राम जन्मभूमि- बाबरी मस्जिद मामले में लंबे समय की मुकदमेबाजी के बाद आखिर सर्वोच्च न्याजयालय का फैसला आया है। इससे पहले इस पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ का फैसला 2010 में आया जिसमें विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांटकर मुकदमा लड़ रहे तीन पक्षों- निर्मोही अखाड़ा, रामलला विराजमान और सुन्नी वक्फ बोर्ड को बांटा गया था। तीनों पक्ष इससे असहमत होकर सुप्रीम कोर्ट आए थे। इसका अलग से आपराधिक मुकदमा चल रहा है। इस पर अभी निचली अदालत का फैसला आना बाकी है। इस बीच 1992 में आरएसएस-भाजपा द्वारा बाबरी मस्जिद का ध्वंस कर दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट में कोई पक्ष अपना दावा साबित नहीं पाया। यह भी साबित नहीं हो पाया कि बाबरी मस्जिद का निर्माण किसी मंदिर या राम मंदिर को तोड़कर हुआ था। ऐसे में 6 दिसंबर 1992 में मस्जिद का ध्वंस का अपराध और संगीन हो जाता है। लेकिन इसमें हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बाबरी मस्जिद की नींव इससे पहले 1949 से ही कमजोर होना शुरू हो गई थी जब उसमें रामलला की प्रतिमा चोरी-चुपके रखी गईं और तत्कालीन सरकार ने उसे तत्काल हटाने की कोई कार्रवाई नहीं की। नींव 1986 में उस समय और कमजोर हो गई जब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने केस निर्णित होने से पहले ही ताला खुलवाया और वहां मंदिर का शिलान्यास कर दिया। इतनी कमजोर हो चुकी नींव वाली मस्जिद विवादित ढांचा भर रह गई और अंतत ध्वस्त कर दी गई।
सजप यह पाती है कि सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दुत्ववादियों द्वारा बाबरी मस्जिद ध्वंस को ग़ैरकानूनी ठहराया है लेकिन उसका फैसला इस कृत्य को वैधता प्रदान करता है। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत मिली शक्तियों का उपयोग करते हुए विवादित भूमि पर किसी पक्ष द्वारा दावा साबित न कर पाने की स्थिति में विवादित भूमि एक पक्ष को देकर केंद्र व राज्य सरकार को वहां मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट बनाने का निर्देश दिया है। यह फैसला विवाद को समाप्त करने के लिए वस्तुस्थिति से अलग हटकर पंचायती करने जैसा है। लेकिन अदालत एकतरफा आदेश के चलते दोनों पक्षों के साथ ही देश के न्याय पसंद लोगों को संतुष्ट करने में असफल रहा है। इस तरह की पंचायती तब तक को ठीक कही जाती जब तक मस्जिद नहीं ढहाई गई थी। लेकिन मस्जिद ध्वंस के बाद विध्वंसकारियों के पक्ष में इस तरह की पंचायत में बहुसंख्यकवाद की ओर झुकाव दिख रहा है जो देश के लिए शुभ संकेत नहीं है।
इस फैसले के बाद से कुछ लोग बार बार यह कह रहे हैं कि अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सबको चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए। उसकी आलोचना नहीं होनी चाहिए। इस समय ऐसा कहने वालों में उनकी संख्या ज्यादा है जो कुछ समय पहले तक यह कहते थे कि मंदिर के पक्ष में फैसला नहीं आया तो कानून बना कर उसे बदला जाएगा। ऐसा कहते हुए वे शाहबानो प्रकरण का उदाहरण देते थे। बताते थे कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदला जा सकता है।
दरअसल यहां मसलास्वीकार-अस्वीकार का नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के अनेक बेतुके फैसले भी इस देश ने स्वीकार ही किए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अतीत में कई बेतुके फैसले दिए हैं। अपने ही बनाए नियम उसने तोड़े हैं। नर्मदा बांध मामले में पर्यावरण को ताक पर रख कर सुप्रीम कोर्ट ने विकास की एक बेतुकी परियोजना के पक्ष में फैसला दिया। हजारों लोग बेघर हुए। लेकिन एक दूसरे मामले में उसी पर्यावरण की दुहाई देकर सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली से सैकड़ों फैक्ट्रियों को बाहर कर दिया। फिर हजारों, लाखों लोग बेरोजगार हुए, वह फैसला भी स्वीकार किया गया।
देश ने सुप्रीम कोर्ट के सभी फैसले इसलिए स्वीकार किए क्योंकि उन्हें अस्वीकार करने से व्यवस्था टूट जाएगी, अराजकता फैलेगी और देश संकट में होगा। लेकिन स्वीकार करने का यह मतलब नहीं है कि उसकी विवेचना नहीं की जाए। फैसले की विवेचना होनी चाहिए. उसके असर का मूल्यांकन होना चाहिए। सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं पर चर्चा होनी चाहिए। इससे भविष्य में न्यायिक प्रक्रिया मजबूत होती है। समाज में न्यायिक चेतना विकसित होती है। न्याय और अन्याय का भेद पता चलता है। न्याय और अन्याय के बीच समझौते का भी एक विकल्प होता है, जहां दोनों ही पक्ष थोड़ा हारते हैं, थोड़ा जीतते हैं।
