इन दिनों साहित्य और लेखकों के वर्ग-वर्ण सरोकार व पृष्ठभूमि को लेकर तरह-तरह के विमर्श चल रहे हैं। इसमें मेरी राय कुछ इस प्रकार है। जिसे मेरी राय पसंद या नहीं पसंद हो, अभद्रता या व्यक्तिगत लांछन-कटाक्ष पर उतरे बगैर इस चर्चा में शामिल हो सकता है।
दुनिया के कई बड़े लेखक-चिंतक कुलीन, अपेक्षाकृत अमीर या मध्यवर्गीय परिवारों में पैदा होकर उत्पीड़ित मनुष्यता के लिये आजीवन सक्रिय रहे। अपने यहां भी ऐसे लोग रहे हैं और आज भी हैं। प्रेमचंद, गणेश शंकर विद्यार्थी, फैज अहमद फैज, अमर्त्य सेन, महाश्वेता देवी या अरुंधति राय सहित अनेक लेखक इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं। इन सबका जन्म किसी उत्पीडि़त समाज में नहीं हुआ। लेकिन सभी इनके अवदान और योगदान को आज स्वीकार करते हैं।
समस्या वहां पैदा होती है, जब भारतीय समाज(जहां वर्ग के साथ वर्ण भी एक असलियत है!) का कोई लेखक लिखने-पढ़ने में तो बहुत 'जनपक्षी' बातें करता है लेकिन व्यवहार में उसके उलट आचरण करता है। ऐसे लोगों का उदाहरण देना हो तो मैं अनेक नाम गिना सकता हूं। दरअसल, ऐसे लोगों के शब्द और कर्म का भेद उनके लेखन और व्यक्तित्व को संदिग्ध बना देता है।
एक जमाना था, जब लेखक-बुद्धिजीवी आमतौर पर सिर्फ सवर्ण मध्यवर्गीय समुदायों से ही आते थे। अब हालात बदले हैं। दलित-उत्पीड़ित-आदिवासी-पिछड़े समुदायों से भी अब लेखक-बुद्धिजीवी आ रहे हैं। सामाजिक समीकरण तेजी से बदल रहे हैं। ऐसे दौर में कुछ वैचारिक उथल-पुथल का होना लाजिमी है। इसे गौर से देखा-समझा जाना चाहिये। हड़बड़ी में कड़े फैसले या तुरंता नतीजे नहीं निकालना चाहिये।
इस पर टिप्पणी करते हुए गिरिजेश्वर प्रसाद ने लिखा है कि लेखक की जाति - वर्ण मत देखिए। उसने किसके पक्ष में कलम उठायी,यह महत्वपूर्ण है। हाँ, लेखकों में गिरोहबंदी भी है। यह गिरोहबंदी अघोषित रुप से भी जाति-वर्ण से प्रभावित होते रहे हैं। किस लेखक को आगे बढ़ाना है और किसे नहीं, यह ऐसे गिरोह तय करते हैं, और फिर उस पर काम करते हैं। संपादक की कुर्सी पर बैठा लेखक इस तरह के काम ज्यादा करते रहे हैं।
जबकि रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं शब्द व कर्म का भेद रचना की विश्वसनीयता को समाप्त कर देता है।एेसे लोग जनता की जादा चिन्ता न कर अपने ही जीवनानुभवो का यथार्थ चित्रण अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करें तो उनमें जादा विश्वसनीयता होगी।
(उर्मिलेश के फेसबुक पेज से साभार)