गोदी मीडिया और भक्तों की हुआं हुआं के बीच उम्मीदों का चिराग जला रहा किसान आंदोलन

Written by Navnish Kumar | Published on: January 5, 2021
''जा रहा साल पूरी तरह निराशा का साल बन जाता लेकिन किसान आंदोलन ने उम्मीदों का चिराग जला दिया''। जी हां, यह उक्ति अनायास नहीं है। 40 दिन, 60 के करीब मौत और तारीख पर तारीख के सरकार के वार्ता के थकाऊ एजेंडे और बदनाम करने वाले रवैये के बावजूद किसानों का हौसला बढ़ता ही जा रहा है। किसान तनिक विचलित नहीं हैं। यह भी तब, जब पूरी मोदी सरकार विचलित न होने का दिखावा करती हुई, प्रचार युद्ध में सड़कों पर उतर आई हो और आंदोलन तोड़ने को हर फार्मूला इस्तेमाल कर रही हो। ऐसे में शांतिपूर्ण किसान आंदोलन सामाजिक संघर्ष (जनांदोलन) में तब्दील हो गया है और देश भर में जिंदादिली और उम्मीदों का नया प्रतीक बन गया है। 



कहावत भी है कि जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है और उसे सच साबित किया किसान आंदोलन ने। जाते साल में जिस हिम्मत के साथ किसान खड़ा हुआ उसने साऱी निराशाओं के अंधेरे को छांट दिया। यह स्वत:स्फूर्त आंदोलन इतना व्यापक रूप लेगा यह किसी ने नहीं सोचा था। सरकार चौंक गई। उसने आंदोलन को बदनाम करने की हर चाल चली। खालिस्तानी कहा, माओवादी, विदेशों से सहायता प्राप्त क्या क्या नहीं कहा। मगर किसानों का आंदोलन जरा नहीं भड़का, न ही शांतिपूर्ण रास्ते से भटका। उल्टा उसने अप्रत्याशित रूप से आरोपों की तोप का मुंह दूसरी तरफ मोड़ दिया। अंबानी और अडानी निशाने पर आ गए। किसानों ने सीधा अंबानी अडानी को फायदा पहुंचाने के आरोप लगाकर और जियो का बहिष्कार का आह्वान करके पहली बार दोनों को डिफेंसिव बना दिया। लोगों के बीच यह चर्चा होने लगी कि अगर अनाज अंबानी अडानी के कब्जे में पहुंच गया तो वह भी मोबाइल के डाटा की तरह रोज मंहगा होता चला जाएगा। खेती किसानी तबाह हो जाएगी। नतीजा किसानों का समर्थन बढ़ा और हौसला भी। 

अब 40 दिन हो गए हैं मगर किसान ठंड व बारिश में खुले में सड़क पर डटा है। आंदोलन में फूट डालने की हर कोशिश नाकामयाब हो गई। मीडिया थक गया। एजेंडा बदलने की उस की कोशिश पहली बार असफल साबित हुई। हालत यह हो गई कि कई टीवी चैनल इतने एक्सपोज हो गए कि अपना नाम लिखा माइक लेकर वे किसानों के बीच जा नहीं पा रहे। किसान शांतिपूर्ण तरीके से उनसे बात करने से मना कर देते हैं। गो बैक के नारे लगाते हैं। उल्टे उनसे सवाल पूछने लगते हैं। सो-कॉल्ड मुख्य धारा का मीडिया भी पहली बार दबाव में दिख रहा है।

किसानों ने अपना अखबार निकाल लिया, ट्राली टाइम्स। अगर आंदोलन लंबा चला तो वे अपना चैनल भी शुरू कर देंगे। यह समानान्तर मीडिया अगर शुरू हो गया तो मुख्यधारा के मीडिया के लिए बड़ी चुनौती बन जाएगा।चुनौतियों के बीच में ही नई मौलिक शुरुआतें होती हैं। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में जब सारे अंग्रेजी अखबार अंग्रेजों का साथ दे रहे थे तब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जनता का पक्ष रखने के लिए नेशनल हैराल्ड शुरू किया था। आज जब सोशल मीडिया कहे जाने वाले फेसबुक और ट्विटर का झुकाव भी सत्ता पक्ष की और होने लगा है तो सूचना और जन जागरूकता के नए माध्यमों की खोज ज्यादा जरूरी है। 

