भारतीय निर्वाचन आयोग से एनएपीएम ने मांग की है कि बिहार में चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण की बेतुके, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक प्रक्रिया को तुरंत रोके।

फोटो साभार : द हिंदू
बिहार में मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने में अब 100 दिन से भी कम समय बचा है। अगले कुछ दिनों में चुनाव के तारीखों का एलान कर दिया जाएगा लेकिन इस बार का बिहार एक अलग तस्वीर पेश कर रहा है। स्वायत्त और संवैधानिक संस्था भारतीय चुनाव आयोग ने 25 जून से राज्य में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) शुरू करने का निर्णय लिया है। यह प्रक्रिया ऐसे समय शुरू की गई है जब चुनाव महज़ कुछ महीने दूर हैं, और इससे लाखों बिहारवासियों के मताधिकार पर अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे हैं।
द मूकनायक की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय निर्वाचन आयोग से एन.ए.पी.एम (National Alliance of People’s Movements (NAPM) ने मांग की है कि बिहार में चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण की बेतुके, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक प्रक्रिया को तुरंत रोके। इसके बदले, अपनी संवैधानिक जवाबदेही सुनिश्चित करते हुए, चुनाव आयोग एक पारदर्शी और समावेशी मतदाता पंजीकरण अभ्यास करें, जो सभी भारतीयों के मताधिकार के लिए सुविधाजनक हो। हम सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह करते हैं कि वह इस पूरी प्रक्रिया की संवैधानिकता पर समय रहते हुए, न्यायपूर्ण और समग्र दृष्टिकोण अपनाए तथा भारत निर्वाचन आयोग को निर्देश दे कि वह ऐसा कुछ न करे जिससे लाखों नागरिकों के मताधिकार का हनन हो।
मतदाता अधिकारों का उल्लंघन करने वाले एक गंभीर और दुर्भावनापूर्ण कदम के तहत, भारतीय चुनाव आयोग ने बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) की प्रक्रिया को जल्दबाजी में अंजाम दिया, जिसके परिणामस्वरूप विधानसभा चुनाव से ठीक पहले लगभग 65 लाख मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से हटा दिए गए। इस व्यापक और विवादास्पद कार्रवाई के बावजूद, आयोग ने न केवल हटाए गए नामों की सूची जारी करने से इनकार कर दिया, बल्कि हटाने के कारणों को सार्वजनिक करने से भी इंकार किया।
हालांकि, पिछले महीने सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर संज्ञान लेते हुए आयोग को स्पष्ट निर्देश दिए। न्यायालय ने कहा कि हटाए गए मतदाताओं की सूची, हटाने के कारणों सहित, सार्वजनिक की जाए और उसे सभी उपलब्ध माध्यमों से प्रचारित किया जाए। साथ ही, न्यायालय ने यह भी आदेश दिया कि प्रभावित लोग यदि अपील करते हैं, तो उनके आधार कार्ड और मतदाता पहचान पत्र को पहचान के वैध दस्तावेज के रूप में स्वीकार किया जाए।
यह आदेश न केवल मतदाताओं के अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय की उस दृष्टिकोण की भी पुष्टि करता है, जिसके अनुसार: यदि SIR प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर नाम हटाए जाते हैं, तो न्यायालय इसमें हस्तक्षेप करेगा, और मतदाता सूची के पुनरीक्षण की मूल भावना "बहिष्कार" नहीं, बल्कि "समावेशन" (inclusion) होनी चाहिए।
नेशनल अलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट्स (NAPM) ने न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाला बागची की पीठ द्वारा पारित इस अंतरिम आदेश का स्वागत किया है और इसे मतदाताओं के अधिकारों की दिशा में एक सकारात्मक व न्यायसंगत पहल बताया है।
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद चुनाव आयोग को अंततः हटाए गए मतदाताओं की सूची सार्वजनिक करने के लिए मजबूर होना पड़ा। हालांकि आयोग ने यह दावा किया है कि उसे मतदाता सूची में शामिल98% लोगों के दस्तावेज प्राप्त हो चुके हैं, लेकिन इन दावों की पृष्ठभूमि में व्यापक अनिश्चितता और अव्यवस्था नजर आती है। रिपोर्टर्स द्वारा जांच में यह भी सामने आया है कि SIR के मसौदे में प्रक्रियात्मक खामियां और लापरवाहियां व्यापक स्तर पर मौजूद हैं। अब, आयोग के चुनाव अधिकारियों के पास 25 सितंबर तक का समय है, जिसके भीतर उन्हें प्राप्त दस्तावेजों का सत्यापन कार्य पूरा करना है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हटाए गए मतदाताओं की सूची सार्वजनिक करने का आदेश दिए जाने के बाद, चुनाव आयोग द्वारा आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुख्य चुनाव आयुक्त की प्रतिक्रिया ने गंभीर चिंताएं पैदा कर दीं। स्पष्ट और तथ्यपरक जवाब देने के बजाय, उसने एक सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ता की तरह व्यवहार करते हुए विपक्ष पर हमला बोला। इस अभूतपूर्व रवैये ने न केवल लोकतांत्रिक प्रक्रिया की निष्पक्षता पर सवाल खड़े किए हैं, बल्कि एक स्वायत्त संवैधानिक संस्था के रूप में चुनाव आयोग की साख और निष्पक्षता को भी गहरी ठेस पहुंचाई है।
एस.आई.आर और भारत में नागरिकता का राजनीतिकरण
1 अगस्त, 2025 तक, पहले की 7.9 करोड़ मतदाताओं की सूची से लगभग65 लाख नाम हटा दिए गए हैं। इस बड़े पैमाने पर की गई कार्रवाई के बावजूद, चुनाव आयोग ने पारदर्शिता और बुनियादी मानवीय गरिमा की पूरी तरह से अनदेखी करते हुए यह बताने से इनकार कर दिया कि किन लोगों के नाम हटाए गए और क्यों। यह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में पहला ऐसा मतदाता पुनरीक्षण है, जिसमें न केवल लाखों नाम हटाए गए, बल्कि एक भी नया नाम सूची में जोड़ा नहीं गया। यह तथ्य न केवल चिंताजनक है, बल्कि यह सोचने पर मजबूर करता है कि जब आयोग दावा करता है कि उसके हजारों चुनावी अधिकारी राज्य के प्रत्येक घर तक पहुंचे, तो फिर उन्हें एक भी नया मतदाता कैसे नहीं मिला?
