खबरों के मुताबिक नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी जैसे तर्कवादी और अंधविश्वासों के खिलाफ अभियान चलाने वाले प्रगतिशील विचारकों-कार्यकर्ताओं की हत्या के मामले की जांच में देश की चर्चित एजेंसी सीबीआई ने एक तरह से खुद को नाकाम घोषित कर दिया है और अब वह इन मामलों की जांच के लिए 'स्कॉटलैंड यार्ड' का सहारा लेने जा रही है। इसके पहले अंधविश्वासों और तांत्रिकों के खिलाफ लड़ने वाले दाभोलकर के हत्यारों की खोज के लिए पुणे की पुलिस ने तांत्रिक की मदद लेने की कोशिश की थी। लेकिन अब तक देश की 'सर्वोत्कृष्ट' मानी जाने वाली जांच एजेंसियां अपने बूते कुछ पता नहीं सकीं कि ये हत्याएं किसने कीं, क्यों कीं।
दरअसल, यह एक ऐसे तंत्र का ब्योरा है, जिसमें समाज से शुरू कर होकर सत्ता-प्रतिष्ठानों तक में सामाजिक शासन की राजनीति घुली-मिली हुई है, जो अंधेरे में डूबते-उतराते समाज को उसी हालत मं बनाए रखने में लगी रहती है। उसके लिए उसे सत्ता की राजनीति करनी पड़े या फिर किसी की हत्या। यह राजनीति एक धर्म-तंत्र के परदे में, उसके सिरे से संचालित होती है। लेकिन इतना तय है कि नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे या एमएम कलबुर्गी जैसे प्रतीक उसे डराते हैं। इसलिए वह इनके खिलाफ किसी भी हद तक जाने से गुरेज नहीं करती। सवाल है कि इस डर के पीछे क्या है?
कुछ साल पहले कुछ कट्टरपंथी हिंदू समूहों ने इस बात पर संतोष जताया था कि महाराष्ट्र सरकार द्वारा लाए गए अंधविश्वास विरोधी कानून का भारी विरोध हुआ। वे समूह शायद इस तरह के कानून को हिंदुत्व को खत्म करने की साजिश मानते हैं। ऐसा करते हुए हिंदुत्व के वे उन्नायक खुद ही बता रहे थे कि चूंकि हिंदुत्व की बुनियाद अंधविश्वासों पर ही टिकी है, इसलिए अंधविश्वासों का खत्म होना, हिंदुत्व के खत्म होने जैसा होगा। हालांकि यह केवल हिंदुओं के धर्म-ध्वजियों का खयाल नहीं है। सभी धर्म और मत के 'उन्नायक' यही कहते हैं कि सवाल नहीं उठाओ, जो धर्म कहता है, उसका आंख मूंद कर पालन करो। और धर्म की सांस से जिंदा तमाम लोगों के भीतर का भय बाहर आने के लिए छटपटाते सारे सवालों की हत्या कर देता है। हमारी विडंबना यह है कि अपने जिन "उद्धारकों" से हम सवाल उठाने की उम्मीद कर रहे होते हैं, वे खुद एक ऐसा मायावी लोक तैयार करने में लगे होते हैं, जहां कोई सवाल नहीं होता। दरअसल, वे हमारे स्वघोषित "उद्धारक" होते ही इसीलिए हैं कि न केवल उनकी "भूदेव" की पदवी कायम रहे, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था भी अनंत काल तक बनी रहे, जिसमें अंधकार का साम्राज्य हो और समूचे समाज को अंधा बनाए रखा जा सके।
खासतौर पर जिस हिंदुत्व पर हम गर्व से अपनी छाती ठोंकते रहते हैं, उसमें यह साजिश ज्यादा विकृत इसलिए हो जाती है, क्योंकि यहां यह केवल आस्थाओं का कारोबार नहीं होता, बल्कि जन्म के आधार पर ऊंची और नीची कही जाने वाली जातियों की मानसिक और चेतनागत अवस्थिति बनाए रखने में भी अंधविश्वासों और आस्थाओं को हथियार के बतौर इस्तेमाल में लाया जाता है।
