भारत में इस विषय पर रिसर्च किए जाने की बहुत ज़रूरत है। कई लोग मुझे लिखते हैं कि व्हाट्स एप ग्रुप में रिश्तेदारों से बहस करना मुश्किल हो गया है। वो इतनी सांप्रदायिक बातें करते हैं कि उनसे बहस करना मुश्किल हो गया है। ये रिश्तेदार अपनी मूर्खता को लेकर इतने उग्र हो चुके हैं कि इनके सामने बहुत लोग खुद को असहाय पाते हैं। आप कुछ भी तर्क दीजिए, तथ्य दीजिए इन रिश्तेदारों पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। रिश्तेदार एक व्यापक टर्म है इसमें पिता भी शामिल हैं। उनके लिए अलग से कैटेगरी नहीं बनाई है। यह समस्या मामूली नहीं है।
पहले की राजनीति सांप्रदायिकता को घर घर नहीं पहुँचाती थी। दंगे होते थे और शहर या राज्य के सीमित लोग इसकी चपेट में आते थे। लेकिन अब इसका व्यापक रूप से सामाजीकरण हुआ है। इसमें इन रिश्तेदारों का बहुत बड़ा योगदान है। ख़ासकर पेंशन पाने वाले रिश्तेदारों में भयानक क़िस्म की सांप्रदायिकता देखी जा रही है। पिछले साल ठीक इसी वक्त में तब्लीग जमात को लेकर रिश्तेदारों ने फ़ैमिली ग्रुप में ज़हर फैला दिया था। उसकी तीव्रता इतनी अधिक थी कि उनके असर में हर घर में एक से अधिक दंगाई तैयार हो गया था। बाद में अदालतों के कई फ़ैसलों में इस बात को लेकर डांट लगी है कि तब्लीग का कोरोना के फैलने से कोई संबंध नहीं था। इससे भारत की बदनामी हुई है। इसी तरह इन दिनों बंगाल के फ़ैमिली ग्रुप में सांप्रदायिक बहसें होने लगी हैं। इन रिश्तेदारों के लिए सांप्रदायिकता पहली खुराक है। इसके जरिए वे हर ग़लत को सही बताने लग जाते हैं। इस कारण अलग राय रखने वाले लोगों के लिए फ़ैमिली ग्रुप में रहना असहनीय हो गया है। हालत यह हो गई है कि लड़का बेरोज़गार है लेकिन बेरोज़गारी को लेकर घर में ही बहस नहीं कर पाता है। परिवारों का लोकतांत्रिक वातावरण ख़त्म हो चुका है।
मेरा सुझाव है। इस तरह की बहसों और फॉर्वर्ड किए जा रहे पोस्ट की सामग्री जमा करें। ख़ुद ही विश्लेषण करें और दो तीन हफ़्तों के अंतराल पर रिश्तेदार को भेज दें कि ये आपके सोचने का पैटर्न है। किस कैटेगरी के रिश्तेदार हैं, अपने जीवन यापन के लिए किया करते हैं, इनके घर में कौन सी किताबें हैं, क्या पढ़ते हैं, कौन सा चैनल देखते हैं और कितनी देर देखते हैं। फ़ेसबुक पर भी अपने विश्लेषण को पोस्ट करें। रिश्तेदारों की सांप्रदायिकता को लेकर बड़े स्तर पर अभियान चलाने की ज़रूरत है। कौन रिश्ते में क्या लगता है केवल उस रिश्ते का आदर करें मगर उनकी सांप्रदायिक बातों से संघर्ष करना बहुत ज़रूरी है।आपको यह समझना होगा कि इन रिश्तेदारों के असर में आकर कोई बच्चा दंगाई बन सकता है। किसी की हत्या कर सकता है। ये रिश्तेदार हमारे सामाजिक ढाँचे के लिए ख़तरा बन चुके हैं। व्हाट्स एप ग्रुप के रिश्तेदारों से सतर्क होने का समय आ गया है। इनसे दूर मत भागिए। सामने जाकर कहिए कि आप कम्यूनल हैव। आपकी सोच एक दंगाई की सोच हो चुकी है। परिवारों में लोकतंत्र बचेगा तभी देश में लोकतंत्र बचेगा।
पहले की राजनीति सांप्रदायिकता को घर घर नहीं पहुँचाती थी। दंगे होते थे और शहर या राज्य के सीमित लोग इसकी चपेट में आते थे। लेकिन अब इसका व्यापक रूप से सामाजीकरण हुआ है। इसमें इन रिश्तेदारों का बहुत बड़ा योगदान है। ख़ासकर पेंशन पाने वाले रिश्तेदारों में भयानक क़िस्म की सांप्रदायिकता देखी जा रही है। पिछले साल ठीक इसी वक्त में तब्लीग जमात को लेकर रिश्तेदारों ने फ़ैमिली ग्रुप में ज़हर फैला दिया था। उसकी तीव्रता इतनी अधिक थी कि उनके असर में हर घर में एक से अधिक दंगाई तैयार हो गया था। बाद में अदालतों के कई फ़ैसलों में इस बात को लेकर डांट लगी है कि तब्लीग का कोरोना के फैलने से कोई संबंध नहीं था। इससे भारत की बदनामी हुई है। इसी तरह इन दिनों बंगाल के फ़ैमिली ग्रुप में सांप्रदायिक बहसें होने लगी हैं। इन रिश्तेदारों के लिए सांप्रदायिकता पहली खुराक है। इसके जरिए वे हर ग़लत को सही बताने लग जाते हैं। इस कारण अलग राय रखने वाले लोगों के लिए फ़ैमिली ग्रुप में रहना असहनीय हो गया है। हालत यह हो गई है कि लड़का बेरोज़गार है लेकिन बेरोज़गारी को लेकर घर में ही बहस नहीं कर पाता है। परिवारों का लोकतांत्रिक वातावरण ख़त्म हो चुका है।
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