एक ओर भारतीय मुसलमानों पर अत्याचार बढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर कुछ मुस्लिम नेता और बुद्धिजीवी आरएसएस के द्वारे खड़े हैं। वे चाहते हैं कि आरएसएस उनके साथ संवाद करे। क्या मुस्लिम समुदाय असमंजस में है? क्या उसे समझ नहीं आ रहा कि वह क्या करे?
भारत के विभाजन ने मुसलमानों को गंभीर संकट में डाल दिया था। पाकिस्तान का निर्माण अनेक जटिल कारकों का नतीजा था, जिसमें मुस्लिम और हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों के पूर्ण सहयोग से ब्रिटिश शासकों द्वारा लागू की गई ‘बांटो और राज करो’ की नीति की प्रमुख भूमिका थी। पाकिस्तान के निर्माण की मांग मुख्य रूप से मुसलमानों के कुलीन वर्ग की थी परंतु कुछ अन्य वर्गों को भी अपने एक अलग देश का विचार आकर्षक लग रहा था। जो हिस्सा पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान बना, उसमें मुख्यतः मुस्लिम बहुल इलाके थे। परंतु जितने मुसलमान इन इलाकों में रहते थे लगभग उतने ही पूरे भारत के अन्य क्षेत्रों में बिखरे हुए थे। उन्हें देश को धर्म के नाम पर बांटने का प्रतिगामी कदम अच्छा नहीं लगा। वे पाक (पवित्र) भूमि पर रहने के न तो इच्छुक थे और ना ही वे वहां गए। आगे चलकर पूर्वी पाकिस्तान एक नया देश - बांग्लादेश - बन गया। इससे इस विचार की हवा निकल गई कि धर्म, राष्ट्र का आधार हो सकता है।
जिन मुसलमानों ने भारत में रहने का निर्णय लिया उन पर यह तोहमत लगाई जाती है कि जब उनके लिए एक अलग देश बनाया गया था तो वे वहां क्यों नहीं गए और यह भी कि वे पाकिस्तान के प्रति वफादार हैं। देश के विभाजन के बाद मुस्लिम साम्प्रदायिक ताकतें बहुत कमजोर हो गईं। परंतु इसके बावजूद वे समय समय पर हिन्दू साम्प्रदायिकतावादियों को आग लगाने के बहाने देती रहीं। धीरे-धीरे बहुसंख्यकवादी राजनीति का बोलबाला बढ़ने लगा और 1996 में वे देश में सत्ता में आने में सफल हो गईं। पिछले नौ सालों से ये ताकतें हमारे देश पर शासन कर रही हैं।
साम्प्रदायिक ताकतों के बढ़ते प्रभाव का एक नतीजा था अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा में बढोत्तरी जिसके नतीजे में अल्पसंख्यक स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगे और अपने मोहल्लों में सिमट गए। इन मोहल्लों के चारों ओर नफरत की चारदीवारी बना दी गई है। इसके अंदर रहने वालों को डराना-धमकाना या उनके खिलाफ हिंसा करना आम और स्वीकार्य हो चला है। यहां तक कि उनके मकानों पर चढ़ते बुलडोजर कुछ लोगों को तालियां बजाने का पर्याप्त कारण लगते हैं। मुस्लिम समुदाय पहले से ही आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से कमजोर था। हाशियाकरण और असुरक्षा के भाव ने उसकी स्थिति और खराब कर दी है।
पूर्व में जो पार्टी इस देश पर शासन करती थी, उसे मुसलमानों की बेहतरी के लिए सकारात्मक कदम न उठाने के आरोप से बरी नहीं किया जा सकता। साथ ही यह भी सच है कि यह पार्टी जब भी मुसलमानों की बेहतरी की बात करती थी उस पर तुष्टिकरण की राजनीति करने का आरोप तुरंत चस्पा कर दिया जाता था। सच यह है कि अगर किसी तरह का तुष्टिकरण हुआ है तो वह मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथी, दकियानूसी तबके के आगे झुकने के रूप में हुआ है। जहां तक आम मुसलमानों का सवाल है, उनके हालात तो बिगड़ते ही गए हैं। सच्चर समिति ने मुसलमानों की बदहाली पर पर्याप्त रोशनी डाली थी परंतु राज्य ने इन वर्गों के लिए कुछ नहीं किया क्योंकि कुछ भी करने का अर्थ था तुष्टिकरण व वोट बैंक की राजनीति करने के आरोपों को निमंत्रण देना।
