जंगलों के निजीकरण पर उठते सवाल

Written by Raj Kumar Sinha | Published on: October 23, 2020
मध्यप्रदेश की सरकार ने 37 लाख हैक्टेयर बिगड़े वन क्षेत्रों को पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशीप (पी.पी.पी) मोड पर निजी कम्पनियों को देने का निर्णय लिया है। यह कौन सा वन क्षेत्र है? इसे जानने और समझने की जरूरत है।प्रदेश के कुल 52739 गांवों में से 22600 गांव या तो जंगल में बसे हैं या फिर जंगलों की सीमा से सटे हुए हैं। 



मध्यप्रदेश के जंगल का एक बङा हिस्सा आरक्षित वन है और दूसरा बङा  हिस्सा राष्ट्रीय उद्यान,अभयारण्य,सेंचुरी आदि के रूप में जाना जाता है। बांकी बचता है जिसे बिगड़े वन या संरक्षित वन कहा जाता है। इस संरक्षित वन में स्थानीय लोगों के अधिकारों का दस्तावेजीकरण किया जाना है और अधिग्रहण नहीं किया जाना है। यह संरक्षित जंगल स्थानिय आदिवासी समुदाय के लिए बहुत महत्वपूर्ण आर्थिक संसाधन है जो जंगलों में बसे हैं और जिसका इस्तेमाल आदिवासी समुदाय निस्तार जरूरतों के लिए करते हैं।

सन् 1956 में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के समय राज्य की भौगोलिक क्षेत्रफल 442.841 लाख हैक्टेयर था। जिसमें से 172.460 लाख हैक्टेयर वनभूमि और 94.781 लाख हैक्टेयर वनेत्तर सामुदायिक वनभूमि दर्ज थी। उक्त संरक्षित भूमि को वन विभाग ने अपने वर्किंग प्लान में शामिल कर लिया जबकि जबकि इन जमीनों के बंटाईदारों,पट्टेधारियों या अतिक्रमणकारियों को हक दिये जाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। 

वन विभाग ने जिन भूमि को अनुपयुक्त पाया उसमें से कुछ भूमि 1966 में राजस्व विभाग को अधिक अन्न उपजाओ योजना के तहत अंतरित किया वहीं अधिकतर अनुपयुक्त भूमि वन विभाग ने "ग्राम वन" के नाम पर अपने नियंत्रण में ही रखा।

इसी संरक्षित वन में से लोगों को वन अधिकार कानून 2006 के अन्तर्गत सामुदायिक वन अधिकार या सामुदायिक वन संसाधनों पर अधिकार दिया गया है या दिया जाने वाला है।अगर ये 37 लाख हैक्टेयर भूमि उद्योगपतियों के पास होगा पास होगा तो फिर लोगों के पास कौन सा जंगल होगा?पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में पेसा कानून प्रभावी है जो ग्राम सभा को अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण का अधिकार देता है।

क्या पीपीपी मॉडल में सामुदायिक अधिकार प्राप्त ग्राम सभा से सहमति लिया गया है? वन अधिकार कानून द्वारा ग्राम सभा को जंगल के संरक्षण,प्रबंधन और उपयोग के लिए जो सामुदायिक अधिकार दिया गया है उसका क्या होगा?

विभिन्न नीति एवं क़ानून के कारण भारत का वन अबतक वैश्विक कार्बन व्यापार में बडे पैमाने पर नहीं आया है। साईफर एवं फोरेस्ट ट्रेंड जैसे एनजीओ जो विश्व बैंक द्वारा पोषित है, वह अपने दस्तावेज में कह रहें हैं कि भारत के जंगलवासी समुदाय (आदिवासी प्रमुख रूप से) कार्बन व्यापार परियोजना से लाभान्वित हो सकेंगे।

शोध आदिवासियों के बारे में रंगीन व्याख्या कर प्रेरित करते हैं कि उनकी हालत रातों रात सुधर जाएगी। कैसे आदिवासी कार्बन व्यापार की जटिलता को समझकर उथल- पुथल कार्बन भाव-ताव को समझेगा? दूसरी बात, भारत में वर्ग एवं जातिय समीकरण तथा जमीन के प्रति रिश्ते की जटिलता होते हुए गांव स्तर की संस्था कैसे एक अलग प्रकार के जंगल से मिलने वाले धन को आपस में बाँटेगें? संयुक्त वन प्रबंधन के कङवे अनुभव इसका उदाहरण है।

पिछले कई वर्षों से विश्व बैंक की सहायता एवं प्रोत्साहन से वन विभाग के द्वारा संयुक्त वन प्रबंधन के नाम से जंगल क्षेत्रों में ग्राम वन समिति एवं वन सुरक्षा समिति चल रही है। यह परियोजना ग्रामवासीयों  को ताकत एवं मदद करने की बजाए भ्रष्टाचार,झगड़ा एवं शोषण का घर बना दिया है। अतः कार्बन व्यापार के जरिए (वनीकरण करके) अन्तराष्ट्रीय बाजार से करोड़ों रूपये कमाना ही एकमात्र उद्देश्य निजी  कम्पनियों का होगा।अंत में स्थानिय समुदाय अपने निस्तारी जंगलों से बेदखल हो जाएगा। 

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