेपाल का बर्दिया नेशनल पार्क इससे जुड़ा हुआ है। इसमें घाघरा नदी की दो सहायक नदियां- गिरवा और कौड़ियाला बहती हैं। अभयारण्य साखू के पेड़ और लंबी घासों से आच्छादित है। यहां बाघ, तेंदुआ, गैंडा, हिरन, घड़ियाल, मगरमच्छ का प्राकृतिक रहवास है। गिरवा नदी में गैंगेटिक डॉल्फिन पाई जाती हैं। अभयारण्य में बसे पांच वनग्राम और 15 वन बस्तियों का इतिहास करीब-करीब 100 वर्ष से अधिक है। वनवासियों के अनुसार उन्हें साखू के पेड़ लगाने, पेड़ों की कटान व ढुलाई के साथ-साथ अफसरों की बेगारी के लिए बसाया गया। 

1922 से टांगिया पद्धति से साखू के जंगल तैयार करने का काम शुरू हुआ। सबसे पहले 1925-26 में मोतीपुर रेंज में तीन टांगिया सेंटर- महबूबनगर, नाजिर गंज और तारानगर बनाकर टांगिया पद्धति से वृक्षारोपण का कार्य शुरू हुआ। इसके बाद पूरे कतर्निया में जगह-जगह टांगिया पद्धति से पेड़ लगाए गए और यह क्रम 1984 तक जारी रहा। इस दौरान वन ग्राम और वन बस्तियों को काम के अनुसार हटाया और बसाया जाता रहा। वर्ष 1984 के बाद वन विभाग ने वनवासियों से पेड़ लगाने का काम लेना बंद कर दिया और उन्हें जंगल से हटाने की कोशिश की।

सैकड़ों वर्ष से रह रहे वनवासियों ने जंगल छोड़कर जाने से इनकार कर दिया और अपने गांव में रह गए। वर्ष 2005 में कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने वनवासियों को संगठित कर वन अधिकार आंदोलन की शुरुआत की। उस समय तक वनवासियों को वोट डालने का भी अधिकार नहीं था। पक्का घर, राशन कार्ड, परिवार रजिस्टर की नकल, स्कूल, आंगनबाड़ी यह सब लोगों के लिए एक सपना था। वनवासी नवयुवक कितना भी पढ़े हों, लेकिन उनको नौकरी निवास प्रमाण-पत्र के अभाव में नहीं मिल सकती थी। आंदोलन का नेतृत्व कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता सेवार्थ फाउंडेशन के अध्यक्ष जंग हिंदुस्तानी, सरोज गुप्ता, फरीद अंसारी, समीउद्दीन खान सहित कई लोगों पर केस दर्ज हुए और उन्हें 40 दिन तक जेल भी रहना पड़ा। कई लोगों पर आज भी केस चल रहे हैं। 

प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत वनवासियों को पक्का मकान बनाने से कथित तौर पर वन विभाग द्वारा रोका जा रहा है। वर्ष 2006 में वन अधिकार कानून लागू होने के बाद स्थिति में बदलाव आया। वनवासियों ने ग्राम वन अधिकार समिति गठित कर अपने व्यक्तिगत व सामुदायिक दावे आगे बढ़ाया, लेकिन विभिन्न स्तरों पर इन दावों को खारिज किया जाता रहा। इस कानून के लागू होने के 13 वर्ष बाद 2019 में गोकुलपुर को और जनवरी 2022 को चार वन ग्रामों- भवानीपुर, बिछिया, टेडिया, ढकिया को राजस्व गांव में परिवर्तित करने का आदेश जारी हुआ।

अभयारण्य में वन अधिकार कानून की स्थिति

अभयारण्य में 5 वन ग्राम भवानीपुर, बिछिया, ढकिया, टेड़िया और गोकुलपुर हैं। एक वन ग्राम जमुनिहां को बहुत पहले वन विभाग ने विस्थपित कर दिया था। इस वन ग्राम के लोग वर्तमान समय में धनौरा टांडा कारीकोट में बसे हुए हैं। इसके अलावा 15 वन बस्ती या वनटांगिया बस्ती- महबूबनगर, श्रीरामपुर, सुखड़ीपुरवा, 2755, रामपुर रतिया, धर्मपुर रतिया, सम्पतिपुरवा, तुलसीपुरवा, हल्दीप्लाट, जागापुरवा, ककरहा, मूर्तिहा, बिछिया, निशानगाड़ा और कतर्निया घाट हैं.बिछिया नाम से वन ग्राम और वन बस्ती है। बिछिया में फिक्स डिमांड होल्डिंग के तहत लोगों को आवास तथा दुकानों के लिए वन भूमि को वार्षिक किराये पर आवंटन दिया गया था। इन्हीं लोगों में से खेती करने वालों को स्टेशन के दूसरी तरफ बिछिया गांव में खेती करने के लिए वन भूमि दी गई थी। सभी वन ग्रामों, वन बस्तियों में वर्तमान समय में 2,383 परिवार हैं। आबादी करीब 13 हजार के करीब है। पांच वन ग्रामों में छह हजार से अधिक लोग हैं, जबकि वन बस्तियों में सात हजार लोग रह रहे हैं। 

