प्रधानी का चुनाव लड़, इतिहास रचेंगी थारू आदिवासी महिलाएं- सहवनिया, अनीता और निवादा राणा

Written by Navnish Kumar | Published on: April 19, 2021
कहावत है कि संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता। बल्कि संघर्ष से मिली ऊर्जा और हौसला, लोगों के लिए लड़ने और आगे बढ़ने की चाह और राह दोनों को आसान बना देता है। यही कहानी है वनाधिकार आंदोलन से निकली लखीमपुर खीरी की थारू आदिवासी महिलाओं सहवनिया, अनीता और निवादा राणा की। जो सामान्य सीट होने के बावजूद प्रधानी के चुनाव में कूद पड़ी हैं। इन आदिवासी महिलाओं का कहना है कि ग्राम प्रधान, पुरुष होता है तो महिलाओं की बात को तवज्जो नहीं मिलती है। इसलिए प्रधानी जीतकर वह अपने गांवों को विकास के रास्ते, देश और दुनिया से जोड़ने का काम करेंगी। बिजली सड़क, पानी की बुनियादी सुविधाओं के साथ शिक्षा स्वास्थ्य और महिला सुरक्षा उनकी प्राथमिकता होगी। खास है कि वन क्षेत्रों में बसे थारू आदिवासी गांव, न सिर्फ विकास से कोसों दूर है बल्कि देश और दुनिया से भी कटे हुए हैं।



अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन से जुड़ी और लंबे समय से वनाधिकार के लिए संघर्षरत तीनों आदिवासी महिलाओं के हौसले से संगठन (यूनियन) भी गदगद है। तीनों के उज्ज्वल भविष्य और जीत की कामना करते हुए यूनियन की राष्ट्रीय उप महासचिव रोमा कहती हैं कि थारू (आदिवासी) महिलाएं चुनाव लड़ रही हैं, यही अपने आप में बहुत बड़ी बात है। जीतेंगी तो इतिहास लिखेंगी। आजादी के 74 साल बाद भी समाज की मुख्य धारा से कटे थारुओं के लिए भी यह गौरव की बात है। रोमा कहती हैं कि यह थारू महिला शक्ति ही है जिसने वनाधिकार की लड़ाई लड़ी और 2011 में वन विभाग से सूरमा गांव को आजाद कराया। सहवनिया, अनीता व निवादा तीनों वनाधिकार आंदोलन की हीरो हैं। संगठन और संघर्ष की नेतृत्वकर्ता और समाज की अगुवा हैं। वह तीनों जरूर जीतेंगी। 

सिटीजन फ़ॉर जस्टिस एंड पीस की राष्ट्रीय सचिव व मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ भी इन थारू महिलाओं के हौसले और जज्बे को सलाम करती हैं और जीत की अग्रिम बधाई देती हैं। तीस्ता कहती हैं कि अक्सर आरक्षित महिला सीट पर आपने महिलाओं को ही प्रधानी चुनाव लड़ते देखा व सुना होगा लेकिन आदिवासी थारू समुदाय की ये तीनों महिलाएं अनारक्षित (सामान्य) सीट पर प्रधानी चुनाव लड़ रही हैं। अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी इसे संगठन और (वनाधिकार) आंदोलन की असली पूंजी बताते हैं। चौधरी के अनुसार, महिलाओं का यही आत्मविश्वास है जिसकी बानगी वनाधिकार आंदोलन के साथ-साथ, अब जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी देखने को मिल रही हैं। लिहाजा जीत के लिए हौसला अफजाई तो बनती ही है।

अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य और सालों से लखीमपुर में रहकर थारुओं के साथ काम करने वाले रजनीश कहते हैं-
''उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव में नेपाल से सटे तराई क्षेत्र (पलिया, लखीमपुर खीरी) के थारू समुदाय के 46 गावों में इन तीनों महिलाओं की खूब चर्चा है। वजह साफ है। ये तीनों महिलाएं अनारक्षित सीट पर ग्राम प्रधान पद की उम्मीदवार हैं और प्रधानी चुनाव जीतकर अपनी-अपनी पंचायत में विकास के नये अध्याय लिखने का भरोसा लोगों को दिला रही हैं। ये अपनी अपनी ग्राम पंचायतों में चौपाल लगाकर लोगों को बता रही हैं कि ये ग्राम प्रधान का चुनाव जीतने के बाद ग्राम पंचायत में जो भी काम करेंगी उसका निर्णय पंचायत के लोग लेंगे। इन तीनों उम्मीदवारों की पंचायत के लोग इन्हें चंदा इकट्ठा करके चुनाव लड़ा रहे हैं ताकि ये जागरूक महिलाएं पंचायत में विकास कर सकें।''

संरक्षित वन क्षेत्र में स्थित सूरमा गांव से प्रत्याशी 24 वर्षीय सहवनिया राणा अपने प्रचार में लोगों से कहती हैं कि पंचायत में कौन-कौन से काम होंगे? ये आप लोग तय करेंगे। अगर हम जीत गये तो कहने को हम प्रधान होंगे, लेकिन पंचायत का हर काम आपकी मर्जी से होगा।

