एक बार जिद्दू कृष्णमुर्ती से किसी ने पूछा कि क्या आपको लगता है कि भारतीय लोग कर्म के सिद्धांत में भरोसा रखते हैं? कृष्णमूर्ति ने जोर देकर कहा कि भारतीय सिर्फ बातें करते हैं लेकिन असल में न तो कर्म का सिद्धांत समझते हैं न ही उसका पालन करते हैं. अगर वे पालन करते तो इतना दारिद्र्य और शोषण यहाँ नहीं हो सकता था.
कृष्णमूर्ति का दर्शन असल में बुद्ध के प्रवाह में है और वे बिना किसी लाग लपेट या घुमाव फिराव के साथ अपनी बात सीधे रखते हैं. उनके उत्तर पर गौर कीजिये. आपको न सिर्फ भारतीय धर्म की आस्तिकता का पाखंड नजर आएगा बल्कि आप इस देश के मुख्यधारा के वेदांत दर्शन की तथाकथित वैज्ञानिक कर्म की धारणा का पाखण्ड भी देख सकेंगे.
कर्म का सिद्धांत कार्य कारण सिद्धान्त है जिसकी मदद से कारण और परिणाम में सीधा वैज्ञानिक संबन्ध देखा जाता है और इसके नतीजे में भविष्य में करणीय या अकरणीय की खोज की जाती है. उदाहरण के लिए आपसी प्रेमभाव से सहकार बढ़ता है समृद्धि बढ़ती है तो प्रेम और सहकार को समृद्धि का कारण मानकर उस दिशा में बढ़ा जाए. यदि क्रोध से लड़ाई और क्षोभ बढ़ता है तो लड़ाई रोकने की दृष्टि से क्रोध के शमन का उपाय किया जाये.
ये मनोविज्ञान सम्मत और विज्ञान सम्मत सिद्धांत है. लेकिन भारतीय पोंगा पंडितों ने इसे रहस्यवाद और अध्यात्म में लपेटकर इसकी ह्त्या ही कर दी है. कर्म सिद्धांत की जैसी बकवास पोंगा पंडित सिखाते हैं उसमे एक नितांत व्यक्तिगत मोक्ष के अर्थ वाला अधूरा सिद्धांत हावी रहता है और मजे कि बात ये कि ये भी गलत ढंग से सिखाया जाता है.
कर्म के सिद्धांत का सामाजिक पहलू एकदम छुपाकर रखा गया है. बुद्ध ने इसी पर जोर दिया था लेकिन बाद के बौद्ध और हिन्दू पंडित भी इसे भूल ही गए हैं. बौद्ध धर्म के पतन के बाद हिंदुओं ने बुद्ध की इस व्याख्या को भुलाकर ही वर्ण और जाति के पाखण्ड खड़े किये हैं.
इसे ऐसे समझिये, प्रेम और मैत्री एक सतकर्म है जिसका अच्छा परिणाम व्यक्ति और समाज दोनों के जीवन में होता है. घृणा एक दुष्कर्म है जिसका बुरा परिणाम व्यक्ति और समाज के जीवन में होता है.
अब भारत के समाज को गौर से देखिये दो हजार साल की गुलामी और बांझपन अगर परिणाम है तो इसका कोई ठोस कारण भी होगा. फल से पेड़ की पहचान होती है.
कर्म सिद्धांत यदि सही है तो इस पतित गुलाम और बंजर समाज में निश्चित ही कोई महाकुकर्म या महापाप ऐतिहासिक रूप से चल रहा होगा जिसके नतीजे में ये देश विभाजित, अंधविश्वासी, डरपोक और मन्दबुद्धि हुआ.
अब वो महापाप क्या है? उसको ढूंढना कोई कठिन काम नहीं है.
अगर प्रेम सद्भाव सहकार से समाज संगठित विक्सित और वैज्ञानिक बनता है तो निश्चित ही घृणा भेदभाव और उंच नीच से समाज विभाजित, मन्दबुद्धि और डरपोक बनता है.
