CAA पर बहस में झूठ का भ्रमजाल, कौन था देश के विभाजन का जिम्मेदार?

Written by Ram Puniyani | Published on: December 20, 2019
संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित नागरिकता संशोधन अधिनियम पर विविध प्रतिक्रयाएं सामने आईं हैं, जिनमें से कई नकारात्मक हैं. एक ओर जहाँ उत्तरपूर्व में इस नए कानून का भारी विरोध हो रहा है, जिसमें कई लोगों की जानें जा चुकीं है, वहीं इससे संविधान में आस्था रखने वालों और मुसलमानों में गंभीर चिंता व्याप्त हो गयी है. यह कानून पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश के ऐसे हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध, जैन और ईसाई रहवासियों को भारत की नागरिकता प्राप्त करने का अधिकार देता है, जिन्हें उनके देशों में प्रताड़ित किया जा रहा है. इस सूची में इस्लाम धर्म का पालन करने वालों का नाम नहीं है. म्यांमार जैसे देशों में मुसलमानों पर भीषण अत्याचार हो रहे हैं परन्तु वे इस सूची में शामिल नहीं है. इस कानून में जिन तीन देशों का उल्लेख किया गया है, वहां भी मुसलमानों के कई पंथों के सदस्यों को प्रताड़ित किया जा रहा है परन्तु उनके लिए इस कानून में कोई स्थान नहीं है.



इस कानून के खिलाफ बहुत कुछ लिखा जा रहा है. यह कहा जा रहा है कि यह बहुलतावादी भारत को एक हिन्दू राष्ट्र में बदलने का षडयंत्र है. यह भी चिंता का विषय है कि इस कानून का बचाव करते हुए यह आरोप लगाया जा रहा है कि धर्म के आधार पर देश के विभाजन के लिए कांग्रेस दोषी है. यह एक सफ़ेद झूठ है. राज्यसभा में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने आक्रामक तेवर अपनाते हुए कहा कि, “इस देश का विभाजन अगर धर्म के आधार पर कांग्रेस ने न किया होता, तो इस बिल का काम नहीं होता.” इसके जवाब में कांग्रेस के शशि थरूर ने कहा की शायद श्री शाह उनके स्कूल में इतिहास के पीरियड में जो पढ़ाया जाता था, उस पर ध्यान नहीं देते थे.

शाह आरएसएस के कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने बाद में संघ की विद्यार्थी शाखा एबीवीपी की सदस्यता ले ली थी. शशि थरूर का यह कहना सही है कि शाह ने स्कूल में इतिहास की पढ़ाई ठीक से नहीं की. परन्तु इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने आरएसएस की शाखाओं में पढ़ाये जाने वाले इतिहास को न केवल ग्रहण किया है बल्कि उसे आत्मसात भी किया है. हम सब जानते हैं कि महात्मा गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का भी मानना था कि भारत के विभाजन के लिए कांग्रेस के शीर्षतम नेता गांधीजी ज़िम्मेदार थे. अधिकांश हिन्दू राष्ट्रवादी भी यही मानते हैं. राष्ट्र का आधार धर्म है, यह बात सबसे पहले सावरकर और उनके बाद जिन्ना ने कही थी. परन्तु धर्म को राष्ट्र की आधार मानने के विचार की नींव रखने वाले थे हमारे औपनिवेशिक शासक जिन्होने एक ओर मुस्लिम लीग तो दूसरी ओर हिन्दू महासभा-आरएसएस को हर तरह से बढ़ावा दिया.

अंग्रेजों का लगता था कि ये दोनों संगठन ‘बांटो और राज करो’ की उनकी नीति को लागू करने में सहायक होंगे. सन 1942 में जब राष्ट्रीय आन्दोलन अपने चरम पर था, तब अंग्रेजों का ध्यान एक अन्य कारक पर भी गया. और वह था तत्कालीन विश्व की भौगोलिक-राजनैतिक परिस्थितियां. उस समय, सोवियत संघ एक महाशक्ति बन चुका था और ब्रिटेन-अमरीका की विश्व पर दादागिरी को चुनौती दे रहा था. सोवियत संघ दुनिया भर के औपनिवेशिकता-विरोधी आंदोलनों का प्रेरणास्त्रोत भी था. स्वाधीनता आन्दोलन के कई नेता समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे. यह सब देखकर ब्रिटेन को लगा कि अगर उसे दुनिया के इस हिस्से में अपना वर्चस्व बनाये रखना है तो उसे भारत को विभाजित करना ही होगा.

