तीन तलाक़ पर आपने जो भी राय बनाई है, वह राय कहां से पाई है?

Written by Ravish Kumar | Published on: June 24, 2019
''अनुच्छेद 25 सभी संवैधानिक अदालतों से अपेक्षा करता है वे पर्सनल लॉ को संरक्षण प्रदान करें न कि उनमें कमियां निकालें। पर्सनल लॉ के मामले में दखलंदाज़ी न्यायिक परीक्षण के दायरे के बाहर की चीज़ है।''



हिन्दी में यह पंक्ति अंग्रेज़ी में लिखी उस पंक्ति का अनुवाद है जिसे चीफ जस्टिस केहर और जस्टिस अब्दुल नज़ीर ने अगस्त 2017 के अपने फैसले में लिखा था। जिस फ़ैसले से एक बार में तीन तलाक पर रोक लगी थी। यह फ़ैसला साफ़ करता है कि पर्सनल लॉ को संवैधिनक संरक्षण हासिल है। पर्सनल लॉ सिर्फ मुसलमानों के नहीं होते हैं। अन्य धर्मों के भी होते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उस फ़ैसले में एक बार में यानी एक झटके में तीन तलाक़ पर रोक लगाई थी। क़ुरआन में तीन तलाक़ नहीं हैं। तलाक की बेहद व्यवस्थित प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के हर चरण में औरतों को ज़्यादा हक़ दिया गया है। इसलिए क़ुरआन में तलाक़ की कई विधि है और उनकी कई प्रक्रियाएं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उन सभी विधियों में हस्तक्षेप नहीं किया है। उन्हें यथावत रहने दिया है। तीन तलाक़ को भी अवैध नहीं माना है। क़ुरआन के मुताबिक़ बताई कई प्रक्रिया के तहत तीन बार में तलाक़ दिए जा सकते हैं। सिर्फ एक बार में तीन तलाक़ बोलने पर तलाक़ नहीं होगा।

तीन तलाक़ पर आपकी राय होगी। अवश्य होनी चाहिए। मगर कुछ सवाल ख़ुद से करें। आपकी यह राय कैसे बनी है। क्या इसके लिए आपने सुप्रीम कोर्ट का 395 पन्नों का फ़ैसला पढ़ा है? क्या आपने इस पर कई तरह के लेख पढ़े हैं जो मेहनत से पक्ष-विपक्ष में लिखे गए हों या फिर भी आपने व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी की विधि का सहारा लिया है? अगर आपने अपनी राय चाहे पक्ष में हो या विपक्ष में न्यूज़ चैनलों के आधार पर बनाई है तो आपको शर्म आनी चाहिए। इतने बड़े सार्वजनिक मसले पर आपने राय बनाने के लिए कोई परिश्रम नहीं की। तीन तलाक़ पर कितनी बहस हुई है। न्यूज़ चैनलों पर हर दूसरी तीसरी शाम इस विषय पर डिबेट चला है। संसद में हुई है। सुप्रीम कोर्ट में हुई है। यह आपके विवेक के सम्मान का प्रश्न है। आप अपने विवेक को कैसे समृद्ध करते हैं, इसके लिए कितना श्रम करते हैं, इस पर निर्भर करता है कि आप किसी सार्वजनिक मसले में हिस्सेदारी से पहले कितनी मेहनत करते हैं। यह सवाल मोदी समर्थकों से भी है और मोदी विरोधियों से भी है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ को अक्सर हम कानून समझ लेते है क्योंकि इसमें लॉ जुड़ा है। यह लॉ नहीं है। नियमों और निर्देशों की व्याख्या है। जो कोई भी परंपरा, विवेक या पवित्र क़िताब के आधार पर करता है। आर्टिकल 26 सिर्फ धर्मों की आज़ादी को ही संरक्षित नहीं करता है बल्कि वह एक संप्रदाय को भी संरक्षित करता है। आप किसी संप्रदाय पर किसी धर्म विशेष की व्यापक पंरपरा या धार्मिक निर्देशों को नहीं थोप सकते हैं। उम्मीद है आप संप्रदाय और धर्म में अंतर समझते होंगे।

फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने लिखा है कि ब्रिटिश भारत में जब The Dissolution of Muslim Marriage Act 1939 था। इस एक्ट को हनीफ़ा स्कूल के मौलानाओं के प्रभाव में पास किया जो मालिकी कानून को मानते थे। उस वक्त उन्होंने तीन तलाक पर कोई तार्किक स्टैंड नहीं लिया जो ज़्यादा उदारवादी मत रखते थे। क्यों नहीं ऐसा किया इसके कारण स्पष्ट नहीं हैं। अगर शुरू से ही यह स्पष्टता होती तो यह संकट यहां तक नहीं आता। क़ुरआन में तीन तलाक़ की जिस प्रक्रिया का ज़िक्र है उसे देखकर लगता है कि किसी भी संवैधानिक कानून में तलाक़ के जितने भी कानून हैं, उन पर क़ुरआन का ही प्रभाव दिखता होगा। क्योंकि इसके पहले किसी धर्म विशेष के किसी मुख्य ग्रंथ में औरतों को कई कारणों से असफ़ल विवाह से निकलने के इतने रास्ते नहीं बताए गए हैं। यह मेरी राय है जबकि मैं सभी धर्म ग्रंथों का एक्सपर्ट नहीं हूं। संवैधानिक कानून भी तलाक़ का फ़ैसला देने से पहले पति पत्नी के बीच सुलह के लिए लंबा वक्त देते हैं।

