कविता : मीलों पैदल निकले हैं, यह चाह नहीं लाचारी है

Written by Shashi Sachdeva | Published on: May 21, 2020
मीलों पैदल निकले हैं, यह चाह नहीं लाचारी है।
बिन आए ही मार गई है, यह कैसी बीमारी है।।



इक दिन पता चला रात को, देश हमारा बंद हो गया।
जिस धंधे से रोज़ी थी, उसका चलना बंद हो गया।।
जिस ढाबे में खाते थे, उसका खाना बंद हो गया।
जिस गाड़ी से घर जाते थे, उसका जाना बंद हो गया।।

अब सबको घर के अंदर, हफ़्तों यूँही रहना है।
कमरे में हम छह रहते थे, अब छह फ़ुट दूर ही  रहना है।।

कुछ दिन की है बात समझ के, हम भी घर में चुप बैठे थे।
जब भी हमें बताया, हम भी थाली ठोक लिया करते थे।।
कर्मठ बनने आए थे, भिक्षुक बन भिक्षा ले आते थे।
धन्य है वो पुण्य कर्मी, दाल रोटी जो दे जाते थे।।

फिर ये लगा रातें लम्बी हैं, सवेरा इतनी जल्द ना होगा।
जन जीवन पे लगा ये ग्रहण, कुछ दिन में ये ख़त्म न होगा।।
सब कुछ छोड़के, जैसा भी हो, हम तो अपने घर जाएँगे।
कुछ दिन फिर से अपनी माँ, के आँचल में जा छुप जाएँगे।।

पर घर जाना नामुमकिन था, हर पथ पर दीवार खड़ी थी।
अपने हाथ में डंडे लेकर, पुलिस भी तो तैयार खड़ी थी।।
सब को चिंता यह थी, कि हम गए तो वापिस ना आयेंगे।
विदेशों  से आयी बीमारी, हम अपने गाँव में ले जाएँगे।।

निकल पड़े हम फिर छुप छुप कर, अपने घर के रास्ते पे।
कोई पैदल निकल पड़ा, कोई कंटेनर बक्से पे।।
कोई सोचा रेल की पटरी,  हमको घर ले जाएगी।
ये ना पता था सबको, मौत के घाट सुलाएगी।।

अब भी पता नहीं क्या होगा, कब हम कुछ कर पाएँगे।
कब आएगी बारी अपनी, कब अपनी बात सुनायेंगे।।
क्या वो सपने पूरे होंगे, जिन्हें लिए हम आए थे।
या इस क़हर की आँधी में, हम यूँ ही मिट जाएँगे।।

सबकी रक्षा हो इस ख़ातिर, देश ने की तैयारी है।
बिन आए ही मार गयी है, ये कैसी बीमारी है।।
         —शशि सचदेवा

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