भारत सरकार के आधिकारिक अनुमानों के अनुसार, बिहार में वयस्क आबादी लगभग 8.18 करोड़ है- यह आंकड़ा प्रवासन जैसे सामाजिक-आर्थिक कारकों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। स्वाभाविक रूप से, मतदाता सूची में दर्ज कुल मतदाताओं की संख्या इस अनुमान के आस पास होनी चाहिए। हालांकि, चुनाव आयोग द्वारा प्रकाशित मसौदा विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) सूची में केवल 7.24 करोड़ मतदाताओं के नाम शामिल हैं, जो लगभग 94 लाख वयस्कों के संभावित बहिष्कार की ओर इशारा करता है। यह न केवल असामान्य है, बल्कि चिंताजनक भी - और यह भारत के स्वतंत्र इतिहास में पहली बार हुआ है कि चुनाव आयोग ने नागरिकों से स्वयं को मतदाता साबित करने के लिए फॉर्म और दस्तावेज जमा करने की मांग की है। SIR की प्रक्रिया के दूसरे चरण में, चुनाव अधिकारी प्राप्त दस्तावेजों के आधार पर लोगों की मतदाता के रूप में पात्रता का निर्णय लेंगे। यहीं पर एक गुप्त और विवादास्पद श्रेणी - "बीएलओ द्वारा अनुशंसित नहीं" (Not Recommended by BLO) - लागू होती है, जिसके अंतर्गत अधिकारी व्यक्तिगत विवेक से नाम हटाने का निर्णय ले सकते हैं। चिंता की बात यह है कि चुनाव आयोग ने अब तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि इस गोपनीय श्रेणी में कितने लोगों को शामिल किया गया है। इसका सीधा मतलब यह है कि आने वाले हफ्तों में और भी नाम मतदाता सूची से हटाए जा सकते हैं।
सीमित सूचना, अपील दायर करने और उसका अनुसरण करने के लिए आवश्यक संसाधनों की कमी, और मतदाता सूची के अंतिम रूप से पहले (सितंबर के अंत तक) उपलब्ध समय की बेहद कम अवधि- इन सभी कारणों से यह पूरी प्रक्रिया, काफी संभावना है कि, लाखों लोगों को उनके मताधिकार से वंचित कर देगी। इसका सबसे गहरा प्रभाव उन वर्गों पर पड़ने की आशंका है जो पहले से ही जाति, लिंग, धर्म और अन्य सामाजिक आधारों पर हाशिये पर हैं।
24 जून 2025 तक, मतदाताओं का पंजीकरण करना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी थी। लेकिन 25 जून से यह जिम्मेदारी स्वयं मतदाताओं पर डाल दी गई।इसके साथ ही, चुनाव आयोग ने मतदाता पंजीकरण के लिए ऐसे मानदंड अपनाए, जो प्रभावी रूप से इस प्रक्रिया को एक प्रकार के नागरिकता परीक्षण में बदल देते हैं। सबसे विवादास्पद निर्णय यह रहा कि आयोग ने फरमान जारी किया है कि जो व्यक्ति 2003 की मतदाता सूची में शामिल नहीं थे, विशेष रूप से 18 से 40 वर्ष की आयु के नागरिक, उन्हें फिर से पंजीकरण कराना होगा। आयोग के अनुसार, 2003 को आधार वर्ष इसलिए चुना गया क्योंकि उस वर्ष एक विशेष गहन पुनरीक्षण किया गया था, जिसमें सूची में शामिल लोगों को भारतीय नागरिक के रूप में सत्यापित किया गया था।
फिर भी, जब जवाबदेही कार्यकर्ताओं ने सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम के तहत चुनाव आयोग से 2003 के आदेश की प्रति मांगी, तो उन्हें केवल 24 जून 2025 के आदेश की प्रति प्रदान की गई।
इस बीच, 2003 के पुनरीक्षण में शामिल रहे पूर्व चुनाव आयोग अधिकारियों ने मीडिया को जानकारी दी है कि उस समय घर-घर जाकर मतदाता सत्यापन अवश्य किया गया था, लेकिन नागरिकता का प्रमाण मांगे जाने की कोई शर्त नहीं थी। उन अधिकारियों ने स्पष्ट किया कि गणना कर्मियों को नागरिकता का निर्धारण करने का निर्देश नहीं दिया गया था। इस संदर्भ में, सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया है कि वह 2003 के पुनरीक्षण अभ्यास में किस प्रकार के दस्तावेज स्वीकार किए गए, इसका पूरा विवरण प्रस्तुत करे। इसके अलावा, भले ही आयोग ने अदालत में दावा किया कि एसआईआर एक स्वतंत्र मूल्यांकन पर आधारित था, लेकिन जब आरटीआई अनुरोधों के माध्यम से यही माँगा गया तो उसने ऐसे किसी भी मूल्यांकन या अध्ययन की प्रतियाँ प्रदान नहीं कीं। यह आयोग की विश्वसनीयता को गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाता है। आरटीआई अनुरोधों के प्रति इस तरह के टालमटोल वाले जवाब और बिना किसी पूर्व परामर्श या अध्ययन के काम करना यह दर्शाता है कि आयोग मनमाने और अपारदर्शी तरीके से काम कर रहा है।
जो लोग 2003 की मतदाता सूची में शामिल नहीं हैं, उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने के लिए चुनाव आयोग को एक घोषणा पत्र के साथ ग्यारह निर्धारित दस्तावेजों में से कम से कम एक दस्तावेज प्रस्तुत करना होगा। सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारी के अनुसार, बिहार में इस संबंधित जनसंख्या समूह के केवल लगभग 50% लोगों के पास चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित इन ग्यारह दस्तावेजों में से कोई एक मौजूद है, जो पात्रता परीक्षण की अनिवार्य शर्त है। इस प्रकार, इस प्रक्रिया में जानबूझकर एक बड़े हिस्से को अनुचित तरीके से बाहर करने की संभावना है - और यह पूरी संभावना है कि ऐसा ही होगा। इस तरह चुनाव आयोग ने अपनी भूमिका को, जो कि स्वतंत्र, निष्पक्ष और समावेशी चुनाव सुनिश्चित करना है, पार कर लिया है और इसके बजाय नागरिकता का मध्यस्थ बनने का प्रयास करने लगा है।
बिहार में लगभग 8 करोड़ मतदाता हैं, लेकिन एसआईआर जैसे बेहद संवेदनशील प्रक्रिया को मात्र 30 दिनों में पूरा किया गया। मुख्यधारा की मीडिया ने भी इस कम समय में इतने बड़े पैमाने पर इस प्रक्रिया को संपन्न करने में आने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों और त्रुटियों को उजागर किया है।
यह नौकरशाही प्रक्रिया, जिसमें चुनाव आयोग ने दावा किया कि उसने सिर्फ 72 घंटों में 80,000 BLOs (ब्लॉक लेवल ऑफिसर) को प्रशिक्षित किया, शुरू से ही गड़बड़ ग्रस्त रही है।
क्षेत्रीय स्वतंत्र रिपोर्टों ने ठीक वही स्थिति उजागर की है जिसकी किसी ने भी कल्पना की थी: जानकारी की कमी के कारण, चुनाव अधिकारियों ने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मतदाताओं की सहमति के बिना बड़े पैमाने पर फॉर्म अपलोड किए हैं। सबसे गरीब लोग अपनी सीमित बचत निर्धारित दस्तावेज इकट्ठा करने और फॉर्म भरने में खर्च कर रहे हैं, और इस बात को लेकर गहरी चिंता में हैं कि उनके मताधिकार छीने जा सकते हैं। पारदर्शिता की कमी के बावजूद, उपलब्ध जानकारी से यह भी पता चलता है कि इस प्रक्रिया के दौरान महिलाओं को बड़ी संख्या में मतदाता सूची से बाहर किया गया है।
एसआईआर प्रक्रिया, जो अवैधानिकता, अवैधता, व्यावहारिक कठिनाइयों और अनुमानित कार्यान्वयन त्रुटियों से भरी हुई है, किसी भी निष्पक्ष पर्यवेक्षक के लिए आश्चर्यजनक लग सकती है। यह सीधे तौर पर बिहार के लोगों और समूचे भारत के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा करता है: चुनाव आयोग ने राज्य विधानसभा चुनावों से कुछ ही महीने पहले, इतने कम समय में, इतनी व्यापक और संवेदनशील प्रक्रिया अपनाने का निर्णय क्यों लिया?