इस समस्या को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। सच्चर समिति की रपट प्रस्तुत होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक सामान्य सी टिप्पणी की कि वंचित वर्गों, (जिनमें मुसलमान भी शामिल हैं) का देश के संसाधनों पर पहला हक है। इसके तुरंत बाद शाखाओं और गोदी मीडिया के विशाल नेटवर्क ने आसमान सिर पर उठा लिया। ऐसा प्रचारित किया गया मानो मनमोहन सिंह देश की कौड़ी-कौड़ी मुसलमानों को दे देना चाहते हैं। उनके स्पष्टीकरण को किसी ने नहीं सुना। उन्होंने बार-बार कहा कि ‘संसाधनों पर पहला हक’ से आशय उन सभी कार्यक्रमों के लिए धन उपलब्ध करवाना है जो अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़ा वर्गों, महिलाओं, बच्चों और अल्पसंख्यकों की बेहतरी के लिए चलाए जा रहे हैं। हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति इतनी डरावनी हो चुकी थी और उसका प्रचार तंत्र इतना शक्तिशाली और खतरनाक था कि कम से कम औपचारिक रूप से धर्मनिरपेक्षता में आस्था रखने वाली कांग्रेस भी अल्पसंख्यकों (मुसलमानों व ईसाई) के वैध अधिकारों की बात तक नहीं कर सकी।
आज मुसलमानों का एक वर्ग समुदाय के कट्टरपंथी और दकियानूसी नेतृत्व का विरोध कर रहा है। मुसलमानों का नेतृत्व अधिकांशतः मौलाना मार्का लोगों के हाथों में है जो कुएं के मेंढक से अधिक कुछ नहीं हैं। यह सही है कि यह नेतृत्व समुदाय के भीतर से सुधार नहीं आने दे रहा है। ‘नरमपंथी’ और धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र में आस्था रखने वाले मुस्लिम नेताओं का उनके समुदाय में सीमित प्रभाव है। आम मुसलमान हिंसा और नफरत की राजनीति से बुरी तरह डरे हुए हैं। उनके पूर्वजों द्वारा तथाकथित रूप से हिन्दुओं पर अत्याचार करने के लिए उन्हें दोषी ठहराया जा रहा है। इसके अलावा अमरीका व अन्य साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा कच्चे तेल के संसाधनों पर कब्जा करने के प्रयासों के चलते ओसामा बिन लादेन जैसे तत्व उभरे और इससे पश्चिमी मीडिया को ‘इस्लामिक आतंकवाद’ जैसे शब्द गढ़ने का मौका मिल गया। इस्लामिक आतंकवाद की इस अवधारणा ने न जाने कितने युवा मुसलमानों का करियर नष्ट कर दिया। मोहसिन शेख नामक एक आईटी कर्मी की हत्या कर दी गई। आतंकवाद की हर घटना के लिए मुसलमानों और केवल मुसलमानों को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति के चलते हर मुसलमान को अपराधी के रूप में देखा जाने लगा।
जहां धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र में आस्था रखने वाले मुस्लिम समुदाय के कुछ नेता समझदारी की बातें कर रहे हैं वहीं अधिकांश मुसलमान दकियानूसी नेताओं के प्रभाव में है। कुछ प्रगतिशील मुस्लिम महिलाओं ने तीन तलाक, बुर्का और बहुपत्नि प्रथा आदि के खिलाफ आवाज उठाई। परंतु उन्हें सबसे ज्यादा समर्थन हिन्दू बहुसंख्यकवादी राजनीति से मिला। इस राजनीति के पैरोकारों का दावा है कि उनका एकमात्र लक्ष्य मुस्लिम महिलाओं की भलाई है। यह बात अलग है कि इन्हीं ताकतों ने वे परिस्थितियां निर्मित कीं जिनके चलते मुस्लिम महिलाओं को शाहीन बाग जैसे आंदोलन करने पड़े ताकि उनके अधिकार उन्हें हासिल हो सकें और उन्हें हिरासत शिविरों में दिन न काटने पड़ें।
धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की अक्षमता के चलते मुसलमानों का एक वर्ग संघ-भाजपा से जुड़ सकता है। मुसलमानों के एक तबके, जिसमें मुख्यतः पसमांदा, बोहरा और सूफी शामिल हैं, को अपने से जोड़ने के लिए संघ गंभीर प्रयास कर रहा है। आरएसएस के प्रचारक इन्द्रेश कुमार के मार्गदर्शन में राष्ट्रीय मुस्लिम मंच मुसलमानों को हिन्दू राष्ट्र की राजनीति से जोड़ने का प्रयास कर रहा है। हाल में नरेन्द्र मोदी, मुसलमानों के सबसे समृद्ध वर्ग - बोहरा - के एक सम्मेलन में पहुंचे जहां उन्होंने कहा कि वे अपने परिवार के बीच आए हैं। एक तरफ मोनू मनेसर जैसे लोग मुसलमानों को जिंदा जला रहे हैं तो दूसरी तरफ आरएसएस के मुखिया एस. वाय. कुरैशी व अन्य प्रमुख मुसलमानों के शिष्टमंडल से विचार-विनिमय कर रहे हैं। यह कमाल केवल कई मुंह वाला आरएसएस जैसा संगठन ही कर सकता है।