चार माजरों की सूरमा पंचायत यूपी के सबसे बड़े जिले लखीमपुर खीरी जिला मुख्यालय से लगभग 100 किलोमीटर दूर पलिया ब्लॉक में है। ये गांव चारों तरफ से जंगलों से घिरा हुआ है, इसके चार माजरे सिकलपुरा, गुबरौला, सारभूसी और भट्ठा एक दूसरे से पांच छह किलोमीटर की दूरी पर बसे हैं। सहवनिया कहती हैं कि हमारे कॉलेज दूर हैं इसलिए लड़कियां ज्यादा पढ़ नहीं पातीं, मैं स्नातक हूं यानि यहाँ के लिए सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़की। सब मेरे ऊपर भरोसा करते हैं, इन्ही सब लोगों ने कहा कि जब आप हमारी मदद करती हो तो चुनाव लड़ जाओ', इसलिए खड़ी हो गयी हूँ।" सूरमा पंचायत के लोगों ने सहवनिया को न केवल चुनाव में खड़ा करने के लिए प्रेरित किया बल्कि सबने थोड़ा-थोड़ा चंदा भी दिया जिससे वो इस चुनाव का खर्च उठा सके।

दूसरी सूड़ा ग्राम पंचायत से प्रधान उम्मीदवार निवादा राणा भी आत्मविश्वास से लबरेज हैं। सूड़ा ग्राम पंचायत में 900 वोटर हैं। 40 वर्षीय निवादा राणा अपनी पारंपरिक पोशाक पहने थीं। निवादा राणा कहती हैं कि गांव की सास, ननद, जेठानी ने हमें चुनाव में खड़े होने के लिए बोला है। इनका बल पाकर हम खड़े हो गये, इनको हमसे बहुत उम्मीदें हैं। जब प्रधान पुरुष होता है तो महिलाओं की बात को तवज्जो नहीं मिलती। महिला होकर हम इन महिलाओं की बात को समझेंगे और इनकी उम्मीदों पर खरा उतरेंगे। निवादा भी अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन से जुड़कर कई वर्षों से अपने क्षेत्र के लोगों को जल, जंगल और जमीन के प्रति जागरूक कर रही हैं। 

निवादा अपने माथे पर बने निशान को दिखाते हुए बताती हैं, "जनवरी 2012 में जंगल से लकड़ी लेने गये थे तभी एक पुलिस अधिकारी ने उनके सर पर डंडे से मार दिया। माथे का निशान अभी तक नहीं गया। जब-जब इसे देखती हूं लगता है अपने लोगों के लिए कुछ करना है। 2012 में इस चोट की इलाज के लिए वह पहली बार जिला अस्पताल गई थी। हमारे गाँव की ऐसी दर्जनों महिलाएं और लड़कियाँ होंगी, जिन्होंने इस जंगल के बाहर की दुनिया नहीं देखी है।

अनीता पूर्व में भी प्रधान रह चुकी हैं और इस बार भी भूड़ा गांव से चुनाव में उम्मीदवार बनी हैं। 45 वर्षीय अनीता राना कहती हैं कि ये जंगल क्षेत्र है, यहां आवागमन के पर्याप्त साधन नहीं है। एम्बुलेंस तक यहां नहीं मिलती हैं। अनीता कहती हैं, "थारुओं की एक परंपरा बहुत खराब है। हमारे यहां अगर किसी के साथ रेप या छेड़छाड़ हो जाए तो लोग जल्दी थाने नहीं जाते। गांव में ही पंचायत लगती है। ग्राम प्रधान दोनों पक्षों को बैठाकर उनकी समस्या सुनते और आरोपी पर कुछ जुर्माना लगाकर मामला रफा-दफा कर देते हैं। ये हमें बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। दूसरा, जब हमारे घर के आदमी जंगल में लकड़ी लेने जाते हैं या जानवर चराने, कई बार वन विभाग के अधिकारी उन्हें पकड़ कर जेल में डाल देते हैं, मारपीट करते हैं जुर्माना लगाते हैं। ये सब कुछ बदलना हैं। 

तीनों महिला उम्मीदवार मानती हैं कि आज वह अपने हकों को लेकर जागरूक हैं तो इसका श्रेय यूनियन (संगठन) को जाता हैं। कहा हमारे सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों और प्रचलनों ने परंपरागत रूप से सामुदायिक निर्णय प्रक्रिया में औरतों को भाग लेने से रोका है और उन्हें औपचारिक और प्रथागत कानूनों के तहत समान विरासत और संपत्ति अधिकारों से वंचित रखा है। लेकिन वनाधिकार कानून-2006 ऐसे चंद प्रगतिशील कानूनों में एक है जो वन अधिकारों को मान्यता देने के मामले में इस ऐतिहासिक नाइंसाफी को खत्म कर लैंगिक समानता को मुख्यधारा में शामिल करने की कोशिश करता है। और यह कानून यूनियन (संगठन) के सालों के साझे संघर्ष और जागरूकता का ही परिणाम है।

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