भारतीय लोकतंत्र को भीतर से खत्म करने के प्रयास
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं ने इस संवेदनशील प्रक्रिया (SIR) के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय का सहारा लिया है, जिसने पहले ऐसे आदेश दिए थे जिनका इस प्रक्रिया के साथ स्पष्ट रूप से उल्लंघन होता दिख रहा है। लाल बाबू हुसैन एवं अन्य बनाम निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी एवं अन्य (1995 AIR 1189) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि गैर-नागरिकता साबित करने का भार राज्य पर होता है, न कि व्यक्ति पर। मौजूदा मामले में अदालत ने, एसआईआर को रोका नहीं है, लेकिन कहा कि यदि बड़े पैमाने पर नागरिकों को बाहर किया जाता है तो वह हस्तक्षेप करेगा। यह लोगों के अधिकारों की रक्षा करने वाला एक महत्वपूर्ण और आवश्यक अंतरिम आदेश हैं, मगर SIR को एक गहरी चिंताजनक संदर्भ के भीतर रखता है: भारतीय लोकतंत्र का भीतर से खत्म होना।
भारतीय चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं को संविधान के तहत स्वायत्तता इसलिए दी गई है ताकि वे निर्भीक, निष्पक्ष और राजनीतिक दबाव से मुक्त होकर काम कर सकें। इस तरह की स्वतंत्र संस्थाएं, जो संतुलन और उत्तरदायित्व के सिद्धांतों पर आधारित होती हैं, किसी भी सजीव और कार्यशील लोकतंत्र की रीढ़ होती हैं। दुर्भाग्य से, हम अब इन संस्थाओं का एक के बाद एक व्यवस्थित पतन होते देख रहे हैं। हाल के वर्षों में, चुनाव आयोग -जो कभी भारत को दुनिया का सबसे बड़ा चुनावी लोकतंत्र बनाने में केंद्रीय था - इस खतरनाक क्षरण का शिकार होता दिख रहा है। हाल ही में हुए राज्य चुनावों ने चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता के संबंध में बहुत गंभीर चिंता का कारण पैदा किया है। न केवल विपक्षी दलों के नेताओं, बल्कि स्वतंत्र विशेषज्ञों और आलोचकों ने भी चुनाव आयोग के कामकाज की निष्पक्षता पर संदेह व्यक्त किया है।
2024 के अंत में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव इसका उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। राज्य में लोकसभा और विधानसभा चुनावों के बीच केवल पांच महीनों के भीतर मतदाताओं की संख्या में असामान्य और अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज की गई- इतनी अधिक कि कुल मतदाताओं की संख्या राज्य की अनुमानित वयस्क जनसंख्या से भी ऊपर चली गई। नागपुर में एक जांच से पता चला कि निर्वाचन क्षेत्र के 70% मतदान केंद्रों में इस वृद्धि ने चुनाव आयोग द्वारा सत्यापन की सीमा पार कर ली थी, जिससे विपक्षी दावों को विश्वसनीयता मिली कि यह सिर्फ हेरफेर नहीं था बल्कि एक राज्य में चुनावों की औद्योगिक-स्तरीय धांधली थी, जिसने केवल पाँच महीनों में राजनीतिक भाग्य में उलटफेर देखा।
हाल ही में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कर्नाटक विधानसभा चुनावों में गंभीर कदाचार के आरोप लगाए हैं। उन्होंने चुनाव आयोग के स्वयं के आंकड़ों का हवाला देते हुए दावा किया कि आयोग की देखरेख में एक ही निर्वाचन क्षेत्र में 1,00,000 से अधिक फर्जी मतदाताओं का पंजीकरण हुआ।
उठाई गई चिंताओं का जवाब देने या प्रस्तुत किए गए सबूतों का खंडन करने के बजाय, चुनाव आयोग ने हमलावर रुख अपनाया है। उसने नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी को उनके द्वारा लगाए गए आरोपों को लेकर शपथ पत्र दायर करने की चुनौती दी है। यदि विपक्ष के शीर्ष नेता के साथ इस तरह की टकरावपूर्ण और अवमाननापूर्ण शैली में व्यवहार किया जाता है, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है: आम नागरिकों को ऐसी बेरहम सरकार और समझौतावादी संस्थाओं से अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा की क्या उम्मीद की जा सकती है?