फैसले पर गौर करने से साफ है कि अदालत ने बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की है ताकि टकराव टाला जा सके। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने सर्वधर्म समभाव वाला बेंच तैयार किया था, और उस बेंच ने सुलह का फॉर्मूला आम सहमति से निकालने की कोशिश की। लेकिन फैसले से एक पक्ष में पाने का और दूसरे पक्ष में खोने का अहसास पैदा हो गया है।
मौजूदा सरकार को भी देश के भविष्य से कोई मतलब नहीं है। तात्कालिक फायदे के लिए सरकार भविष्य से खिलवाड़ करने पर उतारू है। इस फैसले होना तो यह चाहिए था कि कोर्ट मस्जिद की ही तरह मंदिर के लिए भी कहीं और जगह जमीन उपलब्ध कराती और जमीन अपने कब्जे में रखती। दुनिया में इस तरह के उदाहरण मौजूद भी है। तुर्की की सोफिया मस्जिद इसका सटीक प्रमाण है। हजार साल की इस मस्जिद को अतातुर्क कमाल पाशा ने बैजेंटाइन काल का संग्रहालय बना दिया था।
इस समय सवाल देश की लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, सह अस्तित्व की परंपरा को बनाए रखने और बचाने का है। इस फैसले को इस उम्मीद, सतर्कता और जिम्मेदारी के साथ स्वीकार किया जा सकता है कि इस तरह के असंख्य विवादों पर आगे पूर्ण विराम लग जाए। देश की करीब तीन हजार साल की ज्ञात इतिहास में अनेक ऐसी घटनाएं हैं जिनमें जैन, बौद्ध और वैदिक परंपरा के पूजास्थलों, पूजनीय प्रतिमाओं का ध्वंस, उनका दूसरे मतावलंबियों द्वारा हरण किया गया है।
अब व्यवस्था होनी चाहिए कि आगे ये मुद्दे विवाद का कारण न बन पाएं। सरकार, संविधान, न्यायपालिका और वृहत्तर तौर पर समाज को यह मन से स्वीकार करना चाहिए कि संसद द्वारा 1991 में पारित ‘प्लेसेज ऑफ वर्शिप कानून’ का पालन किया जाएगा, जिसमें धर्मस्थलों की 15 अगस्त 1947 की स्थिति मानी गई है। सजप मानती है कि देश की धर्मनिरपेक्ष राजनीति की कमजोरियों को उजागर करने की जरूरत है। इसे नए सिरे से व्याख्यायित करने की जरूरत है और ‘अभी तो केवल झांकी है। काशी,मथुरा बाकी है।‘, ‘तीन नहीं, अब तीस हजार, बचे न एको कब्र, मजार’ जैसी मानसिकता और विचारधाराओं से निरंतर संघर्ष जारी रखने की जरूरत है।
सुप्रीम कोर्ट में कोई पक्ष अपना दावा साबित नहीं पाया। यह भी साबित नहीं हो पाया कि बाबरी मस्जिद का निर्माण किसी मंदिर या राम मंदिर को तोड़कर हुआ था। ऐसे में 6 दिसंबर 1992 में मस्जिद का ध्वंस का अपराध और संगीन हो जाता है। लेकिन इसमें हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बाबरी मस्जिद की नींव इससे पहले 1949 से ही कमजोर होना शुरू हो गई थी जब उसमें रामलला की प्रतिमा चोरी-चुपके रखी गईं और तत्कालीन सरकार ने उसे तत्काल हटाने की कोई कार्रवाई नहीं की। नींव 1986 में उस समय और कमजोर हो गई जब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने केस निर्णित होने से पहले ही ताला खुलवाया और वहां मंदिर का शिलान्यास कर दिया। इतनी कमजोर हो चुकी नींव वाली मस्जिद विवादित ढांचा भर रह गई और अंतत ध्वस्त कर दी गई।
सजप यह पाती है कि सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दुत्ववादियों द्वारा बाबरी मस्जिद ध्वंस को ग़ैरकानूनी ठहराया है लेकिन उसका फैसला इस कृत्य को वैधता प्रदान करता है। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत मिली शक्तियों का उपयोग करते हुए विवादित भूमि पर किसी पक्ष द्वारा दावा साबित न कर पाने की स्थिति में विवादित भूमि एक पक्ष को देकर केंद्र व राज्य सरकार को वहां मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट बनाने का निर्देश दिया है। यह फैसला विवाद को समाप्त करने के लिए वस्तुस्थिति से अलग हटकर पंचायती करने जैसा है। लेकिन अदालत एकतरफा आदेश के चलते दोनों पक्षों के साथ ही देश के न्याय पसंद लोगों को संतुष्ट करने में असफल रहा है। इस तरह की पंचायती तब तक को ठीक कही जाती जब तक मस्जिद नहीं ढहाई गई थी। लेकिन मस्जिद ध्वंस के बाद विध्वंसकारियों के पक्ष में इस तरह की पंचायत में बहुसंख्यकवाद की ओर झुकाव दिख रहा है जो देश के लिए शुभ संकेत नहीं है।