गोविंद पानसरे, नरेंद्र दाभोलकर कलबुर्गी जैसे लोग इन्हीं "उद्धारकों" की राह में मुश्किल खड़ी करते हैं, क्योंकि वे इंसान को दिमागी तौर पर शून्य बनाने वाले उन आस्थाओं-विश्वासों को सवालों के कठघरे में खड़ा करते हैं। और जाहिर है, ये सवाल चूंकि आखिरकार सामाजिक सत्ताओं के ढांचे को तोड़ते-फोड़ते हैं, इसलिए इस तरह के सवाल उठाने वाले लोगों से "मुक्ति" के लिए सीधे उन्हें खत्म करने का ही रास्ता अख्तियार किया जाता है।
जाहिर है, बेमानी पारलौकिक विश्वासों को हथियार बना कर जड़ता की व्यवस्था को बनाए रखने में लगे लोगों-समूहों के पास अपने पक्ष में कोई तर्क नहीं होता, इसलिए वे सवालों से डरते हैं। अव्वल तो उनकी कोशिश यह होती है कि एक पाखंड और धोखे पर आधारित व्यवस्था को लेकर किसी तरह का सवाल नहीं उठे और इसके लिए वे सवालों और संदेहों को आस्था का दुश्मन घोषित करते हैं। वहीं एक भय की उपज पारलौकिकता की धारणाओं-कल्पनाओं में जीता व्यक्ति सवाल या संदेह करने को अपनी "आस्था" की पवित्रता भंग होना मानता है। अगर किन्हीं स्थितियों में किसी व्यक्ति के भीतर आस्था के तंत्र के प्रति शंका पैदा होती है और वह इसे जाहिर करता है तो धर्माधिकारियों से लेकर उनके अनुचरों तक की ओर से उसकी आस्था में खोट बताया जाता है या उसे अपवित्र घोषित कर दिया जाता है।
इसके अलावा, सवालों से निपटने के लिए एक और तरीका अपनाया जाता है। सवाल उठाने वाले को संदिग्ध बता कर उसके सवालों पर पूरी तरह चुप्पी साध ली जाती है। इससे भी हारने के बाद अक्सर धर्माधिकारी यह कहते पाए जाते हैं कि प्रश्न उठाने वाला व्यक्ति "ईश्वर का ही दूत है... और ऐसा करके वह वास्तविक भक्तों की परीक्षा ले रहा है।" कई बार उसे मनुष्य-मात्र की दया का पात्र भी घोषित कर दिया जा सकता है। इसके बावजूद जब "धर्म" की व्यवस्था पर खतरा बढ़ता जाता है, तब खतरे का जरिया बने व्यक्ति की आवाज को शांत करने के लिए हत्या तक के रास्ते का सहारा लिया जाता है।
सामाजिक विकास के एक ऐसे दौर में, जब प्रकृति का कोई भी उतार-चढ़ाव या रहस्य समझना संभव नहीं था, तो कल्पनाओं में अगर पारलौकिक धारणाओं का जन्म हुआ होगा, तो उसे एक हद तक मजबूरी मान कर टाल दिया जा सकता है। लेकिन आज न सिर्फ ज्यादातर प्राकृतिक रहस्यों को समझ लिया गया है, बल्कि किसी भी रहस्य या पारलौकिकता की खोज की जमीन भी बन चुकी है। यानी विज्ञान ने यह तय कर दिया है कि अगर कुछ रहस्य जैसा है, तो उसकी कोई वजह होगी, उस वजह की खोज संभव है। तो ऐसे दौर में किसी बीमारी के इलाज के लिए तंत्र-मंत्र, टोना-टोटका का सहारा लेना, बलि चढ़ाना, मनोकामना के पूरा होने के लिए किसी बाबा या धर्माधिकारी जैसे व्यक्ति की शरण में जाना एक अश्लील उपाय लगता है। बुखार चढ़ जाए और मरीज या उसके परिजनों के दिमाग में यह बैठ जाए कि यह किसी भूत या प्रेत का साया है, यह चेतना के स्तर पर बेहद पिछड़े होने का सबूत है, भक्ति या आस्था निबाहने में अव्वल होने का नहीं। इस तरह की धारणाओं के साथ जीता व्यक्ति अपनी इस मनःस्थिति के लिए जितना जिम्मेदार है, उससे ज्यादा समाज का वह ढांचा उसके भीतर यह मनोविज्ञान तैयार करता है। पैदा होने के बाद जन्म-पत्री बनवाने से लेकर किसी भी काम के लिए मुहूर्त निकलवाने के लिए धर्म के एजेंटों का मुंह ताकना किसी के भी भीतर पारलौकिकता के भय को मजबूत करता जाता है और उसके व्यक्तित्व को ज्यादा से ज्यादा खोखला करता है।
