विडंबना: न्यायपालिका में भी सोशल जस्टिस लागू नहीं हो पाया

Written by महेश कुमार | Published on: January 10, 2023
2018 और 2022 के बीच नियुक्त उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों में से 79 प्रतिशत उच्च जातियों से हैं- क़ानून मंत्रालय


फ़ोटो साभार: Leaflet

पृष्ठभूमि: इंदिरा जयसिंह की ओर से 26 दिसंबर को द लीफलेट में लिखे गए एक लेख में बताया कि, “सुप्रीम कोर्ट, सत्तारूढ़ निज़ाम के हमलों के सामने अस्तित्व के संकट का सामना कर रहा है। हाल ही में केंद्रीय कानून मंत्री और उप-राष्ट्रपति द्वार दिए गए भाषणों से अब यह स्पष्ट हो गया है कि कॉलेजियम पर हमले हो रहे हैं। जबकि प्रणाली को स्वयं न्यायिक नियुक्तियों की विविधता की आवश्यकता को ध्यान में रखने की आवश्यकता है, निश्चित रूप इसका इलाज बीमारी से भी बदतर है।"

ऐसी पृष्ठभूमि में उच्च न्यायपालिका में पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों के असमान प्रतिनिधित्व का मुद्दा इस तथ्य से स्पष्ट है कि पिछले 5 वर्षों (2018 से 2022) में नियुक्त किए गए सभी उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में से 79 प्रतिशत उच्च जातियों से हैं जो आज की मीडिया रिपोर्ट्स में छाया हुआ है। टाइम्स ऑफ इंडिया की आज की रिपोर्ट के अनुसार; केंद्रीय कानून मंत्रालय ने संसदीय पैनल के सामने एक प्रेजेंटेशन में चौंकाने वाले आंकड़े सामने रखे हैं।

कानून मंत्रालय ने उक्त खुलासा कानून और न्याय पर गठित संसदीय स्थायी समिति के सामने किया और बताया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली के तीन दशकों के अस्तित्व के बावजूद, उच्च न्यायपालिका में सामाजिक विविधता जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने शुरू में तैयार किया गया था, वह इन नियुक्तियों में सिरे से गायब है।

याह तथ्य सबके लिए चौंकाने वाला है कि देश के 25 उच्च न्यायालयों में की गई नियुक्तियाँ अधिकांश रूप से उच्च जातियों से हैं। इसमें अन्य पिछड़ी जातियाँ, देश में जिनकी आबादी 35 प्रतिशत से अधिक बताई जाती है, उन्हें संवैधानिक न्यायालयों की बेंचों और सीटों की नियुक्तियों में 11 प्रतिशत से भी कम होने के साथ संस्थान में नियुक्तियों में "भेदभाव" को दर्शाता है।

यह कथित भेदभाव एक ओर पहलू है जिसमें आप पाएंगे कि 2018 के बाद से उच्च न्यायालयों में नियुक्त किए गए कुल 537 न्यायाधीशों में से केवल 2.6 प्रतिशत ही अल्पसंख्यक तबके से नियुक्त किए गए हैं। इसी तरह की कहानी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की है जिन्हे 2.8 प्रतिशत और 1.3 प्रतिशत का स्थान मिला है।

कानून मंत्रालय के अनुसार, "संवैधानिक अदालतों में नियुक्ति की प्रक्रिया में सामाजिक विविधता और सामाजिक न्याय के मुद्दे को संबोधित करने में सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम और उच्च न्यायालय कॉलेजियम की प्राथमिक जिम्मेदारी है।" कानून मंत्रालय ने पैनल के सामने उक्त स्थिति को बयान करते हुए खुद की बेबस बताया और कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामलों में न्यायपालिका को प्रधानता दी गई है इसलिए इसे न्यायपालिक को संबोधित करने की जरूरत है।

जैसा कि हम सब जानते हैं कि न्यायाधीशों का एक कॉलेजियम दो स्तरों पर कार्य करता है - सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय। जबकि भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में 4 सदस्यीय सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम, शीर्ष अदालत में न्यायाधीशों की नियुक्ति के प्रस्तावों को तैयार करता है, जबकि मुख्य न्यायाधीशों की अध्यक्षता में उच्च न्यायालयों का 3 सदस्यीय कॉलेजियम, नामों की सिफारिश करता है।

