त्रिपुरा चुनाव : कैसे टिपरा मोथा ने बीजेपी की जीत में मदद की

Written by सुबोध वर्मा | Published on: March 7, 2023
भाजपा, चुनावी लाभ के लिए आदिवासी बनाम ग़ैर-आदिवासी लड़ाई को हवा दे रही है जिसके परिणाम ख़तरनाक हो सकते हैं।


माणिक साहा, जितेंद्र चौधरी और प्रद्योत किशोर देबबर्मा। छवि सौजन्य: ट्विटर

त्रिपुरा में, विधानसभा चुनावों के नतीजों से जो स्पष्ट संकेत मिले हैं उनके मुताबिक मौजूदा बीजेपी-आईपीएफटी गठबंधन ने 60 सदस्यीय सदन में 33 सीटें जीती हैं और उन्हे लगभग 40 प्रतिशत वोट मिला है। 2018 में उनकी सीटें 43 थी जो अब कम हो गई हैं, और वोट शेयर भी पिछली बार के 51 प्रतिशत से काफी नीचे आ गया है।

यह जीत, हालांकि, एक अशुभ घटना का संकेत देती है - भारतीय जनता पार्टी ने अपने पिछले आदिवासी सहयोगी संगठन, इंडिजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) को सौदेबाजी लायक नहीं माना, जिसकी जगह अब टिपरा मोथा ने ले ली है, जिसका नेतृत्व पूर्ववर्ती त्रिपुरा राजपरिवार के हाथ में है और जो खुले तौर पर सभी आदिवासी बहुल इलाकों को शामिल करते हुए एक नए तिप्रालैंड राज्य का समर्थन करता है। देखने में तो टिपरा मोथा ने भाजपा के खिलाफ लड़ाई लड़ी, लेकिन चुनाव परिणामों से पता चलता है कि भाजपा की जीत में मोथा का कोई छोटा योगदान नहीं था। चुनाव अभियान में, भाजपा ने मोथा के बढ़ते समर्थन के मद्देनज़र गैर-आदिवासी आबादी (मुख्य रूप से बंगालियों) की आशंकाओं पर गौर किया उनके भीतर ही सघन काम किया, जबकि मोथा ने केवल अपने आदिवासी एजेंडे पर प्रचार किया।

मोथा आदिवासी सीटों तक ही सीमित रहा 

मोथा ने बीजेपी को जीतने में कैसे मदद की, इस पर आने से पहले, सामान्य या अनारक्षित, एससी (अनुसूचित जाति) आरक्षित और एसटी (अनुसूचित जनजाति) आरक्षित तीन प्रकार की सीटों के परिणामों को देखना शिक्षाप्रद होगा। नीचे दिया गया चार्ट इन तीन प्रकार की सीटों पर तीन प्रमुख दावेदारों के वोट शेयर को दर्शाता है।

इससे पता चलता है कि टिपरा मोथा को मुख्य रूप से 20 आदिवासी आरक्षित सीटों पर समर्थन मिला, जिसमें उन्हें लगभग 45 प्रतिशत वोट मिले। इनमें से 13 सीटों पर उन्हें जीत मिली है। यह अप्रत्याशित नहीं है क्योंकि मोथा एक आदिवासी संगठन है और इसका लक्ष्य आदिवासी मतदाता थे।

हालांकि, मोथा ने अन्य अनारक्षित और एससी आरक्षित सीटों पर भी चुनाव लड़ा, उन्हे एससी सीटों पर केवल 8 प्रतिशत और अनारक्षित पर 7 प्रतिशत वोट मिले, और कोई सीट नहीं जीती। यह एक स्पष्ट संकेत है कि वह इन सीटों पर गंभीर दावेदार नहीं था। इन दो किस्म की सीटों पट मुख्य लड़ाई भाजपा और वाम-कांग्रेस गठबंधन के बीच थी, जैसा कि उनके संबंधित वोट शेयरों से देखा जा सकता है। 30 सामान्य सीटों पर, बीजेपी को लगभग 46 प्रतिशत वोट मिले और 19 सीटों पर जीत हासिल की, जबकि वाम-कांग्रेस गठबंधन को 41 प्रतिशत वोट मिले और 11 सीटें जीतीं। अनुसूचित जाति समुदाय के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित 10 सीटों में, भाजपा को 46 प्रतिशत से अधिक वोट मिले और उसने सात सीटों पर जीत हासिल की, जबकि वामपंथी गठबंधन को 43 प्रतिशत वोट मिले और तीन सीटें जीती।

गैर-आदिवासी सीटों में मोथा की भूमिका

इन 40 गैर-आदिवासी सीटों में बीजेपी को जिताने में टिपरा मोथा की भूमिका छिपी नहीं है।  12 सामान्य सीटें और चार एससी आरक्षित सीटें ऐसी हैं, जिनमें टिपरा मोथा को जीते हुए भाजपा उम्मीदवार और दूसरे स्थान पर रहे वाम-कांग्रेस उम्मीदवार के अंतर से अधिक वोट मिले हैं। इन निर्वाचन क्षेत्रों के नाम, बीजेपी उम्मीदवारों के जीत के अंतर और टिपरा मोथा को मिले वोटों का सारांश नीचे दी गई तालिका में दिया गया है। नीचे दिए गए डेटा को भारत के चुनाव आयोग द्वारा घोषित परिणामों से तैयार किया गया है।