सवाल है कि समाज का यह मनोविज्ञान तैयार करना या इसका बने रहना किसके हित में है? किसी भी धर्म के सत्ताधारी तबकों की असली ताकत आम समाज का यही खोखलापन होता है। पारलौकिक भ्रम की गिरफ्त में ईश्वर और दूसरे अंधविश्वासों की दुनिया में भटकते हुए लोग आखिरकार बाबाओं-गुरुओं, तांत्रिकों, चमत्कारी फकीरों जैसे ठगों के फेर में पड़ते हैं और अपना बचा-खुचा विवेक गवां बैठते हैं। यह केवल समाज के आम और भोले-भाले लोगों की बंददिमागी नहीं है, बड़े-बड़े नेताओं, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों तक को फर्जी और कथित चमत्कारी बाबाओं के चरणों में सिर नवाने में शर्म नहीं आती। यही नहीं, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के वैज्ञानिक तक अंतरिक्ष यानों के सफल प्रक्षेपण की प्रार्थना करते हुए पहले मंदिरों में पूजा करते दिख जाते हैं। यह बेवजह नहीं हैं कि कला या वाणिज्य विषय तो दूर, स्कूल-कॉलेजों से लेकर उच्च स्तर पर इंजीनिरिंग या चिकित्सा जैसे विज्ञान विषयों में शिक्षा हासिल करने के बावजूद कोई व्यक्ति पूजा-पाठ या अंधविश्वासों में लिथड़ा होता है।
ऐसे में अगर कोई अंतिम रूप से यह कहता है कि मैं ईश्वर और धर्म का विरोध नहीं करता हूं, मैं सिर्फ अंधविश्वासों के खिलाफ हूं तो वह एक अधूरी लड़ाई की बात करता है। धर्म और ईश्वर को अंधविश्वासों से बिल्कुल अलग करके देखना या तो मासूमियत है या फिर एक शातिर चाल। हां, अंध-आस्थाओं में डूबे समाज में ये अंधविश्वासों की समूची बुनियाद के खिलाफ व्यापक लड़ाई के शुरुआती कदम हो सकते हैं। इसे पहले रास्ते पर अपने साथ लाने की प्रक्रिया कह सकते हैं। लेकिन बलि, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र, गंडा-ताबीज, बाबा-गुरु, तांत्रिक अनुष्ठान आदि के खिलाफ एक जमीन तैयार करने के बाद अगर रास्ता समूचे धर्म और ईश्वर की अवधारणा से मुक्ति की ओर नहीं जाता है तो वह अधूरे नतीजे ही देगा।
वैज्ञानिक चेतना से लैस कोई भी व्यक्ति यह समझता है कि दुनिया में मौजूद तमाम अंधविश्वास का सिरा पारलौकिक आस्थाओं से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। यह तो नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति बलि देने या बीमारी का इलाज कराने के लिए चमत्कारी बाबाओं का सहारा तो न ले, लेकिन ईश्वर या धर्म को अपनी जीवनचर्या का अनिवार्य हिस्सा माने। अगर वह सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार किसी भी तरह के मत-संप्रदाय का अनुगामी है तो उसका रास्ता आखिरकार एक पारलौकिक अमूर्त व्यवस्था की ओर जाता है, जहां वह खुद पर भरोसा करने के बजाय अपने अतीत, वर्तमान या भविष्य के लिए ईश्वर से की गई या की जाने वाली कामना को जिम्मेदार मानता है। इससे बड़ा प्रहसन क्या हो सकता है कि उत्तराखंड में बादल फटने या प्रलयंकारी बाढ़ के बावजूद अगर कुछ लोग बच गए तो उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया जाए और उसी वजह से कई-कई हजार लोग बेमौत मर गए, तो उसके लिए ईश्वर को जिम्मेदार नहीं माना जाए। बिहार के खगड़िया में कांवड़ लेकर भगवान को जल अर्पित करने जाते करीब चालीस लोग रेलगाड़ी से कट कर मर जाते हैं तो इसके लिए ईश्वर जिम्मेदार नहीं है और जो लोग बच गए, उन्हें ईश्वर से बचा लिया...!!!