पांच वन ग्रामों में 28 नवंबर 2019 को सबसे पहले गोकुलपुर को राजस्व ग्राम में परिवर्तित किया गया। भवानीपुर, बिछिया, ढकिया, टेड़िया को 7 जनवरी 2022 को राजस्व गांव घोषित किया गया। 15 वन बस्तियों में से कुछ बस्तियां जैसे- रामपुर रतिया, धर्मपुर रतिया बड़ी आबादी वाली हैं, जबकि ककरहा, मूर्तिहा जेसी कुछ वन बस्तियों में चंद परिवार ही रहते हैं। मूर्तिहां में नौ, ककरहा में एक परिवार ही रहते हैं। इनमें से सिर्फ एक महबूबनगर के 274 परिवारों का दावा सत्यापन का कार्य पूरा हो पाया है। यहां पर परिवार रजिस्टर बनाने के भी काम शुरू हुआ है। बाकी वन बस्तियों में वर्ष 2019 में ग्राम वन अधिकार समिति का गठन हो चुका है और वहां वनवासियों से दावे लिए जाने की प्रक्रिया चल रही है। 

समाज कल्याण विभाग और वन विभाग की सुस्ती से वन अधिकार दावों को सत्यापित करने और उन्हें आगे बढ़ाने की कार्यवाही बहुत धीमी चल रही है। वन ग्रामों में अभी तक सिर्फ 273 लोगों के व्यक्तिगत दावे स्वीकृत किए गए हैं। इनमें से 93 वनवासियों को अधिकार पत्र दे दिए गए हैं, जबकि 180 अधिकार पत्र अभी तक प्रशासन ने नहीं बांटे हैं। 895 दावों को उपखंड स्तरीय कमेटी से खारिज कर दिया गया है। जिन लोगों के व्यक्तिगत दावे स्वीकृत कर लिए गए हैं, उनकी अभी खतौनी नहीं बनी है, जिसकी वजह से उन्हें बतौर काश्तकार सरकारी योजनाओं, बैंक से मिलने वाली सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं। 

15 वन बस्तियों में वन अधिकार कानून के तहत अभी तक कोई व्यक्तिगत व सामुदायिक दावा स्वीकृत नहीं किया गया है। वन विभाग इन बस्तियों को अनधिकृत और अतिक्रमणकारी मान रहा है और इनमें बेदखली, उत्पीड़न व नोटिस की कार्यवाही का सिलसिला अक्सर चलता रहा है। कुछ बस्तियों में ग्राम वन अधिकार समिति का गठन कर व्यक्तिगत व सामुदायिक दावों को लेने और उन्हें सत्यापित करने की प्रक्रिया चल रही है, लेकिन इसमें वन विभाग, समाज कल्याण विभाग व अन्य संबंधित विभाग सहयोग नहीं कर रहे हैं। यहां तक कि दावा फार्म भी वनवासियों को नहीं दिया गया है। फोटो स्टेट करा कर वनवासी दावा फार्मों को भरने का कार्य कर रहे हैं। गोकुलपुर राजस्व गांव घोषित कर दिया गया है। 

ग्राम वन अधिकार समिति के सचिव राधेश्याम ने बताया कि इस गांव में 53 व्यक्तिगत दावे स्वीकृत किए गए हैं। 40 दावे उपखंड स्तर पर लंबित हैं. जिनके दावे बन गए हैं उनका रकबा खतौनी में अभी दर्ज नहीं हुआ है। सड़क और बिजली की सुविधा मिल गई है। प्राथमिक विद्यालय है, लेकिन आंगनबाड़ी नहीं हैं। छह वनवासियों को प्रधानमंत्री आवास मिला है। करीब एक दर्जन लोगों के यहां शौचालय भी बना है। 

