राजद्रोह कानून पर सुप्रीम कोर्ट सख्त, 5 मई को वैधता पर फैसला

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: April 30, 2022
सुप्रीम कोर्ट द्वारा साख बचाने की कवायद शुरू



वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट को अपनी साख और लोकतंत्र दोनों को बचाने की जिम्मेदारी निभानी है. जहांगीरपुरी बुल्डोजर मामले में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना की गई उससे कानून के लोकतान्त्रिक मूल्यों और सिद्धांतों की धज्जियां उड़ गयी हैं. दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में एक विशेष धर्म को निशाना बना कर गरीबों के दुकानों और मकानों पर बुलडोजर चलवाना इतिहास की तारीख में दर्ज होने वाली त्रासदीपूर्ण कार्य है. साथ ही इस घटनाक्रम को रोकने के लिए जारी किए गए सुप्रीम कोर्ट के आदेश को भी 2 घंटे तक नहीं मानना साम्प्रदायिक शक्तियों के बढ़ते कदम और संवैधानिक मूल्यों के छिन्न भिन्न होने के संकेत हैं. 

इस बीच सुप्रीम कोर्ट कड़ा कदम उठाते हुए वर्षों से लंबित राजद्रोह कानून (124ए) या कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट 5 मई को अंतिम फैसला सुनाने वाली है. भारत में राजद्रोह एक गैर जमानती अपराध है जिसके तहत सजा तीन साल से आजीवन कारावास तक हो सकती है. इस कानून का दुरूपयोग पिछले कुछ वर्षों से बढ़ गया है. वर्तमान में राजद्रोह कानून मीडिया का मुंह बंद करने और विरोध की आवाज को दबाने का हथियार है. 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वह राजद्रोह कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर पांच मई को अंतिम सुनवाई करेगा. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की अध्यक्षता वाली बेंच ने याचिकाओं पर सुनवाई के लिए पांच मई की तारीख तय की है. चीफ जस्टिस ने कहा कि इस मामले की सुनवाई में अब कोई स्थगन नहीं होगा. इस पर अंतिम सुनवाई पिछले साल जुलाई 2021 में हुई थी. चीफ जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच ने केंद्र द्वारा जवाब न दायर करने व सुनवाई टालने के आग्रह पर यह निर्देश दिया. कोर्ट ने कहा है कि अब किसी भी वजह से सुनवाई टाली नहीं जाएगी.

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को इस सप्ताह के अंत तक राजद्रोह कानून को खत्म करने की याचिकाकर्ताओं की मांग के संबंध में अपना पक्ष रखने के लिए कहा है. केंद्र सरकार की तरफ से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बेंच को कहा कि याचिकाओं पर केंद्र सरकार का जवाब लगभग तैयार है. उन्होंने जवाब दाखिल करने के लिए दो दिन का समय मांगा.

राजद्रोह कानून की वैधता को चुनौती देने वालीं रिटायर्ड मेजर जनरल एसजी वोम्बतकेरे और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया द्वारा दायर दो रिट याचिकाओं पर सुनवाई हो रही है. इसी मामले पर पत्रकार पेट्रीसिया मुखिम और अनुराधा भसीन द्वारा याचिका भी लंबित है. याचिकाकर्ताओं का मानना है कि इस कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है.

राजद्रोह कानून का इतिहास 
राजद्रोह भारत की दंड दंहिता (आईपीसी) की धारा 124ए के तहत एक गैर जमानती अपराध है. इसे अंग्रेज अपने शासन के दौरान 1870 में लाए थे. फिर 1898 और 1937 में इसमें संशोधन किए गए. 19वीं और 20वीं सदी के प्रारंभिक दौर में इस कानून का इस्तेमाल ज्यादातर प्रमुख भारतीय स्वतंत्रता सेनानितों के लेखन और भाषणों के खिलाफ हुआ.  

आजादी के बाद 1948, 1950 और 1951 में इसमें और संशोधन किए गए. दशकों पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट और पंजाब हाई कोर्ट ने अलग-अलग फैसलों में इसे असंवैधानिक बताया था, लेकिन 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने ही अपने ''केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य' नाम के फैसले में इसे वापस ला दिया. हालांकि, इसी फैसले में अदालत ने कहा कि इस कानून का उपयोग तभी किया जा सकता है जब "हिंसा के लिए भड़काना" साबित हो. अंग्रेजों द्वारा लाया गया यह कानून उनके खुद के देश ब्रिटेन में 2010 में समाप्त कर दिया गया. 

1962 में दिए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हर नागरिक को सरकार के कामकाज पर टिप्पणी करने और आलोचना करने का अधिकार है. आलोचना का दायरा तय है और उस दायरे में आलोचना करना राजद्रोह नहीं है. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया था कि आलोचना ऐसी हो जिसमें सार्वजनिक व्यवस्था खराब करने या हिंसा फैलाने की कोशिश न हो. साल 2021 से ही सुप्रीम कोर्ट में इस कानून की वैधता को चुनौती देने वाली चार याचिका लंबित है.

सेक्शन 124-A क्या है? 
सेक्शन 124-A के अनुसार, जो भी मौखिक या लिखित, इशारों में या स्पष्ट रूप से या किसी भी अन्य तरीके से ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है जो भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के लिए घृणा या अवमानना, उत्तेजना या असंतोष पैदा करने का प्रयास करे उसे दोषी सिद्ध होने पर उम्र कैद और जुर्माना या जुर्माना सहित 3 साल की कैद या केवल जुर्माने की सजा दी जा सकती है.

सेक्शन 124-A के अंतर्गत राजद्रोह का पहला मामला 1891 में अखबार निकलने वाले संपादक जोगेंद्र चन्द्र बोस का है. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गरम दल के नेताओं से लेकर नरम दल के अधिकांश नेताओं पर यह घर लगा कर मुकदमा चलाया गया. बाल गंगाधर तिलक से लेकर महात्मा गाँधी तक पर यह सेक्शन लगा कर कोर्ट में ट्रायल चलाया गया. आजादी के बाद मानवाधिकार संगठनों द्वारा लगातार यह आवाज उठाया जाता रहा है कि इस कानून का इस्तेमाल कोई भी राजनीतिक दल अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ कर सकता है. सेक्शन 124-A के दुरूपयोग को रोकने के लिए इसकी सटीक व्यख्या करवाने या इसे पूरी तरह से समाप्त करने की मांग होती रही है. 

किसी भी कानून के दुरूपयोग का मामला भारत में नया नहीं है लेकिन वर्तमान में इसमें तीव्रता आई है. आज निजी दुश्मनी को राजनीतिक रंग दिया जा रहा है. इन कानूनों का बेजा इस्तेमाल लोकतंत्र के सार्वजानिक संस्थानों को नुकसान पहुँचाने तक के लिए भी किया जाने लगा है. देश के विश्वविद्यालयों तक इसकी पहुँच इसका उदाहरण है. 

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