UP चुनाव: छठे चरण में घिरी बीजेपी के सामने अब काशी बचाने का दबाव, मोदी-शाह खुद उतरे

Written by Navnish Kumar | Published on: March 5, 2022
उत्तर प्रदेश में 6 चरणों का चुनाव हो चुका है। आखिरी सातवें चरण के लिए भी आज 5 मार्च की शाम प्रचार थम गया है। 7 मार्च को वोटिंग है। अब भले ही छठे चरण में 2017 के मुकाबले 1% कम वोट पड़े हों लेकिन जाति की राजनीति पर बुनी जाने वाली पूर्वांचल की सियासत में इस बार बीजेपी बुरी तरह घिरी हुई है। हालांकि योगी के गोरखपुर में वोट प्रतिशत बढ़ा है। 2017 के मुकाबले इस बार गोरखपुर में 3% अधिक वोट पड़े हैं लेकिन जीत का गणित बुरी तरह गड़बड़ाया हुआ है। इसी से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के चेहरे पर 2017 के पुराने प्रदर्शन को दोहराने का दबाव साफ देखा जा सकता है। तो दूसरी तरफ, आखिरी चरण में काशी को लेकर यही दबाव पीएम मोदी महसूस कर रहे हैं। तभी वो, बीजेपी के चाणक्य अमित शाह व मंत्रियों की फौज के साथ खुद, 3 दिन से काशी में गली-गली घूम रहे हैं।



इस फाइनल (7वें) फेज में पूर्वांचल के आजमगढ़ से वाराणसी तक 9 जिलों की 54 सीटों पर मतदान होगा जिसमें बीजेपी व सपा के साथ उनके सहयोगी दलों की भी परीक्षा होनी है। यूपी के 7वें चरण में पूर्वांचल के आजमगढ़, मऊ, गाजीपुर, जौनपुर, वाराणसी, मिर्जापुर, गाजीपुर, चंदौली व सोनभद्र जिले की 54 सीटें शामिल हैं। आजमगढ़ और जौनपुर जिले सपा का गढ़ माना जाते हैं तो मऊ गाजीपुर में उसके सहयोगी सुभासपा अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर और जनवादी पार्टी के प्रमुख संजय चौहान का असर है। बाकी में बीजेपी व उसके सहयोगी अपना दल (एस) का भी प्रभाव माना जाता है। 

खास है कि 2017 के चुनाव में सातवें फेज की इन 54 सीटों में से बीजेपी व उसके सहयोगियों ने 36 सीटें जीती थीं, जिनमें बीजेपी को 29, अपना दल (एस) को 4 और सुभासपा को 3 सीटें मिली थीं। वहीं, सपा ने 11 सीटें, बसपा ने 6 सीटें और निषाद पार्टी ने एक सीट जीती थी। कांग्रेस खाता नहीं खोल सकी थी। हालांकि, इस बार ओम प्रकाश राजभर ने बीजेपी से नाता तोड़कर सपा के साथ हाथ मिला लिया है तो निषाद पार्टी ने बीजेपी से गठबंधन कर रखा है। 

जिलेवार देंखे तो आजमगढ़ की 10 सीटों में से सपा ने 5, बसपा ने 4 और बीजेपी ने 1 सीट पर कब्जा जमाया था। मऊ जिले की 5 सीटों में से 4 बीजेपी और 1 बसपा ने जीती थी। जौनपुर जिले की 9 में से 4 बीजेपी, 1 अपना दल(एस), 3 सपा व 1 बसपा को मिली थी। गाजीपुर की 7 में से 3 बीजेपी, सुभासपा, दो सपा ने जीती थी। चंदौली की 4 में से 3 बीजेपी और 1 सपा के खाते में गई थी। वाराणसी की 8 में से 6 सीटें बीजेपी, एक अपना दल (एस) और एक सुभासपा ने जीती थी। भदोही की 3 में से दो बीजेपी और एक निषाद पार्टी को मिली थी। मिर्जापुर की पांच में से 4 बीजेपी और एक अपना दल (एस) तो सोनभद्र जिले की 4 में से 3 तीन बीजेपी व 1 पर अपना दल (एस) ने कब्जा जमाया था लेकिन इस दफा माहौल में जबरदस्त परिवर्तन देखने को मिल रहा है, काशी में भी।