खासतौर पर जिस हिंदुत्व पर हम गर्व से अपनी छाती ठोंकते रहते हैं, उसमें यह साजिश ज्यादा विकृत इसलिए हो जाती है, क्योंकि यहां यह केवल आस्थाओं का कारोबार नहीं होता, बल्कि जन्म के आधार पर ऊंची और नीची कही जाने वाली जातियों की मानसिक और चेतनागत अवस्थिति बनाए रखने में भी अंधविश्वासों और आस्थाओं को हथियार के बतौर इस्तेमाल में लाया जाता है।
यह ईश्वरवाद किस सामाजिक व्यवस्था के तहत चलता है। अपनी अज्ञानता की सीमा में छटपटाते लोगों ने पारलौकिकता की रचना की, कुछ लोगों ने उसकी व्याख्या का ठेका उठा लिया, उनकी महंथगीरी ने एक तंत्र बुन दिया, वह धर्म हो गया। यह केवल हिंदू या सनातन धर्म का नहीं, बल्कि सभी धर्मों का सच है। इसके बाद बाकी लोग सिर्फ पालक हैं, जिनके भोलेपन और प्रश्नविहीन होने के कारण ही यह धार्मिक-तंत्र चलता रहता है। ईश्वर-व्यवस्था के प्रति लोगों के भीतर कोई संदेह नहीं पैदा हो, इसके लिए तमाम इंतजाम किए जाते हैं। यह इंतजाम करने वाले वे लोग होते हैं, जो किसी भी धर्म-तंत्र के शीर्ष पर बैठे होते हैं। हालांकि यह "इंतजाम" का मनोविज्ञान अपने आप नीचे की ओर भी उतर जाता है और एक "ईश्वरीय" व्यवस्था या धर्म पर शक करने या उस पर सवाल उठाने वालों से निचले स्तर पर वे लोग भी "निपट" लेते हैं, जो खुद ही किसी धार्मिक-व्यवस्था के पीड़ित और भुक्तभोगी होते हैं।
ये "मैजोकिज्म" और "सैडिज्म" के मनोवैज्ञानिक चरणों के नतीजे हैं। "मैजोकिज्म" की अवस्था में कोई व्यक्ति अपने धर्मगुरु (इसे किसी धार्मिक व्यवस्था में जीवनचर्या को प्रभावित-संचालित करने वाले उपदेश भी कह सकते हैं) की किसी भी तरह की बात या व्यवहार पर कोई सवाल नहीं उठाता, भले कहीं कोई बात उसे गलत लगे। लेकिन वास्तव में यह गलत लगना उसके भीतर एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया को जन्म देता है, जिसे वह खुद भी नहीं समझ पाता, लेकिन अपने भीतर जज्ब कर लेता है। लेकिन यह प्रकृति का नियम है कि आप कुछ ग्रहण करेंगे तो उसका त्याग अनिवार्य है। इसलिए गुरु की किसी बात से मन में उपजी प्रतिक्रिया हर हाल में "रिलीज" होती है, यानी अपने निकलने का कोई न कोई रास्ता खोज लेती है। लेकिन तब इसका स्वरूप खाना सहज तरीके नहीं पचने के बाद उल्टियां होने की तरह बेहद विकृत हो सकता है। यानी यह "सैडिज्म" की अवस्था है। तो अपने धर्मगुरु की हर बात पचाने वाला व्यक्ति अपने घर में अपनी पत्नी या बच्चों के साथ बेहद बर्बर तरीके से पेश आ सकता है, किसी कमजोर व्यक्ति या कमजोर सामाजिक समूह के खिलाफ नफरत से भरा दिख सकता है, जोर-जोर की आवाज में बेहद वीभत्स गालियां बक सकता है या किसी वस्तु की बेमतलब तोड़फोड़ भी कर सकता है। इस तरह की कई मानसिक अवस्थाएं हो सकती हैं।
बहरहाल, नरेंद्र दाभोलकर या गोविंद पानसरे या कलबुर्गी आम जीवन में पसरे जिन अंधविश्वासों के खिलाफ मोर्चा ले रहे थे, उसका सिरा आखिरकार धर्म-तंत्र और फिर ईश्वर पर संदेहों की ओर जाता था। और जाहिर है, यह संदेह अंधविश्वासों और अंध-आस्थाओं पर टिके समूचे कारोबार और समाज के सत्ताधारी तबकों का साम्राज्य ध्वस्त कर सकता है। इसलिए इस तरह के संदेहों के भय से उपजी प्रतिक्रिया भी उतनी विकृत हो सकती है, जिसके शिकार दाभोलकर, पानसरे या कलबुर्गी हुए। यह हत्या दरअसल अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले तमाम धर्मों और उनके धर्माधिकारियों के डर और कायरता का सबूत है। यह अंधे विश्वासों के सरमायेदारों के डर का प्रतीक है। अपनी दुकान के बंद हो जाने के डर से एक ऐसे शख्स की जान तक ले ली जा सकती है, जिसने अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले धर्मों के खिलाफ इंसान की आंखें खोलने के आंदोलन में खुद को समर्पित कर दिया हो। यह केवल एक शख्स की हत्या नहीं है, यह तथाकथित धर्म के क्रूर मनोविज्ञान के खिलाफ एक विचार की हत्या की कोशिश है। इंसान के खुद पर भरोसे की और इंसानियत की एक नई और रौशन दुनिया के ख्वाब की हत्या की कोशिश है।
लेकिन क्या इन हत्याओं से अंधविश्वासों के खिलाफ उनके विचारों को खत्म क्या जा सकेगा?