कामकाजी वर्गों के बीच एकता पर हमला करना फासीवादी राजनीति की एक परिचित रणनीति रही है। भारत में भाजपा का बढ़ता वर्चस्व भी इसी दिशा में संकेत करता है। उसके शासनकाल में भारत ने अभूतपूर्व आर्थिक असमानता और कुलीनतंत्र की शक्ति के समेकन को अनुभव किया है। इसके साथ ही, पार्टी ने हिंसक बहुसंख्यकवाद की एक आक्रामक और दुर्भावनापूर्ण राजनीति के जरिए भारत के विविध, बहुलवादी समाज के बुनियादी ताने-बाने पर हमला किया है।
बिहार एक स्पष्ट उदाहरण है। एक ऐसा राज्य जहां लाखों परेशान बेरोजगार युवा, एक संकटग्रस्त कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था, कमजोर सार्वजनिक बुनियादी ढांचा, और प्रवासन जैसे मुद्दे एक सामान्य वास्तविकता बन चुके हैं। इन स्थितियों को देखते हुए, बिहार को नई आर्थिक दिशा देने वाली, दूरदर्शी और जिम्मेदार सरकार की सख्त आवश्यकता है। लेकिन इसके विपरीत, भाजपा के शासनकाल में चुनावी दौर के दौरान गृह मंत्री जैसे शीर्ष नेता, राज्य में अवैध प्रवासियों का ‘हौवा’ खड़ा करके सामाजिक माहौल को भटकाते और ध्रुवीकरण को बढ़ावा देते हुए दिखाई देते हैं। इसके कोई सबूत दिए बिना, चुनाव आयोग ने भी, "सूत्रों" के हवाले से यह दावा करते हुए कि वे मतदाता सूची से अवैध प्रवासियों को बाहर निकाल रहे हैं, अपने इस बेतुके प्रक्रिया के लिए इस तर्क को शामिल किया है। यह एक डॉग विस्ल के रूप में काम करता है, जो अपने समर्थकों को यह बताता है कि इस प्रक्रिया का लक्ष्य अल्पसंख्यक और सत्तारूढ़ दल के विरोधी हैं। इस तरह, भाजपा प्रभावी रूप से मतदाता दमन के अपने प्रयासों के लिए लोकतांत्रिक विपक्ष को कमज़ोर करती है।
वास्तव में, जो कुछ हमारे सामने हो रहा है, वह लाखों गरीब भारतीयों को उनके वोट देने के मौलिक अधिकार से वंचित करने की एक सुनियोजित साजिश जैसा लगता है। सत्तारूढ़ दल, विशेष रूप से मोदी सरकार के कार्यकाल में, भारतीय लोकतंत्र की संस्थागत व्यवस्था को मौलिक रूप से बदलने के प्रयास में राज्य की नौकरशाही मशीनरी का सक्रिय रूप से इस्तेमाल कर रही है। इस शासन के तहत, सत्ता का इस्तेमाल एक दोहरी रणनीति के तहत होता दिख रहा है: एक ओर, कुलीनतंत्र की शक्ति को मज़बूत करना, और दूसरी ओर, सामाजिक विभाजन और कलह को गहरा करना। इन दोनों लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए राज्य मशीनरी का इस्तेमाल करने की कोशिश की है।
"मोदी सरकार" के दूसरे कार्यकाल के बाद से यह पहले से कहीं अधिक स्पष्ट हो गया है कि भारत में कामकाजी ग़रीबों, विशेषकर मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की नागरिकता पर संदेह करते हुए समाज में एक दीर्घकालिक विभाजन पैदा करने की सुनियोजित रणनीति अपनाई जा रही है। इस मंशा के संकेत 2019 के नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के जरिए पहले ही सामने आ चुके हैं। हालांकि, जनता के व्यापक प्रतिरोध के चलते NRC को तत्काल रोकना पड़ा। अब, बिहार में एसआईआर जैसे असंगत और विवादास्पद प्रक्रिया के माध्यम से -जिसे चुनाव आयोग ने भविष्य में अन्य राज्यों में भी लागू करने की बात कही है - ऐसा लगता है कि सरकार एनआरसी के लिए एक आधारभूत ढांचा तैयार कर रही है।
जनता के सामने चुनौती
बिहार में चल रहा एसआईआर (विशेष गहन पुनरीक्षण) केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं है बल्कि यह भारत के लोकतंत्र के लिए एक निर्णायक परीक्षा बन चुका है। यह सार्वभौमिक मताधिकार को कमजोर करने का प्रयोगात्मक मॉडल है। यदि यह बिहार में सफल होता है, तो इसकी पूरे देश में पुनरावृत्ति की पूरी संभावना है। इसलिए, यह केवल बिहार का मुद्दा नहीं है - यह भारत के हर लोकतांत्रिक नागरिक, हर लोकतंत्रप्रिय संगठन और हर सजग व्यक्ति की जिम्मेदारी बन जाती है कि वे इस खतरे को समय रहते समझें और इस प्रक्रिया का विरोध करें। सरकार ने देश की जनता को एक खुली चुनौती दी है - अब वक्त है कि जनता उसका जवाब दे।
पिछले कुछ महीनों में, जमीनी स्तर पर SIR को बेनकाब करने और उसे चुनौती देने के कई सजग और संगठित प्रयास सामने आए हैं। स्वतंत्र और जमीनी पत्रकारिता ने इस प्रक्रिया में मौजूद गंभीर खामियों और अनियमितताओं को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। एनएपीएम(NAPM) बिहार के सदस्य संगठन न केवल सक्रिय रूप से जन-जागरण अभियान चला रहे हैं, बल्कि पूरी प्रक्रिया वास्तव में जमीनी स्तर पर कैसे लागू हो रहा है, इसकी जांच भी कर रहे हैं। इस क्रम में, 21 जुलाई को पटना में, एक संगठित और व्यापक रूप से प्रचारित जन सुनवाई आयोजित की गई। इस सुनवाई ने एसआईआर की प्रक्रिया में मौजूद ढांचागत समस्याओं और लाखों लोगों को मताधिकार से वंचित किए जाने की आशंका को सार्वजनिक रूप से उजागर किया।
एनएपीएम की मांगें:-
निर्वाचन आयोग:
बिहार में चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) की बेतुके, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक प्रक्रिया को तुरंत रोके।
अपनी संवैधानिक जवाबदेही सुनिश्चित करते हुए, चुनाव आयोग एक पारदर्शी और समावेशी मतदाता पंजीकरण अभ्यास करें, जो सभी भारतीयों के मताधिकार के लिए सुविधाजनक हो।
भविष्य में, देश के किसी अन्य भाग / राज्य में, SIR-बिहार जैसी असंवैधानिक प्रक्रिया को दोहराने से चुनाव आयोग को बचना चाहिए।
माननीय सुप्रीम कोर्ट:
मतदाताओं को मताधिकार से वंचित करने हेतु, SIR तैयार करने और संचालित करने के लिए, सर्वोच्च न्यायालय चुनाव आयोग में दोषी अधिकारियों को दंडित करे।
सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में, चुनावी धोखाधड़ी और धांधली के आरोपों की जांच कराए।
