पानी को सहेजने की परम्परा - राजकुमार सिन्हा

Written by Raj Kumar Sinha | Published on: September 9, 2023
इंसान के जिन्दा रहने के लिए हवा, पानी और भोजन अनंत बुनियादी जरूरतें हैं और इसीलिए आजकल के व्यापार-धंधे में इन जिन्सों की भारी पूछ-परख है। इन तीनों में से सिर्फ पानी को ही देखें तो क्या पता चलता है? आखिर तरह-तरह के धतकरम पानी को बिकाऊ माल में तब्दील करने की खातिर नहीं हो रहे हैं? प्रस्तुत है, इसी की पड़ताल करता राजकुमार सिन्हा का यह लेख।-संपादक



धरती पर पानी की कुल मात्रा लगभग 13,100 लाख घन किलोमीटर है। इस पानी की लगभग 97 प्रतिशत मात्रा समुद्र में खारे पानी के रूप में और लगभग तीन प्रतिशत मात्रा (390 लाख घन किलोमीटर) साफ या स्वच्छ पानी के रूप में धरती पर अनेक रूपों में मौजूद है। इस साफ पानी का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा धरती के ऊपर और लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा धरती के नीचे विभिन्न गहराइयों में मिलता है। भारत की धरती पर पानी की मात्रा 4000 लाख हेक्टेयर मीटर आंकी गई है तथा भूजल भंडार की मात्रा 396 लाख हेक्टेयर मीटर है।
 
इस सबके बावजूद जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व में लगभग तीन अरब लोग जल संकट की चपेट में हैं। ‘नीति आयोग’ के अनुसार 2030 तक भारत के 40 प्रतिशत लोगों की पहुंच पीने के पानी तक नहीं होगी। देश में 15 वर्ष पहले 15 हजार नदियां और 75 साल पहले 30 लाख कुएं, तालाब और झील थे जिनमें से 4500 नदियां सूख गई और 20 लाख कुएं, तालाब और झील गायब हो गए।
 
पाताल में प्रतिवर्ष जा रहे 120 घन किलोमीटर भूगर्भीय जल के बदले प्रतिवर्ष लगभग 190 घन किलोमीटर जल निकाला जाता है। यानि वर्षा आदि से भूमि के अंदर जाने वाले और निकाले जाने वाले पानी में 70 घन किलोमीटर का अंतर रह जाता है। मध्यप्रदेश में हर साल भूजल करीब 4 इंच नीचे जा रहा है। पिछले 10 साल में 40 इंच यानि सवा तीन फीट तक नीचे जा चुका है। यह इसलिए कि पानी क्षमता से ज्यादा निकाला जा रहा है, लेकिन रीचार्जिंग पर ध्यान नहीं है, जबकि प्रदेश की जमीन में 75 लाख घन मीटर (एमसीएम) पानी को समाने की क्षमता है।
 
भारत की जलनीति में पानी के उपयोग की प्राथमिकताओं का उल्लेख तो है, परन्तु विभिन्न कामों में लाए जाने वाले पानी की सीमाओं का उल्लेख नहीं है। नतीजे में हर साल करीब 90 खरब लीटर पानी बिना उपयोग के बह जाता है। भूजल विशेषज्ञ जॉन शेरी (2020 के ‘स्टॉकहोम वाटर प्राइज’ के विजेता) के शब्दों में ‘भूजल पृथ्वी की रक्षा प्रणाली है।’
 
जाहिर है, ऐसे में प्रकृति के प्रसाद की तरह मुफ्त मिलने वाला पानी बिकाऊ माल में तब्दील हो रहा है। पीने के पानी का कारोबार 1.80 लाख करोङ रुपए का हो गया है जो अगले कुछ सालों में 4.5 लाख करोङ रुपए का हो जाएगा। बोतलबंद पानी में सर्वाधिक 40 प्रतिशत हिस्सेदारी अकेले बिसलेरी की है। जैसे-जैसे बोतलबंद पानी का बाजार बढ रहा है, कम्पनियां भूजल दोहन, भूमि उपयोग, प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन, कार्बन उत्सर्जन आदि को प्रभावित कर रही हैं।
 
 ऐसा नहीं है कि हमारे पूर्वज पानी के मामले में लापरवाह थे। गोंडकाल में अधिकांश लोगों की आजीविका का आधार खेती और उससे जुड़ी सहायक गतिविधियाँ थीं, लेकिन गौंड राजाओं द्वारा बनाए गए अधिकांश तालाब नहर-विहीन थे। इसका मतलब है कि तालाबों का उपयोग आधुनिक तरीके से खेतों की सिंचाई के लिए नहीं, बल्कि मुख्यतः नमी और भूजल स्तर बढ़ाने, जलवायु का संतुलन कायम रखने, पेयजल स्रोतों को भरोसेमंद बनाए रखने,आजीविका  (मछली, सिंघाङा, कमलगटटा और खेती) को स्थायित्व प्रदान करने के लिए होता था। मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर, जबलपुर, सागर और दमोह जिलों की गहरी काली मिट्टी में नमी संचित करने और इसी आधार पर रबी में बिना सिंचाई बढिया फसल लेने की देशज व्यवस्था प्रचलित थी।
 
