बलात्कारी मानसिकता को राजनीतिक संरक्षण का दौर

Written by तारेंद्र किशोर | Published on: April 17, 2018
आज से पांच साल पहले 16 दिसंबर 2012 में देश की राजधानी दिल्ली में होने वाली सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद कुछ ऐसा मंजर था - लोग सड़कों पर हाथ में मोमबत्ती लेकर निकले हुए हैं, चारों तरफ बलात्कारियों को फांसी की सजा देने को लेकर शोर सुनाई दे रहा है, कानून में बदलाव को लेकर मांगें उठ रही हैं। इन्हीं सब के बीच इस घटना के करीब एक साल के बाद टीवी पर एक औरत का चेहरा बार-बार आ रहा है। सख्त और चिंतित मां की प्रभावशाली भूमिका निभा रही वो अधेड़ उम्र की अभिनेत्री अपने संदेश के आखिरी में कह रही है - बहुत हुआ नारी पर वार, अबकी बार मोदी सरकार।



इस घिनौनी घटना के बाद आई प्रतिक्रियाओं में समाज के सभी वर्ग के लोग एक सुर में दोषियों के लिए फांसी की सजा की वकालत करते हैं। सजा को लेकर तमाम तरह के बहस-मुबाहिसों का एक दौर चलता है। समाज, राजनीति और मीडिया के अंदर यह बहस दो धड़ों में बंटजाता है। 

एक वैचारिक धड़ा बलात्कार की घटनाओं के पीछे कमजोर कानून व्यवस्था और न्याय व्यवस्था को दोषी ठहरा रहा होता है तो दूसरा वैचारिक घड़ा इसे एक गंभीर समाजिक समस्या के रूप में देख रहा होता है। 

उस वक्त इस समस्या को कानून व्यवस्था में कमी के रूप में देखने वाले पुलिस और कानून के खौफ को कम होता हुआ देख रहे थे। लेकिन वो इस तथ्य को नजरअंदाज कर रहे थे कि कानून का खौफ अगर अपराधियों को अपराध करने से रोक पाती है या फिर अपराध का ग्राफ कम कर पाती है तो कठोर कानून व्यवस्था वाले देशों में तो अपराध खत्म हो जाने चाहिए थे।

समान्य तौर पर यह बात सही जरूर लगती है कि कड़ी सजा के डर के बिना तो अपराधियों का मनोबल और बढ़ जाएगा पर व्यवहारिक तौर पर सजा और अपराध के ग्राफ के बीच कोई सीधा सीधा संबंध दुनिया के किसी भी समाज या देश में नजर नहीं आता है।

कमजोर कानून व्यवस्था की दलील देने वाले अप्रत्यक्ष रूप से यह साबित करना चाह रहे थे कि भारतीय कानून व्यवस्था एक लचर और कमजोर न्याय व्यवस्था है।

दूसरे धड़े का कहना था कि बलात्कार और समाज में स्त्रियों पर बढ़ती अपराधिक घटनाओं के पीछे समाज की पुरूषवादी मानसिकता जिम्मेवार है और यह एक सामाजिक विकृति है। इस तरह की मानसिकता रखने वालों में स्त्री और पुरूष दोनों ही लिंग वर्ग के लोग होते हैं। ऐसे लोग बलात्कार की घटना के लिए लड़कियों के छोटे कपड़ों और देर रात तक बाहर घूमने को जिम्मेवार ठहराते हैं। 

हालांकि तमाम बहसों के बाद कानून व्यवस्था तो दुरुस्त करने की सोच को लेकर जस्टिस वर्मा कमिटी बनाई जाती है और कानून को अपेक्षाकृत कठोर बनाया जाता है।

इस दौरान वो पुरानी सरकार भी बदल गई होती है जिसके खिलाफ लचर रूख अपनाने और महिलाओं को सुरक्षा नहीं देने को लेकर खूब शोरगुल हो रहा होता है। उस वीडियो वाली महिला की अपील भी लोगों ने सुन ली होती है और मोदी सरकार भी सत्ता में आ गई होती है।

करीब पांच साल के बाद अप्रैल 2018 का महीना आता है।

11 अप्रैल को जम्मू के कठुआ जिले में बार एसोसिएशन के वकील हाथ में तिरंगा लिए 8 साल की बच्ची के बलात्कार के आरोपियों की गिरफ्तारी का विरोध जय श्रीराम के नारे के साथ कर रहे हैं। माना जाता है कि ये बार एसोसिएशन जम्मू बीजेपी से ताल्लुक रखती है। इस पूरे मामले को हिंदू-मुस्लिम रंग देने में कोई कसर नहीं छोड़ा जा रहा है। बलात्कार के आरोपियों में पुलिस का एक कॉन्सटेबल दीपक खजूरिया भी शामिल है। 10 जनवरी को आठ साल की यह बच्ची घोड़े के लिए जंगल चारा लेने गई रहती है जहां से उसे अगवा कर उसके साथ एक हफ्ते तक सामूहिक बलात्कार किया जाता है। जम्मू कश्मीर पुलिस की क्राइम ब्रांच ने तीन महीने लंबी पड़ताल के बाद 9 अप्रैल को आरोपपत्र अदालत में दाखिल किया। आरोपपत्र के मुताबिक राजस्व विभाग का एक रिटायर्ड कर्मचारी सांझी राम अपने नाबालिग भतीजे को बच्ची का अपहरण करने को कहता है। नाबालिग भतीजा अपने एक साथी के साथ मिलकर बच्ची का अपहरण कर जंगल में बलात्कार करता है फिर उसे एक मंदिर के स्टोर रूम में बंद कर देता है। 