सर्वोच्च न्यायालय इस पूरी प्रक्रिया की संवैधानिकता पर समय रहते हुए, न्यायपूर्ण और समग्र दृष्टिकोण अपनाए तथा भारत निर्वाचन आयोग को निर्देश दे कि वह ऐसा कुछ न करे जिससे लाखों नागरिकों के मताधिकार का हनन हो।
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बिहार में मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने में अब 100 दिन से भी कम समय बचा है। अगले कुछ दिनों में चुनाव के तारीखों का एलान कर दिया जाएगा लेकिन इस बार का बिहार एक अलग तस्वीर पेश कर रहा है। स्वायत्त और संवैधानिक संस्था भारतीय चुनाव आयोग ने 25 जून से राज्य में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) शुरू करने का निर्णय लिया है। यह प्रक्रिया ऐसे समय शुरू की गई है जब चुनाव महज़ कुछ महीने दूर हैं, और इससे लाखों बिहारवासियों के मताधिकार पर अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे हैं।
द मूकनायक की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय निर्वाचन आयोग से एन.ए.पी.एम (National Alliance of People’s Movements (NAPM) ने मांग की है कि बिहार में चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण की बेतुके, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक प्रक्रिया को तुरंत रोके। इसके बदले, अपनी संवैधानिक जवाबदेही सुनिश्चित करते हुए, चुनाव आयोग एक पारदर्शी और समावेशी मतदाता पंजीकरण अभ्यास करें, जो सभी भारतीयों के मताधिकार के लिए सुविधाजनक हो। हम सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह करते हैं कि वह इस पूरी प्रक्रिया की संवैधानिकता पर समय रहते हुए, न्यायपूर्ण और समग्र दृष्टिकोण अपनाए तथा भारत निर्वाचन आयोग को निर्देश दे कि वह ऐसा कुछ न करे जिससे लाखों नागरिकों के मताधिकार का हनन हो।
मतदाता अधिकारों का उल्लंघन करने वाले एक गंभीर और दुर्भावनापूर्ण कदम के तहत, भारतीय चुनाव आयोग ने बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) की प्रक्रिया को जल्दबाजी में अंजाम दिया, जिसके परिणामस्वरूप विधानसभा चुनाव से ठीक पहले लगभग 65 लाख मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से हटा दिए गए। इस व्यापक और विवादास्पद कार्रवाई के बावजूद, आयोग ने न केवल हटाए गए नामों की सूची जारी करने से इनकार कर दिया, बल्कि हटाने के कारणों को सार्वजनिक करने से भी इंकार किया।
हालांकि, पिछले महीने सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर संज्ञान लेते हुए आयोग को स्पष्ट निर्देश दिए। न्यायालय ने कहा कि हटाए गए मतदाताओं की सूची, हटाने के कारणों सहित, सार्वजनिक की जाए और उसे सभी उपलब्ध माध्यमों से प्रचारित किया जाए। साथ ही, न्यायालय ने यह भी आदेश दिया कि प्रभावित लोग यदि अपील करते हैं, तो उनके आधार कार्ड और मतदाता पहचान पत्र को पहचान के वैध दस्तावेज के रूप में स्वीकार किया जाए।
यह आदेश न केवल मतदाताओं के अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय की उस दृष्टिकोण की भी पुष्टि करता है, जिसके अनुसार: यदि SIR प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर नाम हटाए जाते हैं, तो न्यायालय इसमें हस्तक्षेप करेगा, और मतदाता सूची के पुनरीक्षण की मूल भावना "बहिष्कार" नहीं, बल्कि "समावेशन" (inclusion) होनी चाहिए।
नेशनल अलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट्स (NAPM) ने न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाला बागची की पीठ द्वारा पारित इस अंतरिम आदेश का स्वागत किया है और इसे मतदाताओं के अधिकारों की दिशा में एक सकारात्मक व न्यायसंगत पहल बताया है।
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद चुनाव आयोग को अंततः हटाए गए मतदाताओं की सूची सार्वजनिक करने के लिए मजबूर होना पड़ा। हालांकि आयोग ने यह दावा किया है कि उसे मतदाता सूची में शामिल98% लोगों के दस्तावेज प्राप्त हो चुके हैं, लेकिन इन दावों की पृष्ठभूमि में व्यापक अनिश्चितता और अव्यवस्था नजर आती है। रिपोर्टर्स द्वारा जांच में यह भी सामने आया है कि SIR के मसौदे में प्रक्रियात्मक खामियां और लापरवाहियां व्यापक स्तर पर मौजूद हैं। अब, आयोग के चुनाव अधिकारियों के पास 25 सितंबर तक का समय है, जिसके भीतर उन्हें प्राप्त दस्तावेजों का सत्यापन कार्य पूरा करना है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हटाए गए मतदाताओं की सूची सार्वजनिक करने का आदेश दिए जाने के बाद, चुनाव आयोग द्वारा आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुख्य चुनाव आयुक्त की प्रतिक्रिया ने गंभीर चिंताएं पैदा कर दीं। स्पष्ट और तथ्यपरक जवाब देने के बजाय, उसने एक सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ता की तरह व्यवहार करते हुए विपक्ष पर हमला बोला। इस अभूतपूर्व रवैये ने न केवल लोकतांत्रिक प्रक्रिया की निष्पक्षता पर सवाल खड़े किए हैं, बल्कि एक स्वायत्त संवैधानिक संस्था के रूप में चुनाव आयोग की साख और निष्पक्षता को भी गहरी ठेस पहुंचाई है।
एस.आई.आर और भारत में नागरिकता का राजनीतिकरण
1 अगस्त, 2025 तक, पहले की 7.9 करोड़ मतदाताओं की सूची से लगभग65 लाख नाम हटा दिए गए हैं। इस बड़े पैमाने पर की गई कार्रवाई के बावजूद, चुनाव आयोग ने पारदर्शिता और बुनियादी मानवीय गरिमा की पूरी तरह से अनदेखी करते हुए यह बताने से इनकार कर दिया कि किन लोगों के नाम हटाए गए और क्यों। यह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में पहला ऐसा मतदाता पुनरीक्षण है, जिसमें न केवल लाखों नाम हटाए गए, बल्कि एक भी नया नाम सूची में जोड़ा नहीं गया। यह तथ्य न केवल चिंताजनक है, बल्कि यह सोचने पर मजबूर करता है कि जब आयोग दावा करता है कि उसके हजारों चुनावी अधिकारी राज्य के प्रत्येक घर तक पहुंचे, तो फिर उन्हें एक भी नया मतदाता कैसे नहीं मिला?