मुसलमान क्या करें? किस दिशा में जाएं? सबसे पहले उन्हें यह समझना चाहिए कि अन्य पार्टियों की अपनी कमजोरियां हो सकती हैं परंतु उनमें से कोई भी ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाने की बात नहीं करती। दूसरे, अपने पर जुल्म करने वाले के आगे दंडवत करने की बजाए ऐसी राजनैतिक ताकतों से जुड़ना बेहतर होगा जो भारत के संविधान में निहित मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध हों। ऐसी ताकतों और ऐसे दलों पर यह दबाव बनाया जाना चाहिए कि वे मौलाना आजाद और महात्मा गांधी द्वारा दिखाई गई राह पर चलें।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
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जिन मुसलमानों ने भारत में रहने का निर्णय लिया उन पर यह तोहमत लगाई जाती है कि जब उनके लिए एक अलग देश बनाया गया था तो वे वहां क्यों नहीं गए और यह भी कि वे पाकिस्तान के प्रति वफादार हैं। देश के विभाजन के बाद मुस्लिम साम्प्रदायिक ताकतें बहुत कमजोर हो गईं। परंतु इसके बावजूद वे समय समय पर हिन्दू साम्प्रदायिकतावादियों को आग लगाने के बहाने देती रहीं। धीरे-धीरे बहुसंख्यकवादी राजनीति का बोलबाला बढ़ने लगा और 1996 में वे देश में सत्ता में आने में सफल हो गईं। पिछले नौ सालों से ये ताकतें हमारे देश पर शासन कर रही हैं।
साम्प्रदायिक ताकतों के बढ़ते प्रभाव का एक नतीजा था अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा में बढोत्तरी जिसके नतीजे में अल्पसंख्यक स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगे और अपने मोहल्लों में सिमट गए। इन मोहल्लों के चारों ओर नफरत की चारदीवारी बना दी गई है। इसके अंदर रहने वालों को डराना-धमकाना या उनके खिलाफ हिंसा करना आम और स्वीकार्य हो चला है। यहां तक कि उनके मकानों पर चढ़ते बुलडोजर कुछ लोगों को तालियां बजाने का पर्याप्त कारण लगते हैं। मुस्लिम समुदाय पहले से ही आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से कमजोर था। हाशियाकरण और असुरक्षा के भाव ने उसकी स्थिति और खराब कर दी है।
पूर्व में जो पार्टी इस देश पर शासन करती थी, उसे मुसलमानों की बेहतरी के लिए सकारात्मक कदम न उठाने के आरोप से बरी नहीं किया जा सकता। साथ ही यह भी सच है कि यह पार्टी जब भी मुसलमानों की बेहतरी की बात करती थी उस पर तुष्टिकरण की राजनीति करने का आरोप तुरंत चस्पा कर दिया जाता था। सच यह है कि अगर किसी तरह का तुष्टिकरण हुआ है तो वह मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथी, दकियानूसी तबके के आगे झुकने के रूप में हुआ है। जहां तक आम मुसलमानों का सवाल है, उनके हालात तो बिगड़ते ही गए हैं। सच्चर समिति ने मुसलमानों की बदहाली पर पर्याप्त रोशनी डाली थी परंतु राज्य ने इन वर्गों के लिए कुछ नहीं किया क्योंकि कुछ भी करने का अर्थ था तुष्टिकरण व वोट बैंक की राजनीति करने के आरोपों को निमंत्रण देना।
इस समस्या को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। सच्चर समिति की रपट प्रस्तुत होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक सामान्य सी टिप्पणी की कि वंचित वर्गों, (जिनमें मुसलमान भी शामिल हैं) का देश के संसाधनों पर पहला हक है। इसके तुरंत बाद शाखाओं और गोदी मीडिया के विशाल नेटवर्क ने आसमान सिर पर उठा लिया। ऐसा प्रचारित किया गया मानो मनमोहन सिंह देश की कौड़ी-कौड़ी मुसलमानों को दे देना चाहते हैं। उनके स्पष्टीकरण को किसी ने नहीं सुना। उन्होंने बार-बार कहा कि ‘संसाधनों पर पहला हक’ से आशय उन सभी कार्यक्रमों के लिए धन उपलब्ध करवाना है जो अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़ा वर्गों, महिलाओं, बच्चों और अल्पसंख्यकों की बेहतरी के लिए चलाए जा रहे हैं। हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति इतनी डरावनी हो चुकी थी और उसका प्रचार तंत्र इतना शक्तिशाली और खतरनाक था कि कम से कम औपचारिक रूप से धर्मनिरपेक्षता में आस्था रखने वाली कांग्रेस भी अल्पसंख्यकों (मुसलमानों व ईसाई) के वैध अधिकारों की बात तक नहीं कर सकी।
