स्वयसेवक की बेबाक चायः चुनाव का ऐलान 25 दिसबंर को हो जाये तो क्या होगा ?

Written by Puny Prasun Bajpai | Published on: December 21, 2018
इस बार तो चाय कही ज्यादा ही गर्म है। 
क्यों चाय तो हर बार गर्म ही रहती है। 
न न गर्म चाय का मतलब चाय का मिजाज नहीं पिलाने वाले की गर्माहट है। 
क्यों ऐसे क्या कह दिया हमने। 



आप जिस तरह पानी पर लकीरे खिंच रहे है .... मुझे लगता नहीं है कि ये लकीरे टिकेगी। 
आपको इसलिये नहीं लगता क्योकि आप भीतर नहीं है बल्कि बाहर से देख रहे है। 

ऐसा क्या देख लिये आपने....

मेरे और स्वयसेवक महोदय की गोल -मोल बातो पर प्रोफेसर साहेब सीधें बोल पडे...आप जो देख रहे है वह कहा तक सही होगा कह नहीं सकता लेकिन 15 बरस की सत्ता जिस अंदाज में बीजेपी ने मध्यप्रदेश और छत्तिसगढ में गंवायी है उसने झटके में शिवराज और रमन सिंह की काबिलियत को मोदी-शाह से बेहतर करार दे दिया है। 

दरअसल चाय पर जिस तरह स्वयसेवक महोदय ने पहली बार 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर अलग अलग कयास का जिक्र किया वह वाकई चौकाने वाला था। क्योकि स्वयसेवक के कयास में हार को जीत में बदलने के लिये मोदी-शाह की ऐसी ऐसी बिसात थी जो इस बात का एहसास करा रही थी कि पांच राज्यो में चुनावी हार ने सत्ता को अंदर से हिला दिया है ...और अब जीत के लिये कोई भी रास्ता पकडने की दिशा में चिंतन मनन हो रहा है। और जैसे ही मंगलवार की शाम चाय पर बैठे वैसे ही स्वयसेवक महोदय ने ये कहकर हालात गंभीर कर दिये कि मान लिजिये अटलबिहारी वाजपेयी की जन्मतिथि के दिन यानी 25 दिंसबर को ही आम चुनाव का एलान हो जाये तब आप क्या कहेगें। 

जाहिर है इस वक्तव्य ने चैकाया भी और चौकाने से ज्यादा इस सोच का कोई मतलब भी नहीं लगा। लेकिन स्वयसेवक महोदय एक के बाद एक कर तर्क गढने लगें। 

देखिये काग्रेस ने किसानो की कर्ज माफी का जो दाव फेका है उसका जवाब मोदी सत्ता कैसे दे सकती है। सरकार का खजाना तो खाली है। और अगर किसानो को राहत देने के लिये तीन लाख करोड रुपये लुटा भी देती है तो भी मैसेज तो यही जायेगा कि काग्रेस ने किया तो मोदी सत्ता को भी करना पडा। 

तो क्या सिर्फ इसी डर से जल्द चुनाव कराने का एलान हो जायेगा। मेरे ये कहते ही स्वयसेवक महोदय बोल पडे। आप सवा ना करें तो हालात को समझे। बात सिर्फ कर्ज माफी की नहीं है। चुनाव में जीत के लिये वह कौन सा पर्सेप्शन है जो बीजेपी के पारंपरिक वोटरो के जहन में रेग सकता है और वह मोदी की सत्ता के जीत के लिये कमर कस लें। 

राम मंदिर है ना। 

देखिये आप बीच में ना टोके। इस बार प्रोफेसर साहेब को स्वयसेवक महोदय ने टोका और फिर बोल पडे ..राम मंदिर ही है लेकिन पहले ये हालात समझे...सरकार को अंतरिम बजट देश के सामने रखना है। उससे पहले आर्थिक समीक्षा आयेगी। जो विकास दर के संकेत देगी। या कहे देश की माली हालत को बतायेगी। जाहिर है जो हालात पांच राज्यो के चुनाव में उभरे। खासकर ग्रामिण वोटरो के वोट बीजेपी को सिर्फ 35 फिसदी ही मिले औकर काग्रेस को 55 फिसदी वोट मिले। फिर शहरी वोटरो में भी काग्रेस से बीजेपी पिछड गई। तो इसके मतलब समझे। एक तरफ बजट में बताने-दिखाने के लिये कुछ भी नहीं है तो दूसरी तरफ जिस लिबरल इक्नामी को मोदी सत्ता अपनाये हुये है वह राजनीतिक तौर पर फेल हो चली है। और राहुल गांधी की राजनीति ने अब आर्थिक खेल में भी मोदी को फंसा दिया है। 