धर्म-आधारित राष्ट्रवाद, ज़मींदारों और राजाओं के घटते प्रभाव की प्रतिक्रिया में उभरा. औद्योगिकीकरण, संचार के बढ़ते साधनों और आधुनिक शिक्षा के प्रसार के चलते, भारत एक धर्मनिरपेक्ष-प्रजातान्त्रिक राष्ट्र के रूप में उभर रहा था. मद्रास महाजन सभा, पुणे सार्वजनिक सभा और बॉम्बे एसोसिएशन जैसे समाज के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठनों और सामाजिक परिवर्तनों की लहर ने सन 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को जन्म दिया. ज़मींदारों और राजाओं के अस्त होता वर्ग, समानता का सन्देश देने वाली सामाजिक शक्तियों के बढ़ते प्रभाव से घबरा गया. उसे लगने लगा कि जन्म-आधारित ऊंच-नीच की अवधारणा पर खड़ा उनके वर्चस्व का किला दरक रहा है.

लगभग इसी समय, मुसलमानों का एक वर्ग कहने लगा कि भारत में इस्लाम खतरे में हैं. हिन्दुओं के एक वर्ग ने, हिन्दू धर्म के खतरे में होने का राग अलापना शुरू कर दिया. राष्ट्रीय संगठनों और अन्यों ने दलितों और महिलाओं को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया. सामंती वर्ग को लगा कि यह धर्म पर आधारित असमानता पर हमला है. उनके संगठनों में प्रारंभ में केवल ज़मींदार और राजा थे. परन्तु बाद में, उन्होंने देश के कुलीन वर्ग और तत्पश्चात आम लोगों के एक तबके को भी अपने साथ लेने में सफलता हासिल कर ली. यहीं से हिन्दू और मुस्लिम राष्ट्रवाद की नींव पड़ी. इस प्रकार, एक ओर था भारतीय राष्ट्रवाद, जिसके प्रतिनिधि गाँधी, अम्बेडकर और भगत सिंह जैसे नेता थे तो दूसरी ओर था धार्मिक राष्ट्रवाद जिसके चेहरे थे मुस्लिम लीग, जिसका गठन 1906 में हुआ और हिन्दू महासभा और आरएसएस, जो क्रमशः 1915 और 1925 में अस्तित्व में आये. जहाँ भारतीय राष्ट्रवादी, देश में व्याप्त असमानता के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे वहीं धार्मिक राष्ट्रवादी अपने-अपने प्राचीन गौरव का गुणगान कर रहे थे.

सावरकर, हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे का विरोधी मानते थे. मुस्लिम लीग को लगता था कि हिन्दू बहुसंख्यक देश में मुसलमानों को समान अधिकार नहीं देंगे. हिन्दू राष्ट्रवादियों ने मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाना शुरू कर दिया, जिसकी परिणीति सांप्रदायिक दंगों के रूप में सामने आई.

देश में सांप्रदायिक हिंसा के दावानल ने कांग्रेस को इस बात के लिए मजबूर कर दिया कि वह माउंटबैटन के देश के विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार कर ले. कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार करते हुए अपने प्रस्ताव में कहा कि यद्यपि वह द्विराष्ट्र सिद्धांत (जिसके समर्थक सावरकर, जिन्ना, गोलवलकर, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और आरएसएस थे) को स्वीकार नहीं करती, तथापि देश में बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा की तुलना में वह विभाजन को देश के लिए कम बुरा मानती है. विभाजन की रूपरेखा बनाने वाले वीपी मेनन के अनुसार, “पटेल ने दिसंबर 1946 में ही देश के विभाजन को स्वीकार कर लिया था परन्तु नेहरु इसके लिए छह माह बाद राजी हुए”.

मौलाना आजाद और गांधीजी ने द्विराष्ट्र सिद्धांत और देश के विभाजन को कभी स्वीकार नहीं किया परन्तु देश में साम्प्रदायिकता के नंगे नाच को देखते हुए, उन्होंने चुप रहना ही बेहतर समझा. अमित शाह और आरएसएस का यह दावा एकदम गलत है कि कांग्रेस ने धर्म को राष्ट्र के आधार के रूप में स्वीकृति दी.  (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) 

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