अटल बिहारी वाजपेयीः उदार छवि का लबादा न ओढ़ते तो कभी प्रधानमंत्री नहीं बन पाते

Written by Rajiv Nayan Bahuguna | Published on: August 17, 2018
निसन्देह वह अपने दल और समूह के बीच सर्वाधिक उदार और कम ज़हरीले मनुष्य थे , लेकिन यदि वह अपनी इस छवि का लबादा न ओढ़ते, तो कभी प्रधान मंत्री न बन पाते । उन्हें विदित था कि दंगे कराने में वह आडवाणी का मुकाबला नहीं कर सकते, अतः उन्होंने मध्य मार्ग अपनाया, और आडवाणी के मुकाबले बढ़त ले ली। 



वह अब तक के सर्व श्रेष्ठ प्रधान मंत्री भी नहीं थे, जैसा कि कई लोग दावा करते हैं। लेकिन वह अब तक के दो प्रधान मंत्रियों से उत्तम थे । प्रथम पी वी नरसिंह राव , और दूसरे वर्तमान प्रधान मंत्री। शेष सभी प्रधान मंत्रियों से वह न केवल उन्नीस थे, बल्कि 18 या 17 भी थे। 

वह भीड़ के वक्ता थे, न कि सर्वश्रेष्ठ वक्ता। भीड़ भले उनके चुटकलों और डायलोगों पर तालियां पीटती थी , लेकिन बौद्धिकों को वह कभी भी नेहरू, जयप्रकाश, लोहिया, मधुलिमये , ज्योति बसु अथवा जॉर्ज़ फर्नांडिस की तरह संतुष्ट नहीं कर सकते थे।

कवि के रूप में वह एक तुक्कड़ से अधिक न थे। वह अन्य बड़े कवियों की नकल या पैरोडी भी करते थे। मसलन हरिवंशराय बच्चन की एक प्रसिद्ध कविता है - मिट्टी का तन , मस्ती का मन , क्षण भर जीवन मेरा परिचय। " इस पर अटल जी ने तुक जोड़ी - हिन्दू तन मन मेरा परिचय। " पर एक राजनेता के लिए इतना ही पर्याप्त है। साहित्य में गहरा पैठने पर वह राजनीति में फेल हो जाएगा।

यद्यपि वह अध्येता नहीं थे, बल्कि अध्ययनशील भी नहीं थे। पर उन राजनेताओं जैसे अनपढ़ भी न थे , जो भारत की जनसंख्या 6सौ करोड़ बता दें।

मेरी उनसे एक बार की मुलाक़ात है। वह नेता प्रतिपक्ष थे , जब टिहरी बांध विरोधी आंदोलन के सिलसिले में मेरे पिता ने मुझे अपना दूत बना कर उनके पास भेजा। मेरे पिता का नाम सुनते ही उन्होंने पहले मुंह बिचकाया , और फिर मुंह फेर कर बोले - अरे भई, बहुगुणा जी की तो बड़ी कृपा है मुझ पर। फिर चल दिये। उनकी यह व्यंग्योक्ति इस कारण थी, के मेरे पिता ने उनके 13 दिन के प्रधान मंत्री कार्यकाल में उनकी अपील, अथवा आदेश पर अपना अनशन खत्म न किया। तब मैं समझा कि वह अव्वल दर्जे के खुंदकी भी थे।

उनके दो बड़े योगदान हैं। प्रथम उन्होंने भारतीय विदेश नीति की पुरानी टेक न छोड़ी, किसी भी विदेशी दबाव के आगे न झुके, और दूसरे अर्थ व्यवस्था की ऐसी तैसी न की, जैसी आज हुई है ।

मैं उनके मरने पर उतना ही दुखी हूं, जितना उनके जीने पर था।

(नोट- ये लेखक के निजी विचार हैं। राजीव नयन बहुगुणा वरिष्ठ पत्रकार, पर्यावरणविद् हैं। ये लेख उनके फेसबुक पोस्ट में पहले प्रकाशित किया जा चुका है।)

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