संयुक्त राष्ट्र संघ ने अल्पसंख्यकों पर हमले के लिए भाजपा नेताओं को ठहराया जिम्मेदार

Written by Sabrangindia Staff | Published on: September 15, 2018
संयुक्त राष्ट्र की एक नई रिपोर्ट ने सत्तासीन भाजपा को बेनकाब कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र में पेश की गई इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि बीजेपी के नेता अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ भड़काऊ बयान दे रहे हैं जिस वजह से मुस्लिमों और दलितों पर हमले बढ़ते जा रहे हैं। 



इस रिपोर्ट को तेंदायी एच्यूमी द्वारा तैयार किया गया है, जो यूएन में बतौर स्पेशल रिपोर्टर ऑन कंटेमपरोरी फॉर्म्स ऑफ रेसिज्म, रेसियल डिसक्रिमिशन, जेनफोबिया एंड रिलेटेड इनटोलरेंस हैं। इस पद पर नियुक्ति संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति (यूएनएचआर) की ओर से किसी स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ की ही की जाती है। इस रिपोर्ट को 2017 में  संयुक्त राष्ट्रमहासभा में के रिजोल्यूशन में तमाम देशों द्वारा जातिवाद, नस्लीय भेदभाव, विदेशी लोगों को नापसंद करने और असहिष्णुता पर दी गई रिपोर्ट के आधार पर बनाया गया है।

रिपोर्ट में एच्यूमी ने कहा कि हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी भारतीय जनता पार्टी (बीजपी) की जीत को दलितों, मुस्लिमों, आदिवासी और ईसाई समाज के खिलाफ हिंसा से जोड़ा जाता है। अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ बीजेपी नेता लगातार भड़काऊ बयान दिए जाते रहे हैं। जिससे मुस्लिम और दलितों को निशाना बनाया गया।

रिपोर्ट में कहा गया है कि लोकप्रियता की मानवाधिकारों के लिए चुनौती के सिद्धांत पर तैयार किया गया है। साथ ही कहा गया है कि असहिष्णुता को बढ़ावा देने, भेदभाव को आगे बढ़ाने से नस्लीय भेदभाव बढ़ता है और लोगों को बहिष्कार होता है। 

इस रिपोर्ट में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) का भी जिक्र किया जिसमें उन्होंने कहा है कि कई देशों में राष्ट्रवादी दल अवैध अप्रवासन मामले में प्रशासनिक सुधार लेकर आए जिसमें अधिकारिक नागरिक रजिस्टर से अल्पसंख्यक ग्रुपों को बाहर कर दिया गया है।

साथ ही लिखा गया है कि इस साल मई में  उन्होंने भारत सरकार के पत्र लिखा जिसमें उन्होंने एनआरसी का मुद्दा उठाया था।रिपोर्ट में उन्होंने असम में रहने वाले 'बंगाली मुस्लिम अल्पसंख्यकों' की समस्या का जिक्र किया जिन्हें ऐतिहासिक रूप में 'विदेशी' करार दिया जाता रहा है। 

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रिपोर्ट में आगे कहा कि चुनाव आयोग की मतदाता सूची में इन सभी लोगों को नाम शामिल है लेकिन एनआरसी से गायब है ये बेहद ही निराशाजनक है। साथ ही यह भी कहा गया कि 1997 में भी इस प्रक्रिया को अपनाया गया था। जिसकी वजह से बड़ी संख्या में असम में बंगाली मुसलमानों के अधिकार चले गए थे।

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