इस फैसले के बाद से कुछ लोग बार बार यह कह रहे हैं कि अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सबको चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए। उसकी आलोचना नहीं होनी चाहिए। इस समय ऐसा कहने वालों में उनकी संख्या ज्यादा है जो कुछ समय पहले तक यह कहते थे कि मंदिर के पक्ष में फैसला नहीं आया तो कानून बना कर उसे बदला जाएगा। ऐसा कहते हुए वे शाहबानो प्रकरण का उदाहरण देते थे। बताते थे कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदला जा सकता है।
दरअसल यहां मसलास्वीकार-अस्वीकार का नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के अनेक बेतुके फैसले भी इस देश ने स्वीकार ही किए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अतीत में कई बेतुके फैसले दिए हैं। अपने ही बनाए नियम उसने तोड़े हैं। नर्मदा बांध मामले में पर्यावरण को ताक पर रख कर सुप्रीम कोर्ट ने विकास की एक बेतुकी परियोजना के पक्ष में फैसला दिया। हजारों लोग बेघर हुए। लेकिन एक दूसरे मामले में उसी पर्यावरण की दुहाई देकर सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली से सैकड़ों फैक्ट्रियों को बाहर कर दिया। फिर हजारों, लाखों लोग बेरोजगार हुए, वह फैसला भी स्वीकार किया गया।
देश ने सुप्रीम कोर्ट के सभी फैसले इसलिए स्वीकार किए क्योंकि उन्हें अस्वीकार करने से व्यवस्था टूट जाएगी, अराजकता फैलेगी और देश संकट में होगा। लेकिन स्वीकार करने का यह मतलब नहीं है कि उसकी विवेचना नहीं की जाए। फैसले की विवेचना होनी चाहिए. उसके असर का मूल्यांकन होना चाहिए। सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं पर चर्चा होनी चाहिए। इससे भविष्य में न्यायिक प्रक्रिया मजबूत होती है। समाज में न्यायिक चेतना विकसित होती है। न्याय और अन्याय का भेद पता चलता है। न्याय और अन्याय के बीच समझौते का भी एक विकल्प होता है, जहां दोनों ही पक्ष थोड़ा हारते हैं, थोड़ा जीतते हैं।
फैसले पर गौर करने से साफ है कि अदालत ने बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की है ताकि टकराव टाला जा सके। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने सर्वधर्म समभाव वाला बेंच तैयार किया था, और उस बेंच ने सुलह का फॉर्मूला आम सहमति से निकालने की कोशिश की। लेकिन फैसले से एक पक्ष में पाने का और दूसरे पक्ष में खोने का अहसास पैदा हो गया है।
मौजूदा सरकार को भी देश के भविष्य से कोई मतलब नहीं है। तात्कालिक फायदे के लिए सरकार भविष्य से खिलवाड़ करने पर उतारू है। इस फैसले होना तो यह चाहिए था कि कोर्ट मस्जिद की ही तरह मंदिर के लिए भी कहीं और जगह जमीन उपलब्ध कराती और जमीन अपने कब्जे में रखती। दुनिया में इस तरह के उदाहरण मौजूद भी है। तुर्की की सोफिया मस्जिद इसका सटीक प्रमाण है। हजार साल की इस मस्जिद को अतातुर्क कमाल पाशा ने बैजेंटाइन काल का संग्रहालय बना दिया था।
इस समय सवाल देश की लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, सह अस्तित्व की परंपरा को बनाए रखने और बचाने का है। इस फैसले को इस उम्मीद, सतर्कता और जिम्मेदारी के साथ स्वीकार किया जा सकता है कि इस तरह के असंख्य विवादों पर आगे पूर्ण विराम लग जाए। देश की करीब तीन हजार साल की ज्ञात इतिहास में अनेक ऐसी घटनाएं हैं जिनमें जैन, बौद्ध और वैदिक परंपरा के पूजास्थलों, पूजनीय प्रतिमाओं का ध्वंस, उनका दूसरे मतावलंबियों द्वारा हरण किया गया है।
अब व्यवस्था होनी चाहिए कि आगे ये मुद्दे विवाद का कारण न बन पाएं। सरकार, संविधान, न्यायपालिका और वृहत्तर तौर पर समाज को यह मन से स्वीकार करना चाहिए कि संसद द्वारा 1991 में पारित ‘प्लेसेज ऑफ वर्शिप कानून’ का पालन किया जाएगा, जिसमें धर्मस्थलों की 15 अगस्त 1947 की स्थिति मानी गई है। सजप मानती है कि देश की धर्मनिरपेक्ष राजनीति की कमजोरियों को उजागर करने की जरूरत है। इसे नए सिरे से व्याख्यायित करने की जरूरत है और ‘अभी तो केवल झांकी है। काशी,मथुरा बाकी है।‘, ‘तीन नहीं, अब तीस हजार, बचे न एको कब्र, मजार’ जैसी मानसिकता और विचारधाराओं से निरंतर संघर्ष जारी रखने की जरूरत है।