गोकुलपुर के अलावा भवानीपुर, टेड़िया, ढकिया, बिछिया में विकास का कार्य अभी तक शुरू नहीं हो पाया है। आवास बनाना शुरू किया तो वन विभाग ने गिरफ्तार कर लियाटेड़िया गांव के निवासी राम बहादुर पुत्र कामता को प्रधानमंत्री आवास मिला। जब उन्होंने आवास बनवाना शुरू किया तो वनकर्मी आए और उन्हें निर्माण कार्य बंद करने को कहा। इसके बाद उन्हें एक दिन वन चौकी बुलाया गया और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। वे 3 महीने बाद जेल से छूट कर आए हैं। राम बहादुर ने बताया कि वे चार भाई हैं। उन्हें आवास योजना के तहत 1.20 लाख रुपये मिले थे। पहली किश्त मिलने के बाद उन्होंने दिसंबर 2019 में घर बनवाना शुरू किया। तभी वन विभाग के कर्मचारी आए और उन्होंने कहा कि रेंजर साहब ने कहा है यहां पर कोई पक्का निर्माण नहीं हो सकता, इसलिए काम रोक दिया जाए। उनके अनुसार, उन्होंने जब निर्माण कार्य जारी रखा तो उन्हें वन चौकी घोसियाना पर बुलाया गया और गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। उनके खिलाफ 26 भारतीय वन अधिनियम, 2/3 (क) वन संरक्षण अधिनियम 27, 29, 31, 39, 51,52 वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत केस दर्ज किया गया। राम बहादुर अपना अपराध पूछते रहे लेकिन उन्हें कुछ नहीं बताया गया। 

वह कहते हैं कि उन लोगों के हाथ में कलम है, जो चाहे लिख दें। हम क्या कर सकते हैं? वह इस हादसे से अभी तक डरे हुए हैं। उन्हें लगता है कि वन विभाग कहीं फिर से उनके खिलाफ कार्यवाही न कर दें। सुखड़ीपुरवा में शौचालय भी नहीं बनने दे रहा है वन विभागवन बस्ती सुखड़ीपुरवा में 55 परिवार हैं। इनके पुरखों ने अंग्रेजी राज में और स्वतंत्र भारत में साखू के जंगल तैयार करने का काम किया. वर्तमान में यह गांव सुजौली ग्राम पंचायत से संबंद्ध है। इस गांव में ग्राम वन अधिकार समिति का गठन हो चुका है, जिसके अध्यक्ष रामनगीना और सचिव रघुवीर हैं। यहां पर समिति दावों के सत्यापन का कार्य कर रही है। वन विभाग इस वन ग्राम को अवैध व वनवासियों को अतिक्रमणकारी मानता है। दो वर्ष पहले प्रभावती, रीना, रेशमी, मीना, सुनयना, रुक्मिणी सहित करीब एक महिलाओं को स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय के लिए 12-12 हजार रुपये मिले। जब इन लोगों ने शौचालय बनाने के लिए ईंट मंगवाए तो वन विभाग के कर्मचारी पहुंच गए और कहा कि यहां पर शौचालय नहीं बन सकता। वनवासियों ने कहा कि उन्हें सरकारी योजना के तहत शौचालय मिला है फिर भी कर्मचारी नहीं माने और काम रुकवा दिया। तभी से इस गांव में एक भी शौचालय नहीं बना है।  वन विभाग वनवासियों को अपने संसाधन से भी शौचालय नहीं बनने दे रहा है। 

वन बस्ती के एक दर्जन लोगों को वर्ष 2015-16 में प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत आवास भी स्वीकृत हुआ था, लेकिन वन विभाग के अड़ंगा लगाने से इनका पैसा वापस चला गया। शंकुतला देवी ने बताया कि शौचालय नहीं होने से बरसात के दिनों में काफी दिक्कत होती है, क्योंकि चारों तरफ पानी भर जाता है। जंगली पशुओं के हमले का डर भी सताता है। सर्प दंश की घटनाएं भी इस दौरान बढ़ जाती हैं लेकिन वन विभाग को इसकी कोई परवाह नहीं हैं। गांव के प्रभुनाथ चौहान, कमलेश चौहान, शंकुतला, रामशंकर, विजय कुमार, हरेंद्र कुमार ने बताया कि वन विभाग मुख्य सड़क से वन बस्ती को आने वाली कच्ची सड़क को भी नहीं बनने दे रहा है। वनवासियों ने अपने संसाधन से कच्ची सड़क को ठीक करने की कोशिश की तो कर्मचारी आ गए और उन्होंने काम रोक दिया। 