यानी जो खेल बीचे चार बरस से अलग अलग रियायत या सुविधा के नाम पर मोदी सत्ता केल रही थी। पांचवे बरस या कहे चुनावी बरस में उसी खेल को अपनी बिसात पर खेलने के लिये काग्रेस ने मोदी को मजबूर कर दिया है। लेकिन फिर सवाल वहीं है कि 2013-14 में मोदी कुछ भी कहने के लिये खुले आसमान में उडा रहे थे। क्योकि वह सत्ता में नहीं थे। तो अब राहुल गांधी उसी भूमिका में है और मोदी सत्ता में है तो वह जवाबदेही के लिये बाध्य है। 

पर मोदी किसी भी जवाबदेही को अपने मत्थे कहा लेते है। वह तो काग्रेस को ही निशाने पर लेकर अतित के हालातो को ज्यादा जोर शोर से उठाते है। 

ठीक कह रहे है प्रोपेसर साहेब....लेकिन पांच राज्यो के चुनाव परिणाम ने बता दिया आपका काम ही मायने रखता है। और तेलगना इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। जहा ना राहुल - चन्द्रबाबू की दाल गली ना ही हिन्दुत्व की बासुरी बजाते योगी आदित्यनाथ की। फिर तुरंत चुनाव मैदान में कूदने के हालात विपक्ष को एकजूट होने भी नहीं देगें। खासकर यूपी में गढबंधन बनेगा नही।

जल्दी चुनाव बेहद घातक साबित हो सकता है महोदय। अब प्रोफेसर बोले तो तथ्यो को गिनाने के लिहाज से बोले। और तल्खी भरे अंदाज में कहा बंगाल में ममता काग्रेस के साथ नहीं आये तो मुस्लिम वोट बैक क्या सोचेगा। यूपी में अखिलेश-मायावती काग्रेस के साथ ना आये तो दलित-मुस्लिम वोट बैक क्या सोचेगा। अजित सिंह अगर काग्रेस के साथ ना आये तो जाट वोट बैंक क्या राजस्थान में काग्रेस के साथ जाकर यूपी में काग्रेस के विरोध में खडा हो पायेगा। 

यानी खाप भी बंटेगी क्या। नवीन पटनायक को उडीसा में बीजेपी से ही दो दो हाथ करने है तो रणनीति के तौर पर वह काग्रेस का विरोध कैसे करेगें। चन्द्रशेखर राव की भूमिका ममता के साथ खडे होकर काग्रेस विरोध की कैसी होगी। 2019 के लिये बिछती बिसात में गठबंधन की जरुरत क्षत्रपो को है या फिर काग्रेस को। 

और जनादेश का मिजाज ही जब बीजेपी विरोध का ये हो चला है कि 15-15 बरस पुरानी बीजेपी सत्ता हवा हवाई हो रही है तो फिर क्षत्रपो की सत्ता कैसे टिकेगी अगर ये मैसेज जनता के बीच जाता है कि काग्रेस का विरोध बीजेपी को लाभ पहुंचा सकता है। तो क्या जिन हालातो में मोदी सत्ता चली उसने अपने आप को एक ऐसी धुरी बना लिया जहां तमाम विपक्ष तमाम अंतर्विरोधो के बावजूद मोदी सत्ता के खिलाफ एकजूट होगा ही। और मोदी सत्ता बीजेपी या संघ परिवार के तमाम अंतरविरोध के बीच भी अपनी 4 बरस से खिंच रही लीक छोडेगी नहीं तो चुनाव भी जल्द कैसे होगें। 

...आपको तो ये बताना चाहिये कि अब मोदी-शाह के पास कौन सा ब्रमास्त्र है। जिसका प्रयोग 2019 के चुनाव से एन पहले होगा। 

हा हा हाल हा ....ठहके लगाते हुये स्वयसेवक बोले ... जब जनता को सपना बेच सकते है तो खुद के लिये भी सपना बुन सकते है । और सपने की ही कडी में 25 दिसबंर के चुनाव में जाने का एलान हो सकता है। 

और ना हुआ तो .... 