भारत सरकार के आधिकारिक अनुमानों के अनुसार, बिहार में वयस्क आबादी लगभग 8.18 करोड़ है- यह आंकड़ा प्रवासन जैसे सामाजिक-आर्थिक कारकों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। स्वाभाविक रूप से, मतदाता सूची में दर्ज कुल मतदाताओं की संख्या इस अनुमान के आस पास होनी चाहिए। हालांकि, चुनाव आयोग द्वारा प्रकाशित मसौदा विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) सूची में केवल 7.24 करोड़ मतदाताओं के नाम शामिल हैं, जो लगभग 94 लाख वयस्कों के संभावित बहिष्कार की ओर इशारा करता है। यह न केवल असामान्य है, बल्कि चिंताजनक भी - और यह भारत के स्वतंत्र इतिहास में पहली बार हुआ है कि चुनाव आयोग ने नागरिकों से स्वयं को मतदाता साबित करने के लिए फॉर्म और दस्तावेज जमा करने की मांग की है। SIR की प्रक्रिया के दूसरे चरण में, चुनाव अधिकारी प्राप्त दस्तावेजों के आधार पर लोगों की मतदाता के रूप में पात्रता का निर्णय लेंगे। यहीं पर एक गुप्त और विवादास्पद श्रेणी - "बीएलओ द्वारा अनुशंसित नहीं" (Not Recommended by BLO) - लागू होती है, जिसके अंतर्गत अधिकारी व्यक्तिगत विवेक से नाम हटाने का निर्णय ले सकते हैं। चिंता की बात यह है कि चुनाव आयोग ने अब तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि इस गोपनीय श्रेणी में कितने लोगों को शामिल किया गया है। इसका सीधा मतलब यह है कि आने वाले हफ्तों में और भी नाम मतदाता सूची से हटाए जा सकते हैं।
सीमित सूचना, अपील दायर करने और उसका अनुसरण करने के लिए आवश्यक संसाधनों की कमी, और मतदाता सूची के अंतिम रूप से पहले (सितंबर के अंत तक) उपलब्ध समय की बेहद कम अवधि- इन सभी कारणों से यह पूरी प्रक्रिया, काफी संभावना है कि, लाखों लोगों को उनके मताधिकार से वंचित कर देगी। इसका सबसे गहरा प्रभाव उन वर्गों पर पड़ने की आशंका है जो पहले से ही जाति, लिंग, धर्म और अन्य सामाजिक आधारों पर हाशिये पर हैं।
24 जून 2025 तक, मतदाताओं का पंजीकरण करना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी थी। लेकिन 25 जून से यह जिम्मेदारी स्वयं मतदाताओं पर डाल दी गई।इसके साथ ही, चुनाव आयोग ने मतदाता पंजीकरण के लिए ऐसे मानदंड अपनाए, जो प्रभावी रूप से इस प्रक्रिया को एक प्रकार के नागरिकता परीक्षण में बदल देते हैं। सबसे विवादास्पद निर्णय यह रहा कि आयोग ने फरमान जारी किया है कि जो व्यक्ति 2003 की मतदाता सूची में शामिल नहीं थे, विशेष रूप से 18 से 40 वर्ष की आयु के नागरिक, उन्हें फिर से पंजीकरण कराना होगा। आयोग के अनुसार, 2003 को आधार वर्ष इसलिए चुना गया क्योंकि उस वर्ष एक विशेष गहन पुनरीक्षण किया गया था, जिसमें सूची में शामिल लोगों को भारतीय नागरिक के रूप में सत्यापित किया गया था।
फिर भी, जब जवाबदेही कार्यकर्ताओं ने सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम के तहत चुनाव आयोग से 2003 के आदेश की प्रति मांगी, तो उन्हें केवल 24 जून 2025 के आदेश की प्रति प्रदान की गई।
इस बीच, 2003 के पुनरीक्षण में शामिल रहे पूर्व चुनाव आयोग अधिकारियों ने मीडिया को जानकारी दी है कि उस समय घर-घर जाकर मतदाता सत्यापन अवश्य किया गया था, लेकिन नागरिकता का प्रमाण मांगे जाने की कोई शर्त नहीं थी। उन अधिकारियों ने स्पष्ट किया कि गणना कर्मियों को नागरिकता का निर्धारण करने का निर्देश नहीं दिया गया था। इस संदर्भ में, सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया है कि वह 2003 के पुनरीक्षण अभ्यास में किस प्रकार के दस्तावेज स्वीकार किए गए, इसका पूरा विवरण प्रस्तुत करे। इसके अलावा, भले ही आयोग ने अदालत में दावा किया कि एसआईआर एक स्वतंत्र मूल्यांकन पर आधारित था, लेकिन जब आरटीआई अनुरोधों के माध्यम से यही माँगा गया तो उसने ऐसे किसी भी मूल्यांकन या अध्ययन की प्रतियाँ प्रदान नहीं कीं। यह आयोग की विश्वसनीयता को गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाता है। आरटीआई अनुरोधों के प्रति इस तरह के टालमटोल वाले जवाब और बिना किसी पूर्व परामर्श या अध्ययन के काम करना यह दर्शाता है कि आयोग मनमाने और अपारदर्शी तरीके से काम कर रहा है।
जो लोग 2003 की मतदाता सूची में शामिल नहीं हैं, उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने के लिए चुनाव आयोग को एक घोषणा पत्र के साथ ग्यारह निर्धारित दस्तावेजों में से कम से कम एक दस्तावेज प्रस्तुत करना होगा। सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारी के अनुसार, बिहार में इस संबंधित जनसंख्या समूह के केवल लगभग 50% लोगों के पास चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित इन ग्यारह दस्तावेजों में से कोई एक मौजूद है, जो पात्रता परीक्षण की अनिवार्य शर्त है। इस प्रकार, इस प्रक्रिया में जानबूझकर एक बड़े हिस्से को अनुचित तरीके से बाहर करने की संभावना है - और यह पूरी संभावना है कि ऐसा ही होगा। इस तरह चुनाव आयोग ने अपनी भूमिका को, जो कि स्वतंत्र, निष्पक्ष और समावेशी चुनाव सुनिश्चित करना है, पार कर लिया है और इसके बजाय नागरिकता का मध्यस्थ बनने का प्रयास करने लगा है।
बिहार में लगभग 8 करोड़ मतदाता हैं, लेकिन एसआईआर जैसे बेहद संवेदनशील प्रक्रिया को मात्र 30 दिनों में पूरा किया गया। मुख्यधारा की मीडिया ने भी इस कम समय में इतने बड़े पैमाने पर इस प्रक्रिया को संपन्न करने में आने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों और त्रुटियों को उजागर किया है।
यह नौकरशाही प्रक्रिया, जिसमें चुनाव आयोग ने दावा किया कि उसने सिर्फ 72 घंटों में 80,000 BLOs (ब्लॉक लेवल ऑफिसर) को प्रशिक्षित किया, शुरू से ही गड़बड़ ग्रस्त रही है।
क्षेत्रीय स्वतंत्र रिपोर्टों ने ठीक वही स्थिति उजागर की है जिसकी किसी ने भी कल्पना की थी: जानकारी की कमी के कारण, चुनाव अधिकारियों ने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मतदाताओं की सहमति के बिना बड़े पैमाने पर फॉर्म अपलोड किए हैं। सबसे गरीब लोग अपनी सीमित बचत निर्धारित दस्तावेज इकट्ठा करने और फॉर्म भरने में खर्च कर रहे हैं, और इस बात को लेकर गहरी चिंता में हैं कि उनके मताधिकार छीने जा सकते हैं। पारदर्शिता की कमी के बावजूद, उपलब्ध जानकारी से यह भी पता चलता है कि इस प्रक्रिया के दौरान महिलाओं को बड़ी संख्या में मतदाता सूची से बाहर किया गया है।
एसआईआर प्रक्रिया, जो अवैधानिकता, अवैधता, व्यावहारिक कठिनाइयों और अनुमानित कार्यान्वयन त्रुटियों से भरी हुई है, किसी भी निष्पक्ष पर्यवेक्षक के लिए आश्चर्यजनक लग सकती है। यह सीधे तौर पर बिहार के लोगों और समूचे भारत के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा करता है: चुनाव आयोग ने राज्य विधानसभा चुनावों से कुछ ही महीने पहले, इतने कम समय में, इतनी व्यापक और संवेदनशील प्रक्रिया अपनाने का निर्णय क्यों लिया?