तीन तलाक़ पर जनमानस में सिनेमाई छवि उस फिल्म से बनती है जिसमें दीपक पराशर और सलमा आग़ा ने काम किया था। जिसका नाम निक़ाह था। तीन तलाक़ का वजूद नहीं है यह नहीं कहना चाहिए। वजूद था तभी तो कुछ मुस्लिम औरतें कोर्ट में गईं लेकिन इसे लेकर जिस तरह का राजनीतिक शामियाना ताना गया उसके अनुपात में यह समस्या इतनी तो बड़ी नहीं थी। फिर भी स्वागत ही करना चाहिए कि एक बार में तीन तलाक़ के झंझट से ही मुक्ति मिल गई। 2011 की जनगणना के मुताबिक मात्र 0.49 प्रतिशत मुस्लिम महिलाओं को तालाक़ दिया गया था। संख्या कितनी छोटी है। इस 0.49 प्रतिशत तलाक में सभी तीन तलाक़ वाली नहीं थीं। क़ुरआन में तलाक़ की कई विधियां हैं। एक विधि है खुला जो औरतों को हासिल है। औरत चाहें तो अपनी तरफ़ से खुला के तहत नकारे मर्द को टाटा बाय बाय कर सकती हैं।

क़ुरआन को पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि इसमें देवी की कल्पना नहीं है। बल्कि सारी कल्पना पति को बेहतर पति बनने के लिए की गई है। पत्नी से उम्मीद नहीं की जाती है कि वह दस लोगों का खाना बनाएगी। पति से उम्मीद की जाती है कि वह पत्नी के काम में मदद करे। हकीकत में कितना होता है अलग बात है, भारत में किसी भी धर्म के मर्दों की क्वालिटी वैसे ही बहुत ख़राब है। स्त्रियां उनसे शादी कर लेती हैं यही बहुत है। कई बार मुझे हैरानी होती है कि भारत की लड़कियां भारतीय लड़कों से शादी कैसे कर लेती हैं। पर ख़ैर। जाने दीजिए। आप अपने घरों में पिताओं को देख लीजिए। 99 फीसदी घरों में मेरी बात सही साबित होगी। पर आप मत देखिए। बहुत दुखी हो जाएंगे।

मैंने ये सारी बातें till talaq do us part (understanding triple talaq and khula) नाम की किताब पढ़ने के बाद लिखी है। ज़िया-उस-सलाम ( ziya-us-salam) ने अंग्रेज़ी में किताब लिखी है। बेहद हल्की अंग्रेज़ी है। इसे मेरी तरह ख़राब अंग्रेज़ी जानने वाला भी आराम से पढ़ सकता है और समझ सकता है। आप इस किताब को ज़रुर पढ़ें। तीन तलाक़ पर बहस तो होगी। वो मैं नहीं रोक सकता। न्यूज़ चैनलों को थीम और थ्योरी वाले टापिक चाहिए ताकि उस पर बहस कर वे अपने ख़ाली स्पेस को भर सकें। बस कोई पढ़कर, जानकारी जुटाकर उस बहस को समृद्ध नहीं करेगी। राजनीतिक एजेंडा पूरा करेगा। पेंग्विन ने यह किताब छापी है और कीमत भी बहुत कम है। 399 रुपये। पढ़िए और फिर पक्ष-विपक्ष में बहस करें। जो लिखा है वो हिन्दी में लिखा है, कमेंट करने से पहले पूरे लेख को ठीक से पढ़ लें और किताब भी पढ़ें।

वैसे धर्म को विज्ञान से जोड़ने वालों के लिए अगस्त 2017 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में एक लाइन लिखी है। मुझे हैरानी हुई कि किसी भी धर्म के लोगों ने हल्ला नहीं किया। धर्म आस्था का विषय है, तर्क का नहीं। अंग्रेज़ी में इसी बात को पढ़ सकते हैं। इसलिए पढ़ा कीजिए। बहस कीजिए मगर थोड़ा श्रम करने के बाद।

“ The practice ( triple talaq) being a component of ‘ Personal Law’ has the protection of Article 25 of the constitution. Religion is a matter of faith and not of logic. It is not open to a court to accept an egalitarian approach over a practice which constitutes an integral part of religion.’

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