इसके बाद वो बच्ची से बलात्कार करने के लिए अपने एक दूसरे दोस्त को बुलाता है जो उस वक्त मेरठ में होता है। वो मेरठ से गांव पहुंचता है और बच्ची के साथ बलात्कार करता है। पुलिस कॉन्सटेबल दीपक खजूरिया इस मामले में चल रहे जांच का हिस्सा होता है और वो भी अभियुक्तों के साथ मिलकर इस साजिश में शामिल होता है और उस आठ साल की मासूम बच्ची को मारने से पहले ‘अपनी हवस मिटाना चाहता है’ कहकर बलात्कार करता है।

एक दूसरे मामले में जम्मू से सैकड़ों मील दूर उत्तर प्रदेश के उन्नाव के बीजेपी विधायक पर एक युवती बलात्कार का आरोप लगाती है। पीड़ित युवती का पिता पुलिस में विधायक के खिलाफ शिकायत दर्ज करवाने जाता है। वहां उसे ही हिरासत में लेकर इतना मारा जाता है कि उसकी मौत हो जाती है। हाईकोर्ट के दखल के बाद इस मामले में विधायक कुलदीप सिंह सेंगर के खिलाफ मामला दर्ज हो पाता है।सोशल मीडिया में इस तरह के कई ऑडियो टेप भी सामने आते हैं जिनमें पीड़ित पक्ष को विधायक और उनके लोग कथित तौर पर धमकी दे रहे हैं।

तभी टीवी पर एक और बयान आता है,“अब आप ही बताइए, तीन बच्चे की मां के साथ कोई रेप करता है? मैं मनोवैज्ञानिक आधार पर कह सकता हूं कि ये बिल्कुल असत्य है। महिला उत्पीड़न और हरिजन उत्पीड़न के नाम पर लगता है पूरे समाज का उत्पीड़न हो गया।”

जी हां सही सुना आपने। यह बयान उत्तर प्रदेश के ही बैरिया के बीजेपी विधायक सुरेंद्र सिंह का है जो उन्होंने कुलदीप सिंह सेंगर के पक्ष में दिया। 

मध्यप्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष नंद कुमार चौहान तो कठुआ गैंग रेप मामले में पाकिस्तान का हाथ होने तक का बेतुका और निहायत ही संवेदनहीन बयान देते हैं।  
कुछ देख पा रहे हैं आप? इन पांच सालों में हमने एक नागरिक समाज के तौर पर कहां तक का सफर तय कर लिया है?

बलात्कार के आरोपियों के विरोध में नहीं पक्ष में प्रदर्शन हो रहे हैं। जो भीड़ बलात्कार पीड़िता को इंसाफ देने के लिए होती थी, वो बलात्कारियों को बचाने के लिए सड़क पर निकल आए हैं। एक खास जाति-धर्म की लड़कियों के साथ होने वाले बलात्कार को न्यायोचित ठहराने की कोशिश शुरू हो गई है। एक खास धारा के लोग इसमें योजनाबद्ध तरीके से तिरंगा, धर्म, पाकिस्तान का विरोध और राष्ट्रवाद के नारे के साथ संलिप्त हो रहे हैं। आरोपपत्र के मुताबिक सांझी राम ने दिसंबर 2017 से बकरवाल मुस्लिम संप्रदाय को सबक सिखाने के लिए बलात्कार की योजना बना रखी थी। बलात्कार अब एक योजनाबद्ध तरीके से इस्तेमाल होने वाला राजनीतिक हथियार बन चुका है जैसे नागरिक युद्धों में हुआ करता है। ‘बहुत हुआ नारी पर वार’ नारा देने वाले बलात्कारियों को बचा रहे हैं और उनके खुद के नाम भी बलात्कार के मामलों में आ रहे हैं। अब बहस के मुद्दे बदल गए हैं। ना ही कोई कानून की बात कर रहा है और ना ही कोई बलात्कारी मानसिकता की। हिंदू-मुस्लिम, जाति-धर्म और राष्ट्रवाद ने बलात्कार के मुद्दे में भी अपनी जगह बना ली है।

यकीन मानिए ये लोग कहीं और से नहीं आ रहे हैं। ये हमेशा से इसी समाज में मौजूद थे। यह वही लोग हैं जो बलात्कार की घटना को अखबारों में चटखारे लेकर पढ़ते हैं। बलात्कार की ख़बरों को भी किसी अश्लील कहानी या फिल्म का मजा ढूंढ़ते हैं। यह एक तरह की मानसिक बीमारी है जिसका शिकार सिर्फ बलात्कार करने वाला ही नहीं बल्कि उपरोक्त तर्क देने वाला पूरा समाज है।

इस देश की पुलिस भी इस बीमारी की शिकार है। आखिर ये पुलिस आती कहां से है। वह भी तो इसी समाज का हिस्सा है। उसका मानसिक और सामाजिक आधार भी तो यही समाज है।यह वही समाज है जो बलात्कारियों को सजा के बाद या जमानत पर छुटने के बाद आसानी से सम्मान के साथ वापस अपना लेता है। सच पूछिए तो यह मानसिकता हमेशा से इस समाज में मौजूद थी लेकिन एक बड़ा फर्क ये आया है कि अब इस मानसिकता को समाज में ऐसी ही मानसिकता का प्रतिनिधित्व करने वाली सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से राजनीतिक संरक्षण भी मिलना शुरू हो गया है।

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