राजकुमार, रामचंद, नंदलाल और रामसरन ने बताया कि उनके पास खेती की जमीन है, जिसमें धान, गेहूं, गन्ने की खेती करते हैं, लेकिन उन्हें बतौर किसान किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिलता, क्योंकि अभिलेखों में उनकी जमीन वन विभाग के नाम दर्ज है। नंदलाल कहते हैं कि उन्हें मोदी जी वाला दो हजार रुपया (किसान सम्मान निधि) नहीं मिलता.इस बस्ती में सरकारी योजना के नाम पर वनवासियों को सिर्फ सोलर लाइट मिली है। पीने के पानी के लिए सिर्फ तीन इंडिया मार्का हैंडपंप है, जिससे वनवासी किसी तरह काम चला रहे हैं। हर घर नल योजना से यह गांव भी आच्छादित होना था, लेकिन वन विभाग की आपत्ति के कारण इस गांव में यह योजना लागू नहीं हो सकी। 

रामपुर रतिया के 341 वनवासियों पर बेदखली की तलवार लटकी

वन बस्ती रामपुर रतिया जंगल गुलरिया के अंतर्गत आता है। यह बस्ती बहराइच जिले में है, लेकिन यह दुधवा नेशनल पार्क के अंतर्गत आता है। बस्ती के 341 लोगों को सात जून 2022 को पार्क की तरफ से एक नोटिस भेजा गया। रामपुर रतिया वन बस्ती के लोगों को मिला बेदखली का नोटिस। इससे पता चला कि बस्ती के लोगों की बेदखली की कार्यवाही दुधवा टाइगर रिजर्व लखीमपुर खीरी के न्यायालय में चल रहा है। नोटिस में कहा गया है कि जंगल गुलरिया आरक्षित वन भूमि है और इस पर रह रहे लोग अतिक्रमणकारी हैं। बस्ती के निवासी 90 वर्षीय जंगली सबसे बुजुर्ग हैं। उन्होंने बताया कि इस तरह का नोटिस उनके जीवन में पहले कभी नहीं आया था। उनके बाबा और पिता ने यहां जंगल लगाने का काम किया। हमने खुद धनिया बेली में शीशम का जंगल तैयार किया और वन विभाग के लिए मजदूरी की. बाबा-दादा यहीं जिये और मरे। अब हमें अतिक्रमणकारी कहा जा रहा है। यह बहुत हैरत की बात है। बस्ती में ग्राम वन अधिकार समिति का गठन हो चुका है। सचिव श्याम बिहारी ने बताया कि यहां रहने वाले वनवासियों ने व्यक्तिगत और सामुदायिक दावे के फार्म भर लिए हैं और समिति ने उन्हें सत्यापित कर लिया। हम अब इसे खंड स्तरीय कमेटी के पास भेजने वाले थे, तभी यह नोटिस आ गया।

श्याम बिहारी बताते हैं कि गांव के प्रधान मुकेश कुमार ने नोटिस के बारे में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और प्रभागीय वन अधिकारी को गांव की तरफ से पत्र लिखा है, जिसमें बेदखली की कार्यवाही रोकने की मांग की गई है। वे कहते हैं कि वन अधिकार कानून के तहत हम परंपरागत वनवासी हैं। हम 100 वर्ष से अधिक समय से यहां रह रहे हैं. वन अधिकार कानून के तहत हमें अपनी रिहायशी, खेती की जमीन पर अधिकार पत्र मिलना चाहिए, लेकिन उल्टा हमें बेदखल करने की कोशिश की जा रही है। वन अधिकार कानून का खंड 4 (5) स्पष्ट रूप से कहता है कि सत्यापन और मान्यता की प्रक्रिया पूरी किए बिना वनवासियों को हटाया नहीं जा सकता, लेकिन वन अधिकार इसकी अनदेखी कर रहे हैं। यह बस्ती घाघरा नदी के पास है। बाढ़ से भी यह प्रभावित होती है। जंगली बताते हैं कि कुछ वर्षों से घाघरा नदी का रुख बस्ती की तरफ हो चला है। चहलवा और धर्मपुरा में दो वर्ष पहले बहुत कटान हुई थी और दोनों गांव पूरी तरह विस्थापित हो गया। उन्होंने बताया कि उन गांवों को अभी तक पुनर्वासित नहीं किया गया है। यदि नदी का कटान इसी तरह जारी रहा और कटान रोकने का कोई उपाय नहीं किया गया तो हम भी विस्थापित हो सकते हैं एक तरफ वन विभाग हमें उजाड़ने में लगा है तो दूसरी तरफ नदी कटान से हम आशंकित है। हमें कहीं से कोई मदद नहीं मिल रही है। 

