असम एनआरसी: डिटेंशन सेंटर में बंगाली हिंदू की मौत

Written by Sabrangindia Staff | Published on: September 30, 2019
26 मई 2018 को गोलपारा के हिरासत शिवर में एक बंगाली हिंदू सुब्रत डे रहस्यमय परिस्थितियों में मृत पाया गया था। डे अपने परिवार का एकमात्र कमाने वाला था और उस समय उनका परिवार अपनी मामूली चाय की दुकान से आय पर निर्भर था। अब एक साल बाद उसके बेटे को स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर किया गया और उसकी मां और पत्नी ने कपड़े के थैले बनाकर और बेचकर जीवनयापन कर रहे हैं। 28 सितंबर 2019 को सीजेपी की टीम ने परिवार से मुलाकात की। टीम को इस दौरे के दौरान क्या जानकारी मिली आइए जानते हैं। 



यह उजली हुई शाम थी लेकिन गोहापारा के आशादुबी गांव में सुब्रत डे के घर में अमावस्या की रात की तरह सबकुछ उदास और अंधकारमय लग रहा था। अंधेरा सुब्रत डे के परिवार की आंखों में था जो एक साल और चार महीने पहले हिरासत में मारे गए थे। सुब्रत की मां अनीमा और विधवा करुणा कपड़े के थैले सिल रही थीं। 

करुणा ने बताया कि पिछले साल सुब्रत के साथ हमारे सपने भी मर गए हैं। अब हम कपड़े के थैले सिलते हैं और जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। सुब्रत की मां अनीमा विस्तार से बताती हैं कि मैं हर दिन दो दर्जन बैग सिलती हूं जबकि करुणा चार दर्जन बैग सिल लेती है। प्रत्येक दर्जन के लिए हमें आठ रुपये का भुगतान किया जाता है। अब आप हमें बताएं कि हम 48 रुपये प्रतिदिन में कैसे जीवित रहें?

टीम में सीजेपी के असम राज्य कार्यक्रम समन्वयक अली जमेसर, स्वयंसेवक प्रेरक प्रणय तराफदार, नंदू घोष और डिटेंशन सेंटर के पीड़ित और सीजेपी कम्युनिटी के स्वयंसेवक रश्मिनरा बेगम शामिल थे। टीम के साथ भारतीय नागरिक आदर्श सुरक्षा मंच के उपाध्यक्ष रतन गोस्वामी भी थे। 

उन्होंने देखा कि सुब्रत की आठ साल बेटी सुचेता अपनी किताब से कवित पढ़ रही थी लेकिन बेटा बिकी कहीं नहीं दिख रहा था। उसने अपने पिता की मौत के आसपास के समय के दौरान बाहरवीं तक की पढ़ाई पूरी कर ली थी लेकिन अब जिंदगी ने करवट ली है। जब रतन गोस्वामी ने उसके बारे में पूछताछ की तो कमरे में शांति पसर गई। थोड़ी देर बात अनिमा बोली- वह धधूंडा में एक कपड़े की दुकान में प्रशिक्षु के रूप में काम करता है। उसे अब तक कुछ भी नहीं मिलता है। अगर वह सीख लेता है तभी उसे कुछ पैसा मिलना शुरू होगा। इससे हैरान प्रणय तारफदार ने पूछा कि क्या बिकी अपनी पढ़ाई भी जारी रखे हुए है तो अनिमा ने जवाब दिया- नहीं। 



परिवार के पास कुछ जमीन, एक छोटा सा डेयरी फार्म और एक चाय की दुकान थी। लेकिन उन्हें Foreigners Tribunal के समक्ष सुब्रत के मामले में पैरवी करते हुए मजबूरी में सब बेचना पड़ गया।

सुब्रत डे का जन्म साल 1979 में अविभाजित गोलपारा जिले के दक्षिण सलमारा बाजार क्षेत्र में हुआ था। बाद में वह अपने परिवार के साथ 70 किलोमीटर दूर कृशाई चले गए। 1968 के बाद से कई बार ब्रह्मपुत्र नदी में बाढ़ आने से कई गांव बह गए थे इसलिए उन्हें दक्षिण सलमारा के पुराने बाजार क्षेत्र में कई बार पलायन करना पड़ा था। इनमें से कुछ गांव अभी भी बाढ़ का सामना करते हैं। 