भारतीय लोकतंत्र को भीतर से खत्म करने के प्रयास
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं ने इस संवेदनशील प्रक्रिया (SIR) के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय का सहारा लिया है, जिसने पहले ऐसे आदेश दिए थे जिनका इस प्रक्रिया के साथ स्पष्ट रूप से उल्लंघन होता दिख रहा है। लाल बाबू हुसैन एवं अन्य बनाम निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी एवं अन्य (1995 AIR 1189) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि गैर-नागरिकता साबित करने का भार राज्य पर होता है, न कि व्यक्ति पर। मौजूदा मामले में अदालत ने, एसआईआर को रोका नहीं है, लेकिन कहा कि यदि बड़े पैमाने पर नागरिकों को बाहर किया जाता है तो वह हस्तक्षेप करेगा। यह लोगों के अधिकारों की रक्षा करने वाला एक महत्वपूर्ण और आवश्यक अंतरिम आदेश हैं, मगर SIR को एक गहरी चिंताजनक संदर्भ के भीतर रखता है: भारतीय लोकतंत्र का भीतर से खत्म होना।
भारतीय चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं को संविधान के तहत स्वायत्तता इसलिए दी गई है ताकि वे निर्भीक, निष्पक्ष और राजनीतिक दबाव से मुक्त होकर काम कर सकें। इस तरह की स्वतंत्र संस्थाएं, जो संतुलन और उत्तरदायित्व के सिद्धांतों पर आधारित होती हैं, किसी भी सजीव और कार्यशील लोकतंत्र की रीढ़ होती हैं। दुर्भाग्य से, हम अब इन संस्थाओं का एक के बाद एक व्यवस्थित पतन होते देख रहे हैं। हाल के वर्षों में, चुनाव आयोग -जो कभी भारत को दुनिया का सबसे बड़ा चुनावी लोकतंत्र बनाने में केंद्रीय था - इस खतरनाक क्षरण का शिकार होता दिख रहा है। हाल ही में हुए राज्य चुनावों ने चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता के संबंध में बहुत गंभीर चिंता का कारण पैदा किया है। न केवल विपक्षी दलों के नेताओं, बल्कि स्वतंत्र विशेषज्ञों और आलोचकों ने भी चुनाव आयोग के कामकाज की निष्पक्षता पर संदेह व्यक्त किया है।
2024 के अंत में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव इसका उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। राज्य में लोकसभा और विधानसभा चुनावों के बीच केवल पांच महीनों के भीतर मतदाताओं की संख्या में असामान्य और अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज की गई- इतनी अधिक कि कुल मतदाताओं की संख्या राज्य की अनुमानित वयस्क जनसंख्या से भी ऊपर चली गई। नागपुर में एक जांच से पता चला कि निर्वाचन क्षेत्र के 70% मतदान केंद्रों में इस वृद्धि ने चुनाव आयोग द्वारा सत्यापन की सीमा पार कर ली थी, जिससे विपक्षी दावों को विश्वसनीयता मिली कि यह सिर्फ हेरफेर नहीं था बल्कि एक राज्य में चुनावों की औद्योगिक-स्तरीय धांधली थी, जिसने केवल पाँच महीनों में राजनीतिक भाग्य में उलटफेर देखा।
हाल ही में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कर्नाटक विधानसभा चुनावों में गंभीर कदाचार के आरोप लगाए हैं। उन्होंने चुनाव आयोग के स्वयं के आंकड़ों का हवाला देते हुए दावा किया कि आयोग की देखरेख में एक ही निर्वाचन क्षेत्र में 1,00,000 से अधिक फर्जी मतदाताओं का पंजीकरण हुआ।
उठाई गई चिंताओं का जवाब देने या प्रस्तुत किए गए सबूतों का खंडन करने के बजाय, चुनाव आयोग ने हमलावर रुख अपनाया है। उसने नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी को उनके द्वारा लगाए गए आरोपों को लेकर शपथ पत्र दायर करने की चुनौती दी है। यदि विपक्ष के शीर्ष नेता के साथ इस तरह की टकरावपूर्ण और अवमाननापूर्ण शैली में व्यवहार किया जाता है, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है: आम नागरिकों को ऐसी बेरहम सरकार और समझौतावादी संस्थाओं से अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा की क्या उम्मीद की जा सकती है?