प्रोफेसर जैसे ही बोले वैसे ही स्वयसेवक महोदय भी बोल पडे ...तब तो किसी दिन प्रधानमंत्री मोदी ही अयोध्या में राम मंदिर की ईट को उठाते-जोडते नजर आ जायेगें .... तब आप क्या सोचियेगा। 

क्या कह रहे आप। प्रधानमंत्री तो सबका साथ सबका विकास का नारा लगाते हुये चल रहे है। और पीएम बनने के बाद अयोध्या गये भी नहीं है। मेरा सवाल खत्म होता उससे पहले ही स्वयसेवक महोदय बोल पडे ...

तो हो सकता है प्रधानमंत्री मोदी एलान कर दें राम मंदिर बनेगा। और खुद ही कार सेवक के तौर पर नजर आ जाये..तब क्या होगा। 

होगा क्या ...हंगामा मच जायेगा....

और क्या चाहिये ..... संघ परिवार मोदी के पीछे एकजूट खडा हो जायेगा। वोटो का नहीं बल्कि समाज का ही ध्रुवीकरण हो जायेगा। झटके में किसान-मजदूर, बेरोजगारी या आर्थिक बदहाली के सवाल हाशिये पर चले जायेगें। 

बात हजम हो नहीं पा रही है मान्यवर .... अब मुझे टोकना पडा । 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वस के बाद क्या हुआ था । 1996 में सत्ता मिली तो 13 दिन में ही गिर गई। बीजेपी तब अनट्चबेल हो गई थी। और 1996 में बतौर प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कहा भी था कि बीजेपी कोई अछूत नहीं है जो उसके साथ कोई खडा नहीं है। लेकिन फिर याद किजिये 1998-99 में तमाम राजनीतिक दल साथ तभी आये जब राम मंदिर, धारा 370 और कामन सिविल कोड को ठंडे बस्ते में डालने का निर्णय बीजेपी ने लिया। 

जो कहना है कह लिजिये ...लेकिन इस सच को तो समझे क्षत्रपो की फौज सत्ता चाहती है। और सत्ता किसी की भी रहे। कौन सी भी मुद्दे रहे। क्या फर्क पडता है । कश्मीर में महबूबा बीजेपी के साथ सत्ता के लिये ही आई। पासवान ने अतित में बीजेपी को क्या कुछ नहीं कहा है। लेकिन आज वह बीजेपी के साथ सत्ता में है ना। नीतिश कुमार ने ही बीजेपी छोडिये मोदी को लेकर क्या क्या नहीं कहा लेकिन आज वह मोदी के मुरिद बने हुये है क्योकि सत्ता में रहना है । तो अब हालात बदल चुके है। सत्ता होगी तो सभी साथ होगें। और सत्ता नहीं तो फिर कोई साथ ना होगा। अभी तो कुशवाहा ने छोडा है इंतजार किजिये असम से खबर जल्द ही आयेगी ...मंहत ने भी बीजेपी का साथ छोड दिया। 

देखिये आप जो कह रहे है वह असभव सा है। जिसे कोई मानेंगा नहीं लेकिन आपकी बातो से ये तो महसूस हो रहा है कि मोदी-शाह की सत्ता पर खतरा मंडरा रहा है और वह कोई तुरप का पत्ता खोज रहे है जिससे सत्ता बची रह जाये। 

मेरे ये कहते ही प्रोफेसर साहेब बीच में कूद पडे....जी ठीक कह रहे है आप आजही तो नागपुर से खबर आई कि कोई किसान नेता किशोर तिवारी है उन्होने बकायदा सरसंघचालक मोहन भागवत और भैयाजी जोशी को खत लिखकर कहा है कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नीतिन गडकरी को बनाये। 

तो आप क्या कहना है कि बीजेपी या संघ के भीतर भी आवाज उठ रही है। 

क्या वाकई ऐसा हो रहा है ..मुझे स्वयसेवक महोदय से पूछना पडा। 

आप कह रहे है तो हवा कास रुख बदला है ये संकेत तो है...लेकिन नया सवाल यही है कि सत्ता कोई छोडना चाहता नहीं है और सत्ता बरकरार रहे इसके लिये तमाम ताने-बाने तो बुले ही जायगें...

जारी....

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