फल आपके सामने है पेड़ की पहचान आप खुद कीजिये. जाति और वर्ण व्यवस्था सहित लिंग और भाषा भेद बनाकर भारतीय हिन्दू पण्डितों ने जैसा महापाप से भरा धर्म बनाया उसका यह परिणाम हुआ है कि भारत गुलाम हुआ. समाज बिखर गया. यह एक विशेष सामाजिक कर्म का परिणाम है.
इसी तरह का कुकर्म बौद्धों ने अतीत में किया जबकि रहस्यवाद और पारलौकिक मोक्ष या निर्वाण की कामना में महायान जैसा पलायनवादी अनुशासन निर्मित किया. इस तरह घृणा और अन्धविश्वास को एक दुष्कर्म की तरह देखिये, तब आप कार्य कारण का सम्बन्ध बैठा सकेंगे.
इसी तरह साहस, शौर्य तर्क या सहकार को सतकर्म की तरह देखिये और आज के यूरोप या अमेरिकी समाज को देखिये.
हालांकि वहां भी शत प्रतिशत सतकर्म नहीं है, ऐसा संभव भी नहीं है इसीलिये उनकी अपनी समस्याएं हैं. लेकिन निश्चित ही वे सामाजिक या सामूहिक रूप से शुभ समझे जाने वाले सतकर्मों में हमसे अधिक कुशल हैं. इसीलिये वे लोकतन्त्र, सामाजिकता, सार्वजनिक संपत्ति और मानव अधिकार जैसे नए शुभ की खोज कर सके हैं और हमारा दुष्कर्मी धर्म दर्शन आज भी जींस पेंट, गोबर और गौ मूत्र में अटका हुआ है.
इसीलिये हम न समाज बन सके हैं न सामाजिकता और सार्वजनिक सम्पत्ति की धारणा का निर्माण कर सके हैं.
कृष्णमुर्ती पुराने बौद्ध धर्म और वर्तमान हिन्दू धर्म दोनों की खूब खबर लेते हैं. उनकी नजर से कर्म के सिद्धांत और भारतीय समाज की दुर्दशा को देखिये. पोंगा पण्डितों की व्याख्या से मुक्ति आसान हो जायेगी.
कृष्णमूर्ति का दर्शन असल में बुद्ध के प्रवाह में है और वे बिना किसी लाग लपेट या घुमाव फिराव के साथ अपनी बात सीधे रखते हैं. उनके उत्तर पर गौर कीजिये. आपको न सिर्फ भारतीय धर्म की आस्तिकता का पाखंड नजर आएगा बल्कि आप इस देश के मुख्यधारा के वेदांत दर्शन की तथाकथित वैज्ञानिक कर्म की धारणा का पाखण्ड भी देख सकेंगे.
कर्म का सिद्धांत कार्य कारण सिद्धान्त है जिसकी मदद से कारण और परिणाम में सीधा वैज्ञानिक संबन्ध देखा जाता है और इसके नतीजे में भविष्य में करणीय या अकरणीय की खोज की जाती है. उदाहरण के लिए आपसी प्रेमभाव से सहकार बढ़ता है समृद्धि बढ़ती है तो प्रेम और सहकार को समृद्धि का कारण मानकर उस दिशा में बढ़ा जाए. यदि क्रोध से लड़ाई और क्षोभ बढ़ता है तो लड़ाई रोकने की दृष्टि से क्रोध के शमन का उपाय किया जाये.
ये मनोविज्ञान सम्मत और विज्ञान सम्मत सिद्धांत है. लेकिन भारतीय पोंगा पंडितों ने इसे रहस्यवाद और अध्यात्म में लपेटकर इसकी ह्त्या ही कर दी है. कर्म सिद्धांत की जैसी बकवास पोंगा पंडित सिखाते हैं उसमे एक नितांत व्यक्तिगत मोक्ष के अर्थ वाला अधूरा सिद्धांत हावी रहता है और मजे कि बात ये कि ये भी गलत ढंग से सिखाया जाता है.