कामकाजी वर्गों के बीच एकता पर हमला करना फासीवादी राजनीति की एक परिचित रणनीति रही है। भारत में भाजपा का बढ़ता वर्चस्व भी इसी दिशा में संकेत करता है। उसके शासनकाल में भारत ने अभूतपूर्व आर्थिक असमानता और कुलीनतंत्र की शक्ति के समेकन को अनुभव किया है। इसके साथ ही, पार्टी ने हिंसक बहुसंख्यकवाद की एक आक्रामक और दुर्भावनापूर्ण राजनीति के जरिए भारत के विविध, बहुलवादी समाज के बुनियादी ताने-बाने पर हमला किया है।
बिहार एक स्पष्ट उदाहरण है। एक ऐसा राज्य जहां लाखों परेशान बेरोजगार युवा, एक संकटग्रस्त कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था, कमजोर सार्वजनिक बुनियादी ढांचा, और प्रवासन जैसे मुद्दे एक सामान्य वास्तविकता बन चुके हैं। इन स्थितियों को देखते हुए, बिहार को नई आर्थिक दिशा देने वाली, दूरदर्शी और जिम्मेदार सरकार की सख्त आवश्यकता है। लेकिन इसके विपरीत, भाजपा के शासनकाल में चुनावी दौर के दौरान गृह मंत्री जैसे शीर्ष नेता, राज्य में अवैध प्रवासियों का ‘हौवा’ खड़ा करके सामाजिक माहौल को भटकाते और ध्रुवीकरण को बढ़ावा देते हुए दिखाई देते हैं। इसके कोई सबूत दिए बिना, चुनाव आयोग ने भी, "सूत्रों" के हवाले से यह दावा करते हुए कि वे मतदाता सूची से अवैध प्रवासियों को बाहर निकाल रहे हैं, अपने इस बेतुके प्रक्रिया के लिए इस तर्क को शामिल किया है। यह एक डॉग विस्ल के रूप में काम करता है, जो अपने समर्थकों को यह बताता है कि इस प्रक्रिया का लक्ष्य अल्पसंख्यक और सत्तारूढ़ दल के विरोधी हैं। इस तरह, भाजपा प्रभावी रूप से मतदाता दमन के अपने प्रयासों के लिए लोकतांत्रिक विपक्ष को कमज़ोर करती है।
वास्तव में, जो कुछ हमारे सामने हो रहा है, वह लाखों गरीब भारतीयों को उनके वोट देने के मौलिक अधिकार से वंचित करने की एक सुनियोजित साजिश जैसा लगता है। सत्तारूढ़ दल, विशेष रूप से मोदी सरकार के कार्यकाल में, भारतीय लोकतंत्र की संस्थागत व्यवस्था को मौलिक रूप से बदलने के प्रयास में राज्य की नौकरशाही मशीनरी का सक्रिय रूप से इस्तेमाल कर रही है। इस शासन के तहत, सत्ता का इस्तेमाल एक दोहरी रणनीति के तहत होता दिख रहा है: एक ओर, कुलीनतंत्र की शक्ति को मज़बूत करना, और दूसरी ओर, सामाजिक विभाजन और कलह को गहरा करना। इन दोनों लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए राज्य मशीनरी का इस्तेमाल करने की कोशिश की है।
"मोदी सरकार" के दूसरे कार्यकाल के बाद से यह पहले से कहीं अधिक स्पष्ट हो गया है कि भारत में कामकाजी ग़रीबों, विशेषकर मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की नागरिकता पर संदेह करते हुए समाज में एक दीर्घकालिक विभाजन पैदा करने की सुनियोजित रणनीति अपनाई जा रही है। इस मंशा के संकेत 2019 के नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के जरिए पहले ही सामने आ चुके हैं। हालांकि, जनता के व्यापक प्रतिरोध के चलते NRC को तत्काल रोकना पड़ा। अब, बिहार में एसआईआर जैसे असंगत और विवादास्पद प्रक्रिया के माध्यम से -जिसे चुनाव आयोग ने भविष्य में अन्य राज्यों में भी लागू करने की बात कही है - ऐसा लगता है कि सरकार एनआरसी के लिए एक आधारभूत ढांचा तैयार कर रही है।
जनता के सामने चुनौती
बिहार में चल रहा एसआईआर (विशेष गहन पुनरीक्षण) केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं है बल्कि यह भारत के लोकतंत्र के लिए एक निर्णायक परीक्षा बन चुका है। यह सार्वभौमिक मताधिकार को कमजोर करने का प्रयोगात्मक मॉडल है। यदि यह बिहार में सफल होता है, तो इसकी पूरे देश में पुनरावृत्ति की पूरी संभावना है। इसलिए, यह केवल बिहार का मुद्दा नहीं है - यह भारत के हर लोकतांत्रिक नागरिक, हर लोकतंत्रप्रिय संगठन और हर सजग व्यक्ति की जिम्मेदारी बन जाती है कि वे इस खतरे को समय रहते समझें और इस प्रक्रिया का विरोध करें। सरकार ने देश की जनता को एक खुली चुनौती दी है - अब वक्त है कि जनता उसका जवाब दे।
पिछले कुछ महीनों में, जमीनी स्तर पर SIR को बेनकाब करने और उसे चुनौती देने के कई सजग और संगठित प्रयास सामने आए हैं। स्वतंत्र और जमीनी पत्रकारिता ने इस प्रक्रिया में मौजूद गंभीर खामियों और अनियमितताओं को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। एनएपीएम(NAPM) बिहार के सदस्य संगठन न केवल सक्रिय रूप से जन-जागरण अभियान चला रहे हैं, बल्कि पूरी प्रक्रिया वास्तव में जमीनी स्तर पर कैसे लागू हो रहा है, इसकी जांच भी कर रहे हैं। इस क्रम में, 21 जुलाई को पटना में, एक संगठित और व्यापक रूप से प्रचारित जन सुनवाई आयोजित की गई। इस सुनवाई ने एसआईआर की प्रक्रिया में मौजूद ढांचागत समस्याओं और लाखों लोगों को मताधिकार से वंचित किए जाने की आशंका को सार्वजनिक रूप से उजागर किया।
एनएपीएम की मांगें:-
निर्वाचन आयोग:
बिहार में चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) की बेतुके, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक प्रक्रिया को तुरंत रोके।
अपनी संवैधानिक जवाबदेही सुनिश्चित करते हुए, चुनाव आयोग एक पारदर्शी और समावेशी मतदाता पंजीकरण अभ्यास करें, जो सभी भारतीयों के मताधिकार के लिए सुविधाजनक हो।
भविष्य में, देश के किसी अन्य भाग / राज्य में, SIR-बिहार जैसी असंवैधानिक प्रक्रिया को दोहराने से चुनाव आयोग को बचना चाहिए।
माननीय सुप्रीम कोर्ट:
मतदाताओं को मताधिकार से वंचित करने हेतु, SIR तैयार करने और संचालित करने के लिए, सर्वोच्च न्यायालय चुनाव आयोग में दोषी अधिकारियों को दंडित करे।
सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में, चुनावी धोखाधड़ी और धांधली के आरोपों की जांच कराए।
सर्वोच्च न्यायालय इस पूरी प्रक्रिया की संवैधानिकता पर समय रहते हुए, न्यायपूर्ण और समग्र दृष्टिकोण अपनाए तथा भारत निर्वाचन आयोग को निर्देश दे कि वह ऐसा कुछ न करे जिससे लाखों नागरिकों के मताधिकार का हनन हो।
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