कानून मंत्रालय ने मुख्य न्यायाधीश और मुख्य न्यायाधीशों को लिखे पत्रों के माध्यम से उच्च न्यायपालिका में "सामाजिक विविधता और सामाजिक न्याय के मुद्दे को संबोधित करने" की जरूरत ज़ोर दिया है। कानून पर संसदीय स्थायी समिति के सामने अपनी प्रस्तुति में, इसने उल्लेख किया है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में कॉलेजियम की प्रधानता ने मौजूदा असमानता को समाप्त नहीं किया है। इसमें कहा गया है, 'सरकार सिर्फ उन्हीं लोगों को सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों के तौर पर नियुक्त करती है, जिनकी सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम सिफारिश करती है।'

मंत्रालय ने, हालांकि, यह भी स्पष्ट किया है कि संविधान के अनुच्छेद 217 और 224 के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के सिद्धांत में, "किसी जाति या वर्ग के व्यक्तियों के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं है। हालाँकि, सरकार उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों से अनुरोध करती रही है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए प्रस्ताव भेजते समय, सामाजिक विविधता सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यकों और महिलाओं से संबंधित उपयुक्त उम्मीदवारों पर उचित विचार किया जान चाहिए।

जब भी सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम सिफारिश भेजता है तो कानून मंत्रालय उसकी जांच करता है और इंटेलिजेंस ब्यूरो सिफ़ारिश किए गए उम्मीदवार की पृष्ठभूमि की जांच करता है और फिर उच्च न्यायालय कॉलेजियम की सिफारिशों सहित एक विस्तृत रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम को उनकी सलाह के लिए भेजी जाती है। फिर सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम द्वारा नामों को मंजूरी दिए जाने के बाद, केंद्र सरकार नियुक्तियों को अधिसूचित करती है।

सरकार और शीर्ष अदालत के बीच असहमति की स्थिति में, सरकार ऐसे नामों को एससी कॉलेजियम को पुनर्विचार के लिए वापस भेज देता है। लेकिन एक बार जब एससी कॉलेजियम उसी नाम को दोहराता है, तो सरकार मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली के अनुसार उस व्यक्ति को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने के लिए बाध्य हो जाती है।

करीब-करीब सभी संस्थानों में यही स्थिति है

ऐसा नहीं है कि यह स्थिति न्यायालयों में ही मौजूद है जबकि न्यायालयों में तो आरक्षण का प्रावधान भी नहीं है। यह स्थिति उन संस्थानों में और भी अधिक दुखद है जहां वंचित तबकों के लिए आरक्षण मौजूद और इन तबकों से रिक्त नियुक्तियों को भरना संस्थानों की संवैधानिक ज़िम्मेदारी है। उदाहरण के लिए एम्स का मामला लें जिसमें 1,111 फैकल्टी पदों में से, सहायक प्रोफेसरों के लिए कुल 275 पद थे और प्रोफेसरों के लिए 92 पद खाली पड़े थे। हालांकि, मीडिया रिपोर्ट के बाद संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि योग्य, सक्षम और अनुभवी होने के बावजूद आरक्षित वर्ग के डॉक्टरों को संकाय पदों पर नियुक्त नहीं किया जा रहा है।

ऐसा ही मामला मीडिया में भी पाया गया था। जब ऑक्सफैम इंडिया-न्यूज़लॉन्ड्री द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट में दर्शाया गया था कि भारत में मीडिया के ऊंचे पदों पर 90 प्रतिशत कब्ज़ा उच्च जाति से संबद्ध रखने वाले लोगों का है, और चौंकाने वाला तथ्य यह है कि एक भी दलित या आदिवासी, भारतीय मुख्यधारा के मीडिया के नेतृत्व का हिस्सा नहीं है।

इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि दलितों/आदिवासियों के खिलाफ भेदभाव संस्थागत और व्यवस्थागत भेदभाव है लेकिन अल्पसंख्यक और अन्य पिछड़ा वर्ग भी इसका भयंकर रूप से शिकार है। आज़ादी के अमृतकाल में भी ये तबके अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं और विडंबना की बात ये है कि कोई सुनने वाला नहीं।

Courtesy: Newsclick

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