सीजेपी वॉलिंटियर नंदू घोष बताते हैं सुब्रत डे को 9 साल पहले डी वोटर की तरफ से नोटिस दिया गया था और 2016 में विदेशियों के ट्रिब्यूनल में भेज दिया गया था। परिवार ने अपनी भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए सभी आवश्यक दस्तावेजों को इकट्ठा करने के लिए जमीन आसमान एक कर दिया।

हालांकि उनके पिता कृष्ण पाडा डे (सुब्रत डे) का नाम 1951 में एनआरसी में उनके दादा मोनोरंजन डी और दादी माखन बाला डे के साथ दर्ज किया गया था, लेकिन सुब्रत डे को विदेशी घोषित कर दिया गया।


अनिमा बताती हैं कि अधिकारियों ने दावा किया था कि सुब्रत की मौत बीमारी के कारण हुई है, परिवार को इस दावे पर शक हुआ। सुब्रत की मां ने बताया कि मैं 24 मई 2018 को अपने बेटे से हिरासत शिविर में मिलने गई थी। उन्होंने (सुब्रत) कभी यही कहा कि वह अस्वस्थ हैं। मैंने उससे बात की तो उसने बीमारी आदि के बारे में कुछ नहीं कहा। वे कहती हैं कि 26 मई को हमें सूचित किया गया कि हिरासत शिविर में सुब्रत की मौत हो गई है। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि सुब्रत बीमारी की वजह मृत्यु हुई होगी, उसकी हत्या कर दी गई होगी। 




दिलचस्प बात यह है कि अनिमा को 1998 में फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल का एक नोटिस मिला था। परिवार ने इस मामले को आईएम (डीटी) कोर्ट में चुनौती दी और उन्हें भारतीय घोषित कर दिया गया। 2012 में सुब्रत डे पत्नी करुणा डे को भी इसी स्थिति का सामना करना पड़ा और उन्हें विदेशी ट्रिब्यूनल द्वारा भारतीय घोषित किया गया। लेकिन सुब्रत डे इतने खुश किस्मत नहीं थे। परिवार को लगता है कि एक लालची वकील ने मामले को गलत तरीके से पेश किया। 1,30,000/- रुपए का भुगतान करने के बाद मामले को ठीक से पेश नहीं किया गया जिससे सुब्रत को विदेशी घोषित कर दिया गया। 


सीजेपी की टीम की एक अन्य सदस्य रश्मिनारा बेगम जो हिरासत शिविर में काम करती हैं। उन्होंने पूछा कि आपके परिवार के कितने सदस्यों का नाम फाइनल एनआरसी में है? करुणा ने जवाब दिया- एक भी नहीं! इसके बाद नंदू घोष ने एआरएन को फिर से जांचा और पाया कि अनिमा डे और करुणा  डे का नाम फाइनल एनआरसी से इस आधार पर हटा दिया गया था कि इन दोनों के मामले विदेशी ट्रिब्यूनल में लंबित हैं। बिकी डे और सुचेता डे का नाम हटा दिया गया है क्योंकि वे घोषित विदेशियों के वंशज हैं!

बहिष्कार का कारण जानने के बाद अनिमा ने दर्दभरी आवाज में कहा- मैं इस देश में पैदा हुई थी, मैने कभी बांग्लादेश नहीं देखा। फिर भी मुझे विदेशियों के मामले को बहुत पहले लड़ना पड़ा था। मुझे उस मामले में भारतीय घोषित किया गया। वे अब ऐसा कैसे कह सकते हैं। मेरा विदेश ट्रिब्यूनल में एक लंबित मामला है। 2012 में करुणा को भी भारतीय घोषित किया गया था। वे ऐसा कैसे कह सकते हैं? 

सीजेपी नागरिकता संबंधी मामलों के पीड़ितों को कानूनी सहायता उपलब्ध करा रही है। सीजेपी ने अनीमा को भी न्याय दिलाने के लिए फ्री कानूनी सहायता देने का ऐलान किया है। 

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