सुप्रीम कोर्ट द्वारा अयोध्या मामले पर दिए गए फैसले पर काफी लोग असंतोष भी जता रहे हैं। कानून के कई जानकार इस फैसले को दूसरे नजरिए से देखते हैं और उनका मानना है कि यह फैसला धार्मिक आस्था को ध्यान में रखकर दिया गया है और यह भविष्य में ढेर सारी दिक्कतों को जन्म देने वाला है। ‘द टेलिग्राफ’ की एक रिपोर्ट में कई कानूनी विशेषज्ञों ने फैसले को एक चुनौती करार दिया है। उनका मानना है कि अयोध्या टाइटल सूट पर फैसला राम भक्तों की “आस्था एवं विश्वास” को ध्यान में रखकर दिया गया और आगामी दिनों में देश के भीतर इस तरह मुकदमेबाजी और बढ़ सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने विवादित जमीन पर हिंदुओं को राम मंदिर बनाने की अनुमति दे दी। जबकि, इस स्थान पर 1992 तक अस्तित्व में रही बाबरी मस्जिद के लिए अलग जगह जमीन आवंटित करने के लिए सरकार को आदेश दिया है। शीर्ष अदालत ने सुनवाई के दौरान न सिर्फ पुरातत्व निष्कर्षों का हवाला दिया है, बल्कि निचली अदालतों में हुई गवाहियां, धार्मिक ग्रंथ, यात्रावृत्तांत और औपनिवेशिक काल के ऑफिशल गजट को भी प्रमाण के रूप में माना।
सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज न्यायमूर्ति अशोक कुमार गांगुली ने शनिवार को कहा कि अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उनके मन में संशय पैदा कर दिया है और वे “बेहद परेशान” हैं।
72 वर्षीय न्यायमूर्ति गांगुली ने 2012 में 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में फैसला दिया था जिसे उस समय के विपक्ष, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने खूब पसंद किया था। उन्होंने कहा, “अल्पसंख्यकों ने पीढ़ियों से देखा है कि वहां एक मस्जिद थी। इसे गिरा दिया गया था। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार उसके ऊपर एक मंदिर बनाया जा रहा है। इससे मेरे मन में एक शंका पैदा हो गई है .... संविधान के एक छात्र के रूप में मेरे लिए इसे स्वीकार करना थोड़ा मुश्किल है"। उन्होंने बताया कि शनिवार के फैसले में कहा गया है कि किसी जगह पर जब नमाज पढ़ी जाती है तो नमाजी के इस विश्वास को चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वहां मस्जिद है।
द टेलिग्राफ की रिपोर्ट में हैदराबाद में नालसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के कुलपति फैजान मुस्तफा का कहना है, “किसी भी फैसले की तरह इस फैसले में भी समस्याएं हैं। क्या संपत्ति विवादों को तय करने में आस्था को आधार माना जा सकता है, यह एक बड़ा सवाल है जो आगामी दिनों में कई सारे मुकदमों को जन्म देगा।” मुस्तफा का मानना है कि विवादित स्थल के मुस्लिम पक्ष पर सबूतों को लेकर ज्यादा दबाव था, जबकि हिंदुओं के लिए उनकी आस्था को बिना व्यापक पड़ताल के अहमियत दी गई। इस दौरान मुस्लिम पक्ष द्वारा पेश किए गए रिवेन्यू रिकॉर्ड और राजपत्रों (गजट) को खारिज किया गया।
‘द टेलिग्राफ’ ने अन्य विशेषज्ञों की राय भी अपनी रिपोर्ट में पब्लिश की है। जिसमें आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वी एश्वरैया ने उस आस्था पर सवाल खड़े किए हैं कि भगवान किसी विशेष स्थान पर या किसी वस्तु में विद्यमान हैं। वह कहते हैं, “हमें निर्णय को स्वीकार करना होगा, लेकिन लोगों को यह भी महसूस कराना चाहिए कि भगवान किसी पदार्थ विशेष में मौजूद नहीं हैं। ईश्वर पदार्थ से परे है।” मीडिया रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट के वकील महमूद प्राचा ने भी माना कि कानूनी विवाद को सुझलाने का आधार आस्था और विश्वास नहीं हो सकते।
प्राचा का कहना है कि अदालत का फैसला बड़ा ही विरोधाभासी है, क्योंकि उसने उस पक्ष का समर्थन किया, जिसने दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराकर कानून का उल्लंघन किया था। उन्होंने उस आम डर के बारे में भी जिक्र किया है, जिसमें देश के अन्य धार्मिक स्थलों के पास बने मस्जिदों को लेकर है। उनका कहना है कि हमारा डर देश में बने हजारों मस्जिदों के बारे में है, जिनमें मथुरा और काशी की मस्जिद शामिल है।