कहते हैं कि पौराणिक राजा विराट ने मण्‍डला जिले के मवई इलाके में अधिकांश तालाब बनवाए थे। इस मामूली से कस्बे में 150 तालाबों का जिक्र तो अंग्रेजों के गजेटियर में भी मिलता है। बैगाओं की खास जीवन शैली, खेती- पाती और समाज व्यवस्था को देखते हुए अंग्रेजों ने 19 वीं शताब्दी में उन्हें एक खास इलाका ‘बैगाचक’ बनाकर उसमें बसाया था। बैगा एक तरह से घुमंतू समाज के लोग रहे हैं इसलिए पानी का उनका साधन हर साल नदी-नालों के किनारे झिरिया खोदकर ही रहा है। इन झिरियों के किनारे ही बैगाओं की संस्कृति, समाज फला-फूला है।
    
भारतीय संविधान में पानी के मामले में केन्द्र और राज्य सरकारों के दायित्वों को रेखांकित किया गया है और अन्तर्राज्यीय नदियों के संचालन एवं विकास का उल्लेख किया गया है, परन्तु इस पूरी इबारत में समाज का कोई उल्लेख नहीं है। इसी तरह जलनीति में पानी के उपयोग का नियोजन और क्रियान्वयन की प्राथमिकताओं का जिक्र है पर इसमें से समाज गायब है।
 
अर्थव्यवस्था में भूमंडलीकरण के बाद 1999 में विश्वबैंक ने भारत में पानी के परिदृश्य पर एक रिपोर्ट तैयार की थी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत आने वाले दिनों में जल प्रबंधन की चुनौतियों का मुकाबला नहीं कर सकेगा। इसलिए आवश्यक है कि वह विश्वबैंक द्वारा सुझाई तकनीक का पालन करे। लोग मानते हैं कि भारत की ‘राष्ट्रीय जलनीति 2002’ में निजीकरण का उल्लेख विश्वबैंक की इसी रिपोर्ट के बाद आया। विश्वबैंक जैसी अन्तराष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों के प्रभाव में दुनियाभर में नीतिगत बदलाव हुए हैं। भारत में भी तकनीकी सहायता के कारण जलक्षेत्र में बङे नीतिगत बदलाव किए गए हैं जिससे जलप्रदाय व्यवस्था के परिदृश्य में आमूलचूल बदलाव आया है।
 
इस नीति का एक प्रभाव ‘छोटे तथा मझौले नगरों की अधोसंरचना विकास योजना’ (यूआईडीएसएसएमटी) के तहत मध्यप्रदेश की खंडवा और शिवपुरी की जलप्रदाय योजनाओं को ‘पीपीपी’ (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशीप) माडल के तहत निजी कंपनियों को सौंपा जाना है। इन योजनाओं में लगने वाला 90 प्रतिशत धन देश की जनता का है, लेकिन छोटा निवेश करने वाली कंपनियों को मालिक बना दिया गया है जिसे स्थानीय समुदाय ने स्वीकार नहीं किया है।
 
अब इस योजना को समाप्त कर ‘मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना’ बनाई गई है। 2013 में प्रदेश सरकार ने ‘मध्यप्रदेश जल विनियमन कानून’ पारित किया था। इस कानून के तहत बनने वाला ‘जल नियामक आयोग’ प्रदेश में पानी का बाजारू उपयोग निर्धारित करेगा। समुदाय की आर्थिक हैसियत बिजली की तरह जलक्षेत्र को भी उनकी पहुंच से दूर कर देगी।
 
वैश्विक आर्थिक संकट का लाभ उठाते हुए अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थान पानी के निजीकरण पर जोर दे रहे हैं। ग्रीस, पुर्तगाल, इटली और आयरलैंड में इन प्रयासों का तीव्र विरोध हुआ, जिससे उन्हें पीछे हटने के लिए मजबूर होना पङा है। यह संघर्ष बोलिविया के कोचाबाम्बा और अमेरिका के अटलांटा में पानी के निजीकरण के खिलाफ हुए संघर्ष की तरह सफल हुआ है। 
 
ऐसे में पानी सरीखे बुनियादी संसाधन को लेकर क्या किया जाए? अव्वल तो जलस्रोतों को चिन्हित करके उनके संरक्षण, प्रबंधन के लिये ग्रामसभा में चर्चा कर इसकी जिम्मेदारी गांव समिति को दी जाए। दूसरे, समाज के पारम्परिक जल संरक्षण, प्रबंधन और नियंत्रण के तरीके के लिए गांव स्तर के अध्ययन दलों का गठन किया जाए। तीसरे, पास के नदी-नाले के पानी को बरसात में रोकने हेतु बोरी बंधान या अन्य उपाय किए जाएं और चौथे, वर्षा जल को रोकने के लिए गांव के आसपास जल संचय व्यवस्था कायम की जाए। संभव है, इन उपायों से हम अपने पानी को लंबे समय तक बचा पाएं। (सप्रेस)

राजकुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित संघ के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता हैं।

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