सवाल उठ रहे हैं कि क्या पीएम मोदी का संसदीय क्षेत्र काशी भी सुरक्षित नहीं है? शायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा का पूरा तंत्र तमाम संसाधनों के साथ मिशन बनाए है कि वाराणसी की एक भी सीट हारी तो वह प्रधानमंत्री की हार होगी। वैसे कुल मिलाकर अयोध्या जैसा ही मसला है। काशी के चलते यूपी का चुनाव, आखिरी चरण में पीएम नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा व साख की लडाई का हो गया है। खासकर वाराणसी दक्षिण की सीट जहां काशी कॉरिडोर बना है, बीजेपी की प्रतिष्ठा से जुड़ी है। शायद यही कारण है कि बीजेपी के चाणक्य माने जाने वाले केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह पहले से ही काशी में डेरा जमाये हैं। 

बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में वाराणसी दक्षिण सीट का गौरवशाली अतीत रहा है। आजादी के बाद 1951 के पहले विधानसभा चुनाव में यहां से सोशलिस्ट नेता राजनारायण व कांग्रेस के डॉ संपूर्णानंद ने जीत दर्ज की थी। तब यहां से स्टेट असेंबली में 2 प्रतिनिधि चुने जाते थे। 1957 में संपूर्णानंद दोबारा चुने गए और यूपी के मुख्यमंत्री बने। संपूर्णानंद दो बार विधायक चुने गए। कहते है कि उन्होंने कभी अपने क्षेत्र में चुनाव प्रचार नहीं किया। वाराणसी दक्षिण सीट 1989 से बीजेपी का गढ़ है। 1989 से इस सीट से लगातार 7 चुनाव में विजय दर्ज कर श्यामदेव राय चौधरी रिकार्ड बना चुके हैं। लेकिन 2017 में उनके स्थान पर बीजेपी के टिकट पर यहां से नीलकंठ तिवारी जीते व योगी सरकार में मंत्री बने।

यूपी में मंत्री नीलकंठ इस बार बीजेपी के गढ़ में खतरे में हैं। नीलकंठ तिवारी का एक वीडियो भी इन दिनों वायरल है जिसमें वो जनता से अपनी गलतियों और क्षेत्र में पर्याप्त समय न दे पाने के लिए माफी मांगते नजर आ रहे हैं। वीडियो में नीलकंठ कह रहे हैं कि मंत्री की जिम्मेदारी की वजह से उन्हें पूरा प्रदेश देखना था। इस कारण वो क्षेत्र में समय नहीं दे पाए। इसके लिए वे क्षमा प्रार्थी हैं। उनके वीडियो को काशी में बीजेपी की खिसकती जमीन का द्योतक माना जा रहा है। हालांकि राजनीति के कुछ पंडितों का मानना है कि यह वीडियो इसलिए जारी कराया गया है कि यदि खुदा न खास्ता बीजेपी ये सीट हार जाए तो उसका ठीकरा नीलकंठ पर थोपा जा सके। वैसे भी बीजेपी शुरूआत में नीलकंठ के स्थान पर यहां से नया चेहरा देने के मूड में थी। पर ऐन टाइम पर वे टिकट पाने में सफल रहे। योगी सरकार के धर्मार्थ कार्य, संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री नीलकंठ तिवारी के खिलाफ, सपा ने कामेश्वर दीक्षित उर्फ किशन दीक्षित को उतार मुकाबले को रोचक बना दिया है। 

किशन दीक्षित का परिवार काशी में भगवान शंकर के प्राचीन मंदिर ‘मृत्युंजय महादेव’ के महंत के बेटे हैं। वे हरिश्चंद्र कॉलेज के छात्र संघ अध्यक्ष रहे हैं। पेशे से वकील दीक्षित का ये पहला चुनाव है। सपा के शहर दक्षिण से एक महंत को उम्मीदवार बनाने से बीजेपी का हिंदुत्व का कार्ड यहां काम नहीं कर रहा है। दीक्षित ने पूरे महंत के गेटअप में अपना नामांकन कराकर खुद को बड़े हिंदुत्ववादी के रूप में पेश कर बीजेपी से उसका बड़ा मुद्दा छीन लिया है। यही नहीं, दीक्षित ने हाल के वर्षों में सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में विश्वनाथ कारीडोर के विस्थापितों की लड़ाई लड़कर अपनी एक अलग पहचान बनायी है। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर वाराणसी दक्षिणी सीट में ही आता है। किशन ने काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के 200 मीटर में टूटते घरों और गंगा से बायो टॉयलेट हटवाने के लिए संघर्ष किया था। साथ ही ‘धरोहर बचाओ आंदोलन’ के तहत भी गली-मोहल्लों व मंदिरों के लिए संघर्ष किया। इसे देखते हुए किशन दीक्षित को मैदान में उतारकर सपा ने बड़ा दांव खेला है।