यह पूछा जा सकता है कि क्या यह मान लेना सही है कि टिपरा मोथा का वोट वामपंथी गठबंधन को गया होता। इसका उत्तर यह है कि यह मानना उचित होगा कि इन वोटों का बड़ा हिस्सा वामपंथी गठबंधन को मिलता क्योंकि: 1) टिपरा मोथा इन सीटों पर कोई गंभीर दावेदार नहीं था और उन्हें मिले वोट उन्हें जीतने कतई भी प्रर्याप्त नहीं थे; और 2) टिपरा मोथा बीजेपी के खिलाफ चुनाव लड़ रही थी और सार्वजनिक तौर पर इसकी आलोचना कर रही थी, मौजूदा समय में बीजेपी के खिलाफ व्यापक सार्वजनिक असंतोष था और इसलिए मोथा को वोट देने वाले ज्यादातर बीजेपी के खिलाफ मतदान करते। प्रभावी रूप से, मोथा ने विपक्ष से वोटों का एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण हिस्सा छीन लिया और इस तरह बीजेपी को जीतने में मदद की।

यही तर्क आदिवासी आरक्षित सीटों तक क्यों नहीं जाता है? क्योंकि उन 20 सीटों में बीजेपी के खिलाफ खुद टिपरा मोथा ही मुख्य दावेदार थीं- वो विपक्षी वोटों को 'काट' नहीं रही थीं, बल्कि वो खुद विपक्ष थीं। इसलिए इस तर्क को केवल अनारक्षित (सामान्य) सीटों और अनुसूचित जाति की आरक्षित सीटों पर ही लागू करना उचित है।

परदे के पीछे की व्यवस्था?

यह निष्कर्ष निकालना अवास्तविक नहीं होगा कि इन अनारक्षित और एससी आरक्षित सीटों पर मोथा ने भाजपा के साथ किसी तरह का समझौता या व्यवस्था की थी। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, 25 जनवरी की देर रात तक नई दिल्ली में बीजेपी और मोथा नेताओं के बीच उच्च स्तरीय बातचीत हुई थी। लेकिन, कथित तौर पर, भाजपा के शीर्ष नेता मोथा द्वारा उठाई गई ग्रेटर तिप्रालैंड की मांग पर लिखित आश्वासन देने से कतरा रहे थे। इसे एक अनौपचारिक या परदे के पीछे की व्यवस्था के रूप में भी देखा जा सकता है जो भाजपा को मोथा की मांगों के साथ समझौता करने की अस्वीकार्य स्थिति में नहीं डालती है।

2 मार्च को परिणाम घोषित होने के बाद, मोथा सुप्रीमो और शाही वंशज प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा ने अपने झुकाव को तब और साफ कर दिया, जब उन्होंने कथित तौर पर मीडिया को बताया कि टिपरा मोथा रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाएगा और नई विधान सभा में सीपीआई (एम) या कांग्रेस के साथ कोई गठबंधन नहीं करेगा।  

देबबर्मा ने कहा कि, "हम दूसरी सबसे बड़ी पार्टी हैं इसलिए हम रचनात्मक विपक्ष के रूप में काम करेंगे लेकिन सीपीएम या कांग्रेस के साथ नहीं बैठेंगे। हम स्वतंत्र रूप से बैठ सकते हैं। जब भी जरूरत होगी हम सरकार की मदद करेंगे।"

देबबर्मा के पहले के ख़्याल भी, कम्युनिस्ट विरोधी ताकतों के साथ जुडने के उनके स्वाभाविक झुकाव की ओर इशारा करते हैं। उनका परिवार - त्रिपुरा के तत्कालीन शासक - स्वतंत्रता से पहले से ही राज्य में कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रति शत्रुतापूर्ण थे। उनका दशकों तक कांग्रेस के साथ गठबंधन रहा और मुख्य राजनीतिक लड़ाई हमेशा सीपीआई (एम) के साथ थी, जिसका आदिवासियों के बीच मजबूत आधार था। वास्तव में, सीपीआई (एम) एकमात्र पार्टी के रूप में उभरी थी जिसने त्रिपुरा में सभी वर्गों के लोगों - आदिवासियों के साथ-साथ गैर-आदिवासियों को सफलतापूर्वक एकजुट किया था। इसलिए, देबबर्मा के लिए खुले तौर पर या गुप्त रूप से भाजपा के साथ गठबंधन करना, जो अब राज्य में कम्युनिस्टों के खिलाफ है, अकल्पनीय नहीं है।

घटनाओं के इस मोड़ में, भविष्य के लिए खतरनाक संकेत नज़र आते हैं क्योंकि आदिवासी भूमि को लेकर किसी भी किस्म की अलगाववादी मांग, बंगालियों और आदिवासियों के बीच के विभाजन को ओर गहरा कर देगी, जो 1990 के दशक की शुरुआत तक त्रिपुरा में हिंसा और रक्तपात की याद दिलाती है। वाम मोर्चा ने न केवल लोगों के विभिन्न वर्गों के बीच सद्भाव क़ायम किया था, बल्कि हिंसक अलगाववादी आंदोलनों को सफलतापूर्वक रोकने में कामयाव रहा था, जिसके परिणामस्वरूप अंततः एएफएसपीए (AFSPA) या सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम को वापस लिया गया था और राज्य का विसैन्यीकरण हुआ था। ऐसी आशंकाएं हैं कि अगर संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए मौजूदा विभाजनों हवा दी गई तो रक्तपात के वे दिन वापस आ सकते हैं।

अनुवाद- महेश कुमार 
साभार - न्यूजक्लिक

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