वन ग्राम में भी चल रहा है बुलडोजर 

ककरहा वन वस्ती निवासी सुरेश जायसवाल ककरहा रेलवे स्टेशन के पास अस्थायी टिन शेड में पत्नी और बेटे अंकित जायसवाल के साथ काफी समय से रह रहे हैं। उन्होंने जीवन यापन के लिए इसी में मिठाई की दुकान कर रखी थी। वे गुर्दा रोग से पीड़ित हैं और उनक इलाज लखनऊ चल रहा है। कतर्निया घाट वन्यजीव अभयारण्य स्थित ककरहा वन बस्ती में अपने उजड़े हुए घर के सामने खड़े सुरेश जायसवाल। 23 जून को अचानक वन विभाग के अधिकारी व कर्मचारी बुलडोजर लेकर पहुंचे और उनके टिन शेड के घर को तोड़ दिया। विरोध करने पर उनके बेटे अंकित जायसवाल को पीटा भी गया। सुरेश को इस कार्यवाही की पूर्व सूचना नहीं दी गई थी और न ही उन्हें किसी प्रकार का नोटिस मिला था। सुरेश ने बताया कि उनके पुरखे 1914-15 में वनटांगिया मजदूर के रूप में काम करने आए थे और उन्हें ककरहा में बसाया गया था। 

ककरहा को वन बस्ती के रूप में स्वीकृति मिली हुई है। यहां ग्राम वन अधिकार समिति का गठन हो चुका है और वनवासियों को दावा प्रपत्र भी उपलब्ध करा दिया गया है। इसके बावजूद वन विभाग द्वारा यह कार्यवाही की गई.उनके बेटे अंकित ने बताया कि घर तोड़ दिए जाने के बाद बारिश के मौसम में वे बेघर हो गए हैं। तिरपाल डालकर किसी तरह रह रहे हैं। बुलडोजर की कार्यवाही के एक पखवारे पहले पांच जून को उनकी शादी हुई थी। घर तोड़ दिए जाने की घटना से उनकी पत्नी दहशत में आ गईं। वह उन्हें मायके पहुंचा आए हैं।  मिठाई की दुकान से किसी तरह दो जून की रोटी का इंतजाम हो जाता था। अब वह सहारा भी छिन गया। उत्पीड़न की दास्तां यहीं खत्म नहीं होती। 

वनवासियों के बीच डेढ़ दशक से अधिक समय से कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता जंग हिंदुस्तानी ने बताया कि सुरेश का घर बुलडोजर से तोड़े जाने के पहले एक जून को भवानीपुर वन ग्राम के बालकराम और रामलखन यादव को वन विभाग के एक बड़े अफसर ने पशुओं को चराते हुए देखा था। उनके निर्देश पर अधिकारियों ने दोनों को पकड़ लिया और उन्हें प्रतिबंध के बाद भी पशु चराने के आरोप में केस दर्ज कर जेल भेजने की कार्यवाही शुरू कर दी। इस घटना की जानकारी मिलने पर उन्होंने कतर्निया घाट के संभागीय वन अधिकारी (डीएफओ) आकाशदीप बधावन से संपर्क किया और बताया कि भवानीपुर वन ग्राम को वन अधिकार कानून के तहत राजस्व गांव में परिवर्तित कर दिया गया है और सामुदायिक अधिकार के तहत वनवासी पशु चरा सकते हैं। ये वनवासी पीढ़ियों से पशु चराते आए हैं। यह बताए जाने के बाद बालक राम और रामलखन के खिलाफ कार्यवाही निरस्त की गई और उन्हें छोड़ दिया गया। 

डीएफओ बधावन ने बताया कि महबूब नगर टांगिया बस्ती है और यहां रहने वाले वनवासियों को अधिकार देने की प्रक्रिया शुरू की गई है। शेष वन बस्तियों के 75 वर्ष से अधिक समय से आबाद रहने के प्रमाण नहीं हैं। सेटेलाइट सर्वे में भी इन बस्तियों को नहीं देखा गया है। कुछ बस्तियां वन अधिकार कानून लागू होने के बाद आबाद हुई हैं। इसलिए हम इन्हें इसे अतिक्रमण मानते हैं। यही कारण है कि वहां पर पक्के काम को रोका जाता है।

(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं।)

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