सपा ने ब्राह्मण और बंगाली समाज बाहुल्य सीट पर किशन दीक्षित को उतारकर एक तीर से कई निशाने लगाने की कोशिश की है। सपा को उम्मीद है कि काशी कॉरिडोर बनने से विस्थापित हुए परिवारों के समर्थन से वो इस बार बाजी पलट देंगे। इसके अलावा ममता बनर्जी के सपा के साथ आने के कारण बड़ी संख्या में यहां रहने वाला बंगाली समाज भी उन्हें ही वोट करेगा। शांडिल्य ब्राह्मण ममता बनर्जी ने गुरुवार को अखिलेश यादव के साथ वाराणसी में विशाल रैली कर बीजेपी को हराने का संदेश दिया। सपा को इस बार औरंगाबाद घराने के नाम से मशहूर कद्दावर कांग्रेसी स्व. कमलापति त्रिपाठी के परिवार का भी समर्थन है। कुछ समय पहले ही उनके पोते राजेशपति त्रिपाठी और पूर्व विधायक परपोते ललितेश त्रिपाठी ने ममता बनर्जी की टीएमसी ज्वाइन की थी। ऐसे में सपा अपने परंपरागत यादव-मुस्लिम वोटों के साथ ब्राह्मण और बंगाली समाज के वोटो के सहारे काफी मजबूत नजर आ रही है। माना जा रहा है कि किशन दीक्षित यदि सपा के मुस्लिम यादव व पिछड़ा वोट बैंक के साथ 15-20 हजार हिंदू वोट हासिल कर लेते हैं तो वाराणसी दक्षिण में नया इतिहास लिखा जाना तय है। 

नीलकंठ तिवारी 2017 में सपा और कांग्रेस के संयुक्त प्रत्याशी थे। तिवारी ने पूर्व सांसद राजेश मिश्रा को करीब 17 हजार वोटों से हराया था। हार जीत के कम अंतर को देखते हुए भी कहा जा सकता है कि बीजेपी की राह इस बार आसान नहीं है। कांग्रेस ने मुदिता कपूर को टिकट दिया है। मुदिता पहली बार मैदान में हैं। कांग्रेस के मुदिता भी खत्री, पंजाबी और वैश्य वर्ग के वोटों में अच्छी खासी सेंध लगा रहे हैं जो बीजेपी की चिंता का कारण बना हुआ है। उधर, कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने शुक्रवार को काशी विश्वनाथ मंदिर में पूजा अर्चना की। राहुल और प्रियंका दर्शन के लिए गोदौलिया से विश्वनाथ मंदिर तक पैदल ही गये। इस दौरान बड़ी संख्या में लोगों ने दोनों का स्वागत किया। राहुल, प्रियंका के दौरे से वाराणसी दक्षिण में कांग्रेस प्रत्याशी मुदिता कपूर मुकाबले में नजर आने लगे हैं। वैसे भी पिछले चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार राजेश मिश्रा कड़े मुकाबले में यहां दूसरे नंबर पर रहे थे। मुदिता यदि इस बार पिछला प्रदर्शन दोहराने में सफल रहते हैं तो परिणाम चौंकाने वाले हो सकते हैं। बसपा ने दिनेश कसौधन, आप ने अजीत सिंह, एआईएमआईएम में परवेज कादिर खां व आजाद समाज पार्टी ने वीरेंद्र कुमार गुप्ता को उतारा है।