कर्म के सिद्धांत का सामाजिक पहलू एकदम छुपाकर रखा गया है. बुद्ध ने इसी पर जोर दिया था लेकिन बाद के बौद्ध और हिन्दू पंडित भी इसे भूल ही गए हैं. बौद्ध धर्म के पतन के बाद हिंदुओं ने बुद्ध की इस व्याख्या को भुलाकर ही वर्ण और जाति के पाखण्ड खड़े किये हैं.
इसे ऐसे समझिये, प्रेम और मैत्री एक सतकर्म है जिसका अच्छा परिणाम व्यक्ति और समाज दोनों के जीवन में होता है. घृणा एक दुष्कर्म है जिसका बुरा परिणाम व्यक्ति और समाज के जीवन में होता है.
अब भारत के समाज को गौर से देखिये दो हजार साल की गुलामी और बांझपन अगर परिणाम है तो इसका कोई ठोस कारण भी होगा. फल से पेड़ की पहचान होती है.
कर्म सिद्धांत यदि सही है तो इस पतित गुलाम और बंजर समाज में निश्चित ही कोई महाकुकर्म या महापाप ऐतिहासिक रूप से चल रहा होगा जिसके नतीजे में ये देश विभाजित, अंधविश्वासी, डरपोक और मन्दबुद्धि हुआ.
अब वो महापाप क्या है? उसको ढूंढना कोई कठिन काम नहीं है.
अगर प्रेम सद्भाव सहकार से समाज संगठित विक्सित और वैज्ञानिक बनता है तो निश्चित ही घृणा भेदभाव और उंच नीच से समाज विभाजित, मन्दबुद्धि और डरपोक बनता है.
फल आपके सामने है पेड़ की पहचान आप खुद कीजिये. जाति और वर्ण व्यवस्था सहित लिंग और भाषा भेद बनाकर भारतीय हिन्दू पण्डितों ने जैसा महापाप से भरा धर्म बनाया उसका यह परिणाम हुआ है कि भारत गुलाम हुआ. समाज बिखर गया. यह एक विशेष सामाजिक कर्म का परिणाम है.
इसी तरह का कुकर्म बौद्धों ने अतीत में किया जबकि रहस्यवाद और पारलौकिक मोक्ष या निर्वाण की कामना में महायान जैसा पलायनवादी अनुशासन निर्मित किया. इस तरह घृणा और अन्धविश्वास को एक दुष्कर्म की तरह देखिये, तब आप कार्य कारण का सम्बन्ध बैठा सकेंगे.
इसी तरह साहस, शौर्य तर्क या सहकार को सतकर्म की तरह देखिये और आज के यूरोप या अमेरिकी समाज को देखिये.
हालांकि वहां भी शत प्रतिशत सतकर्म नहीं है, ऐसा संभव भी नहीं है इसीलिये उनकी अपनी समस्याएं हैं. लेकिन निश्चित ही वे सामाजिक या सामूहिक रूप से शुभ समझे जाने वाले सतकर्मों में हमसे अधिक कुशल हैं. इसीलिये वे लोकतन्त्र, सामाजिकता, सार्वजनिक संपत्ति और मानव अधिकार जैसे नए शुभ की खोज कर सके हैं और हमारा दुष्कर्मी धर्म दर्शन आज भी जींस पेंट, गोबर और गौ मूत्र में अटका हुआ है.
इसीलिये हम न समाज बन सके हैं न सामाजिकता और सार्वजनिक सम्पत्ति की धारणा का निर्माण कर सके हैं.
कृष्णमुर्ती पुराने बौद्ध धर्म और वर्तमान हिन्दू धर्म दोनों की खूब खबर लेते हैं. उनकी नजर से कर्म के सिद्धांत और भारतीय समाज की दुर्दशा को देखिये. पोंगा पण्डितों की व्याख्या से मुक्ति आसान हो जायेगी.