असहमति के आधार पर लोगों को गिरफ्तार किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण- प्रशांत भूषण

Written by Sabrangindia Staff | Published on: December 3, 2018
नई दिल्ली: आतंकवाद विरोधी क़ानूनों के ज़रिये नागरिक अधिकार के लिए लड़ने वाले वकीलों, कवियों और लेखकों को प्रताड़ित कर लोकतांत्रिक असहमति को दबाने की चिंताजनक प्रवृत्ति की सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ प्रशांत भूषण ने निंदा की है. दिल्ली स्थित कॉन्सटीट्यूशन क्लब में एक चर्चा के दौरान उन्होंने कहा, ‘यह हमारी व्यवस्था के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोगों को असहमति जताने के विचार की वजह से गिरफ़्तार किया जा सकता है.’

उन्होंने कहा, ‘हमें यूएपीए, एनएसए, आफ्सपा जैसे असंवैधानिक क़ानूनों के ख़िलाफ़ संघर्ष करना पड़ेगा, जिनका असहमति और राजनीतिक विरोधियों को परेशान करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. हमें अपने संस्थाओं को बचाने और सांप्रदायिक ज़हर से मुक्ति के लिए भी संघर्ष करना पड़ेगा.’

मालूम हो कि बीते 28 अगस्त को महाराष्ट्र की पुणे पुलिस ने माओवादियों से कथित संबंधों को लेकर पांच कार्यकर्ताओं- कवि वरवरा राव, अधिवक्ता सुधा भारद्वाज, सामाजिक कार्यकर्ता अरुण फरेरा, गौतम नवलखा और वर्णन गोंसाल्विस को गिरफ़्तार किया था.

महाराष्ट्र पुलिस ने पिछले साल 31 दिसंबर को एलगार परिषद के सम्मेलन के बाद पुणे के भीमा-कोरेगांव में हिंसा के मामले में दर्ज प्राथमिकी की जांच के सिलसिले में कई स्थानों पर छापे मारे थे और ये गिरफ़्तारियां की थीं.

इससे पहले महाराष्ट्र पुलिस ने पिछले साल पुणे में आयोजित एलगार परिषद की ओर से आयोजित कार्यक्रम से माओवादियों के कथित संबंधों की जांच करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता सुधीर धावले, रोना विल्सन, सुरेंद्र गाडलिंग, शोमा सेन और महेश राउत को जून में गिरफ्तार किया था.

कार्यक्रम में शामिल प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर कहा, ‘भारतीय इतिहास में असहमति और विविधता के विचार का हमेशा सम्मान रहा है और इसे हमेशा ही सामान्य तरीके से ही लिया गया है.’ उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि असहमति राज्य के ख़िलाफ़ कार्य नहीं है बल्कि यह किसी भी लोकतंत्र के लिये एक अनिवार्य हिस्सा है.

सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय ने कहा, ‘सरकार इन सामाजिक कार्यकर्ताओं को सिर्फ़ इसलिए गिरफ़्तार कर रही है क्योंकि ये लोग बहुत मज़बूती से सरकार की नीतियो की असफलता पर सवाल उठाते रहे हैं.’

मीडिया की आज़ादी के अभाव पर बोलते हुए प्रसिद्ध पत्रकार एन. राम ने एक तमिल पत्रिका नक्किरण के ख़िलाफ़ आर्टिकल 124-A इस्तेमाल करने का उदाहरण दिया. उन्होंने कहा, ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी को उदार विचारों से आगे जाकर उसे न्याय के विचार के साथ जोड़ना होगा ताकि वो और मज़बूत हो सके. एक शैक्षिक अभियान चलाने की ज़रूरत है जो अभिव्यक्ति की आज़ादी में असहमति और प्रदर्शन के महत्व को बता सके.’

युवा कार्यकर्ता अनिर्बान भट्टाचार्य ने कहा, ‘जो लोग सत्ता में हैं वो तीन ‘डी’ पर काम कर रहे हैं- डिवाइड, डाइवर्ट और डिमोनाइज़. अर्बन नक्सल और एंटी नेशनल जैसे शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है जिसे समाज में नाकाम करने के लिए प्रयास करने की ज़रूरत है.’

जेएनयू से रिटायर प्रोफेसर ज़ोया हसन ने कहा, ‘इमरजेंसी के बाद इस तरह से अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला पहले नहीं देखा गया. यह सरकार पिछली सरकार से अलग अंतरिम दुश्मन पैदा कर रही है. इसका उद्देश्य राज्य के असली दुश्मन को लक्ष्य करना नहीं है बल्कि असहमति के स्वर को दबाना और शोषित और अल्पसंख्यक वर्ग को डराना है. इसलिए यह ज़्यादा ख़तरनाक है, जो बहुलतावाद का प्रभुत्व लाना चाहती है.’

बता दें कि याचिकाकर्ताओं के समूह की ओर से यह बैठक बुलाई गई थी. तीस से अधिक वरिष्ठ वकीलों द्वारा पांचों सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी के विरोध में दाख़िल याचिका बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज कर दी थी. पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं में से चार- कवि वरवरा राव, अधिवक्ता सुधा भारद्वाज, सामाजिक कार्यकर्ता अरुण फरेरा और वर्णन गोंसाल्विस पुणे जेल में हैं जबकि पांचवें आरोपी गौतम नवलखा अपनी गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं.

इतिहासकार रोमिला थापर, अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक और देवकी जैन, समाजशास्त्र के प्रो. सतीश पांडे और मानवाधिकार कार्यकर्ता माजा दारूवाला ने शीर्ष अदालत में याचिका दायर कर इन मानवाधिकार एवं नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं की तत्काल रिहाई तथा उनकी गिरफ्तारी की स्वतंत्र जांच कराने का अनुरोध किया था.

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