वरिष्ठ पत्रकार भास्कर गुहा नियोगी लिखते हैं कि विश्वनाथ कारिडोर में मंदिरों को तोड़ने से लोग बीजेपी से नाराज़ है। काशी कारिडोर, जिसके चलते भाजपा हिंदू पुनर्जागरण से लेकर बाबा विश्वनाथ के मुक्ति तक के दावे करती रही है मगर आम जनता कारीडोर के चलते देव विग्रह व मंदिरों के तोड़े जाने से नाराज़ है। मंदिरों के तोड़े जाने को लोग औरंगजेब/गजनवी जैसा कृत्य बताते है। यहां न सिर्फ सदियों पुरानी मंदिरों को तोड़ा गया बल्कि रातो-रात देव विग्रहों को भी गायब कर दिया गया। नियोगी के अनुसार, तकरीबन 60 मंदिर कारीडोर के पेट में समा गये है। विश्वनाथ गली के रहने वाले ज्योतिष और राम नामी बैंक के संचालक राम कुमार महरोत्रा कहते है कि “आने वाला युग बतायेगा कि एक ऐसा शासक था जिसने धर्म के नाम पर राजनीति की लोगो को बांटा, मंदिरों का नामोनिशान मिटा दिया। वो कहते है कि शनि भगवान न जाने कहां गोदाम में पड़े हुए है। इतने मंदिर तोड़े जाते रहे लेकिन संत समाज खड़ा नहीं हुआ। कहते हैं कि कारिडोर के नाम पर धार्मिक स्थलों का अस्तित्व मिटाया गया है। उनका कहना है कि ये हमला काशी को क्योटो बनाने की घोषणा के साथ शुरू हो गया था। वो कहते है एक आदमी पर आंख बंद करके भरोसा करने का परिणाम काशी भुगत रही है। शहर दक्षिणी पर पिछले 8 चुनावों से भाजपा काबिज होती चली आ रही है लेकिन इस बार काशी की क्षुब्ध जनता सबक सिखाने के मूड में है। 

यही सब कारण है कि मोदी काफी दबाव में है और शाह व मंत्रियों की फौज के साथ काशी में जमे हुए हैं। यही नहीं, कल तक जो मोदी जी यह कहकर वोट मांग रहे थे, कि आपने हमारा नमक खाया है, इसलिए आप मुझे वोट दें। प्रियंका गांधी के सवाल "यह कौन सा तानाशाह है जो समझता है कि जनता उसका नमक खाती है? जो कुर्सी पर बैठे हैं वो जनता का नमक खाते हैं", के चलते मोदी ने बयान बदला है। अब मोदी जी कह रहे हैं, कि उन्होंने जनता का नमक खाया है!

कुछ भी हो वाराणसी की सभी सीटों पर 2017 जैसी जीत होनी चाहिए। खासकर दक्षिण की सीट पर जिसमें काशी कॉरिडोर है। इसलिए मोदी खुद काशी में डेरा डाले बैठे है। दरअसल भाजपा विधायकों मंत्रियों के खिलाफ कम ज्यादा एंटी इनकंबेंसी तो है ही। प्रधानमंत्री का लोकसभा क्षेत्र भी इससे अपवाद नहीं है। यही कारण है कि सभी 8 विधानसभा सीटों पर वैसी गूंज कतई नहीं है जैसे 2017 में नरेंद्र मोदी के एक दौरे से बन जाया करती थी। जो मामूली बात नहीं है, पीएम मोदी ने चुनाव घोषणा से पहले व बाद में वाराणसी के एक के बाद एक चक्कर लगाएं। काशी में रात गुजारी और अब फिर 3 दिन से काशी में ही है। 

काशी की 8 सीटों पर जातीय गणित और भाजपा के मौजूदा विधायकों से लोगों की केमैस्ट्री के अलावा भाजपा बनाम सपा के सीधे मुकाबले से मोदी व भाजपा की प्रतिष्ठा की नंबर-1 सीट काशी कॉरिडोर वाली शहर दक्षिणी सीट है। दोनो तरफ ब्राह्मण उम्मीदवार होने से ब्राह्मणों में यदि 25-30% भी समाजवादी पार्टी के दीक्षित को मिले तो मुसलमान, यादव से लेकर बंगाली और पिछडी जातियों के वोटों की पलटी, काशी कॉरिडोर में मोदी के जादू को खत्म करते हुए होगी। इसके बाद शहर उत्तरी, शिवपुर, वाराणसी कैंट में भी जातीय समीकरण और एकमुश्त मुस्लिम वोटों के चलते कांटे की लडाई है। अब, जब शहर की कोर सीटों पर ये हाल है तो इर्दगिर्द की राजभर, कुर्मी, दलित, पिछडी जातियों व मुस्लिम वोट लिए रोहनिया, सेवापुरी, पिंडरा, अजगरा (सुरक्षित) सीटों पर भी भाजपा के सामने 2017 का करिश्मा दोहराने की बड़ी चुनौती होगी।