आज मुसलमानों का एक वर्ग समुदाय के कट्टरपंथी और दकियानूसी नेतृत्व का विरोध कर रहा है। मुसलमानों का नेतृत्व अधिकांशतः मौलाना मार्का लोगों के हाथों में है जो कुएं के मेंढक से अधिक कुछ नहीं हैं। यह सही है कि यह नेतृत्व समुदाय के भीतर से सुधार नहीं आने दे रहा है। ‘नरमपंथी’ और धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र में आस्था रखने वाले मुस्लिम नेताओं का उनके समुदाय में सीमित प्रभाव है। आम मुसलमान हिंसा और नफरत की राजनीति से बुरी तरह डरे हुए हैं। उनके पूर्वजों द्वारा तथाकथित रूप से हिन्दुओं पर अत्याचार करने के लिए उन्हें दोषी ठहराया जा रहा है। इसके अलावा अमरीका व अन्य साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा कच्चे तेल के संसाधनों पर कब्जा करने के प्रयासों के चलते ओसामा बिन लादेन जैसे तत्व उभरे और इससे पश्चिमी मीडिया को ‘इस्लामिक आतंकवाद’ जैसे शब्द गढ़ने का मौका मिल गया। इस्लामिक आतंकवाद की इस अवधारणा ने न जाने कितने युवा मुसलमानों का करियर नष्ट कर दिया। मोहसिन शेख नामक एक आईटी कर्मी की हत्या कर दी गई। आतंकवाद की हर घटना के लिए मुसलमानों और केवल मुसलमानों को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति के चलते हर मुसलमान को अपराधी के रूप में देखा जाने लगा।
जहां धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र में आस्था रखने वाले मुस्लिम समुदाय के कुछ नेता समझदारी की बातें कर रहे हैं वहीं अधिकांश मुसलमान दकियानूसी नेताओं के प्रभाव में है। कुछ प्रगतिशील मुस्लिम महिलाओं ने तीन तलाक, बुर्का और बहुपत्नि प्रथा आदि के खिलाफ आवाज उठाई। परंतु उन्हें सबसे ज्यादा समर्थन हिन्दू बहुसंख्यकवादी राजनीति से मिला। इस राजनीति के पैरोकारों का दावा है कि उनका एकमात्र लक्ष्य मुस्लिम महिलाओं की भलाई है। यह बात अलग है कि इन्हीं ताकतों ने वे परिस्थितियां निर्मित कीं जिनके चलते मुस्लिम महिलाओं को शाहीन बाग जैसे आंदोलन करने पड़े ताकि उनके अधिकार उन्हें हासिल हो सकें और उन्हें हिरासत शिविरों में दिन न काटने पड़ें।
धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की अक्षमता के चलते मुसलमानों का एक वर्ग संघ-भाजपा से जुड़ सकता है। मुसलमानों के एक तबके, जिसमें मुख्यतः पसमांदा, बोहरा और सूफी शामिल हैं, को अपने से जोड़ने के लिए संघ गंभीर प्रयास कर रहा है। आरएसएस के प्रचारक इन्द्रेश कुमार के मार्गदर्शन में राष्ट्रीय मुस्लिम मंच मुसलमानों को हिन्दू राष्ट्र की राजनीति से जोड़ने का प्रयास कर रहा है। हाल में नरेन्द्र मोदी, मुसलमानों के सबसे समृद्ध वर्ग - बोहरा - के एक सम्मेलन में पहुंचे जहां उन्होंने कहा कि वे अपने परिवार के बीच आए हैं। एक तरफ मोनू मनेसर जैसे लोग मुसलमानों को जिंदा जला रहे हैं तो दूसरी तरफ आरएसएस के मुखिया एस. वाय. कुरैशी व अन्य प्रमुख मुसलमानों के शिष्टमंडल से विचार-विनिमय कर रहे हैं। यह कमाल केवल कई मुंह वाला आरएसएस जैसा संगठन ही कर सकता है।
मुसलमान क्या करें? किस दिशा में जाएं? सबसे पहले उन्हें यह समझना चाहिए कि अन्य पार्टियों की अपनी कमजोरियां हो सकती हैं परंतु उनमें से कोई भी ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाने की बात नहीं करती। दूसरे, अपने पर जुल्म करने वाले के आगे दंडवत करने की बजाए ऐसी राजनैतिक ताकतों से जुड़ना बेहतर होगा जो भारत के संविधान में निहित मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध हों। ऐसी ताकतों और ऐसे दलों पर यह दबाव बनाया जाना चाहिए कि वे मौलाना आजाद और महात्मा गांधी द्वारा दिखाई गई राह पर चलें।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
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