गौरतलब है कि 1991 में संसद ने 15 अगस्त 1947 के बाद अधिकार क्षेत्र में आए देश के तमाम धार्मिक स्थलों की रक्षा के लिए एक कानून पारित किया था, लेकिन प्राचा का मनना है कि शायद ही इस कानून का अब सम्मान हो पाए।
सर्वोच्च न्यायालय ने विवादित जमीन पर हिंदुओं को राम मंदिर बनाने की अनुमति दे दी। जबकि, इस स्थान पर 1992 तक अस्तित्व में रही बाबरी मस्जिद के लिए अलग जगह जमीन आवंटित करने के लिए सरकार को आदेश दिया है। शीर्ष अदालत ने सुनवाई के दौरान न सिर्फ पुरातत्व निष्कर्षों का हवाला दिया है, बल्कि निचली अदालतों में हुई गवाहियां, धार्मिक ग्रंथ, यात्रावृत्तांत और औपनिवेशिक काल के ऑफिशल गजट को भी प्रमाण के रूप में माना।
सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज न्यायमूर्ति अशोक कुमार गांगुली ने शनिवार को कहा कि अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उनके मन में संशय पैदा कर दिया है और वे “बेहद परेशान” हैं।
72 वर्षीय न्यायमूर्ति गांगुली ने 2012 में 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में फैसला दिया था जिसे उस समय के विपक्ष, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने खूब पसंद किया था। उन्होंने कहा, “अल्पसंख्यकों ने पीढ़ियों से देखा है कि वहां एक मस्जिद थी। इसे गिरा दिया गया था। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार उसके ऊपर एक मंदिर बनाया जा रहा है। इससे मेरे मन में एक शंका पैदा हो गई है .... संविधान के एक छात्र के रूप में मेरे लिए इसे स्वीकार करना थोड़ा मुश्किल है"। उन्होंने बताया कि शनिवार के फैसले में कहा गया है कि किसी जगह पर जब नमाज पढ़ी जाती है तो नमाजी के इस विश्वास को चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वहां मस्जिद है।
द टेलिग्राफ की रिपोर्ट में हैदराबाद में नालसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के कुलपति फैजान मुस्तफा का कहना है, “किसी भी फैसले की तरह इस फैसले में भी समस्याएं हैं। क्या संपत्ति विवादों को तय करने में आस्था को आधार माना जा सकता है, यह एक बड़ा सवाल है जो आगामी दिनों में कई सारे मुकदमों को जन्म देगा।” मुस्तफा का मानना है कि विवादित स्थल के मुस्लिम पक्ष पर सबूतों को लेकर ज्यादा दबाव था, जबकि हिंदुओं के लिए उनकी आस्था को बिना व्यापक पड़ताल के अहमियत दी गई। इस दौरान मुस्लिम पक्ष द्वारा पेश किए गए रिवेन्यू रिकॉर्ड और राजपत्रों (गजट) को खारिज किया गया।
‘द टेलिग्राफ’ ने अन्य विशेषज्ञों की राय भी अपनी रिपोर्ट में पब्लिश की है। जिसमें आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वी एश्वरैया ने उस आस्था पर सवाल खड़े किए हैं कि भगवान किसी विशेष स्थान पर या किसी वस्तु में विद्यमान हैं। वह कहते हैं, “हमें निर्णय को स्वीकार करना होगा, लेकिन लोगों को यह भी महसूस कराना चाहिए कि भगवान किसी पदार्थ विशेष में मौजूद नहीं हैं। ईश्वर पदार्थ से परे है।” मीडिया रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट के वकील महमूद प्राचा ने भी माना कि कानूनी विवाद को सुझलाने का आधार आस्था और विश्वास नहीं हो सकते।
प्राचा का कहना है कि अदालत का फैसला बड़ा ही विरोधाभासी है, क्योंकि उसने उस पक्ष का समर्थन किया, जिसने दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराकर कानून का उल्लंघन किया था। उन्होंने उस आम डर के बारे में भी जिक्र किया है, जिसमें देश के अन्य धार्मिक स्थलों के पास बने मस्जिदों को लेकर है। उनका कहना है कि हमारा डर देश में बने हजारों मस्जिदों के बारे में है, जिनमें मथुरा और काशी की मस्जिद शामिल है।
गौरतलब है कि 1991 में संसद ने 15 अगस्त 1947 के बाद अधिकार क्षेत्र में आए देश के तमाम धार्मिक स्थलों की रक्षा के लिए एक कानून पारित किया था, लेकिन प्राचा का मनना है कि शायद ही इस कानून का अब सम्मान हो पाए।