अब बात गोरखपुर सहित छठे चरण की वोटिंग की तो छठे चरण में 2017 के मुकाबले 1% कम मतदान हुआ है। छठे चरण में 57 सीटों पर 55.56% मतदान हुआ जबकि 2017 में इन सीटों पर 56.52% व 2012 में 55.19% वोटिंग हुई थी। खास है कि 2017 में इन 57 सीटों पर 56.52% मतदान रहा था तो बीजेपी 46 सीटें जीती थीं जबकि बसपा 5, सपा 2 और कांग्रेस, सुभासपा, अपना दल और निर्दलीय के हिस्से एक-एक सीट आई थी। वहीं, 2012 विधानसभा चुनाव में इन 57 सीटों पर 55.19% वोटिंग हुई थी, जिनमें बीजेपी को 8, सपा को 32 बसपा को 9, कांग्रेस को 5 और अन्य को 3 सीटों पर जीत मिली थी। 2012 की तुलना में 2017 में एक प्रतिशत वोट बढ़ने से बीजेपी को 38 सीटों का फायदा हुआ था जबकि सपा को 30, बसपा व कांग्रेस को 4-4 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा था। 2007 के चुनाव में इन 57 सीटों पर करीबन 48% ही वोटिंग हुई थी तो बीजेपी को 10, सपा को 19, बसपा 21 और कांग्रेस को 5 सीटें मिली थीं। 

इस तरह से 5 साल बाद 2012 में 8% वोटिंग का इजाफा हुआ तो सपा को 13 सीटों का फायदा व बसपा को 13 सीटों का नुकसान हुआ था। गोरखपुर में 2017 में भाजपा ने 8 सीटें जीती थी लेकिन पिछली बार ब्राह्मण पूरी तरह से भाजपा के साथ थे और योगी खुद उस सीट से सांसद थे। लेकिन मुख्यमंत्री पद के दावेदार नहीं थे। इस बार वे सीएम हैं व सीएम का चेहरा भी हैं। दूसरे, ब्राह्मण नाराज हैं और उनके खिलाफ गोरखपुर सदर सीट पर समाजवादी पार्टी ने ब्राह्मण उम्मीदवार उतारा है। हालांकि बहुजन समाज पार्टी ने मुस्लिम उम्मीदवार देकर मुख्यमंत्री की मदद की है। मुख्यमंत्री चिंता में डूबे है। ऐसा प्रचार बंद होने के दिन की उनकी रैली व भाषण से लगा। वे आखिरी दिन अपने क्षेत्र में थे और लोगों से रिकॉर्ड बनाने की अपील कर रहे थे। यही सब काम अव मोदी-शाह काशी में कर रहे हैं। 

छठे चरण में 2017 से 1% वोटिंग कम यानी 2012 के आसपास मतदान रहा। वहीं, अंबेडकरनगर में 62.22%, बलिया में 53.93%, बलरामपुर में 48.73%, बस्ती में 56.81%, देवरिया में 54.60%, गोरखपुर में 56.23 फीसदी, कुशीनगर में 57.28%, महराजगंज 59.63%, संत कबीर नगर 54.39% और सिद्धार्थनगर में 50.19% मतदान रहा। देखा जाए तो पहले चरण के चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 58 सीटों पर 10 फरवरी को औसतन 62.43% मतदान हुआ था जो 2017 के 63.47% के मुकाबले एक प्रतिशत से ज्यादा कम था। 14 फरवरी को हुए दूसरे चरण के मतदान में 64.42% मतदान हुआ जो 2017 के मुकाबले 1.11% कम रहा। तीसरे चरण में 62.28% मतदान हुआ जो पिछली बार के मुकाबले 0.07% ज्यादा था। चौथे फेज में 23 फरवरी को राजधानी लखनऊ समेत प्रदेश की 59 सीटों पर औसतन 61.52% मतदान हुआ जो 2017 में हुए 62.55% से 1.03% कम रहा। पांचवें चरण में अयोध्या, प्रयागराज, अमेठी और रायबरेली समेत विभिन्न जिलों की 61 सीटों पर 57.32% मतदान हुआ। यह भी 2017 के मुकाबले लगभग बराबर रहा। छठे चरण में 55.79% मतदान हुआ। 2017 के चुनाव में इन 57 सीटों पर 56.47% मतदान हुआ था।

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