किसान आंदोलन इस तरह दोहरी उम्मीद का प्रकाश स्तंभ बन गया है। एक तरफ यह मिथ टूटा है कि भक्तों की इस हुआं हुआं में कोई और आवाज उठ ही नहीं सकती। दूसरे यह दिखा कि गोदी मीडिया के एकाधिकार में आंदोलन के नए अख़बार, संभावित चैनल नई राह बना सकते हैं। जा रहे साल की निराशा की धुंध इसी तरह छटेगी कि आने वाला साल उम्मीद का साल बने और उम्मीदों का चिराग हमेशा जलता रहे।

वरना तो 2020 ऐसा होगा किसने सोचा था? साल के शुरू में ही कोविड, अचानक बिना तैयारी लाकडाउन से भय और घबराहट का माहौल। लाखों लोगों का दिनों-हफ़्तों तक हजारों किलोमीटर पैदल चलकर घर जाना। अर्थव्यवस्था धड़ाम, नौकरियां गई, मौतों का तो कोई हिसाब ही नहीं है। कहीं कोरोना से तो कहीं छंटनी के डर से भी। हर तरफ बुरी खबरों की बाढ़। सबसे ज्यादा निराश किया मीडिया ने। देश के इतिहास में ऐसा लिजलिजा और निर्लज्ज मीडिया पहले कभी नहीं हुआ। सुशांत राजपूत, हाथरस गैंगरेप व ह्त्या, सभी में मीडिया का पतन सबने देखा। किसी को नहीं बख्शा। मजदूर, किसान, जवान मिडिया सबके खिलाफ गया। चीनी घुसपैठ के समय सरकार के बचाव में बेशर्मी से टीवी कहता है कि घुसपैठ रोकना सेना का काम है सरकार का नहीं। सेना पर इस तरह दोष इससे पहले कभी नहीं मढ़ा गया। इस सब के बावजूद न्याय का चिराग नहीं बुझा। लो टिमटिमाई, प्रकाश कमजोर हुआ मगर उम्मीद का दिया जलता रहा। 

दूसरी ओर, 21वीं सदी के 21वें साल के चौथे दिन 4 जनवरी को सरकार और किसानों के बीच वार्ता का सातवां दौर भी बेनतीजा खत्म हुआ। 4 घंटे में 3-3 कृषि कानून लाने वाली ताकतवर मोदी सरकार, टाइम पास को 40 दिन बाद भी विपक्ष के किसानों को गुमराह करने का ही राग अलाप रही हैं। उससे 8 जनवरी की 8वें दौर की प्रस्तावित वार्ता का भी परिणाम सभी जान गए है। सरकार किसानों को तौल रही हैं। किसान चाहते हैं कि, कानून रद्द हों और सरकार चाहती है कि कानून बने रहें, कुछ संशोधन कर दिये जाएं। देहात में जुमला भी हैं, पंचों की राय सर माथे पर परनाला यहीं गिरेगा। यह परनाला किसानों के अस्तित्व के लिये खतरा है और किसान इस खतरे से अनभिज्ञ नहीं हैं। वे चाहते हैं कि न केवल यह परनाला बंद हो बल्कि आगे उसकी प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त हो।

यह तीनों कानून कृषि सुधार के नाम पर लाये गये हैं। पर इन तीनों कानूनों से कॉरपोरेट का ही खेती किसानी में विस्तार होगा, न कि किसानों का कोई भला या उनकी कृषि में कोई सुधार होने की बात दिख रही है। किसान संगठन इस पेंचीदगी और अपने साथ हो रहे इस खेल को शुरू में ही समझ गए, इसीलिए वे अब भी अपने स्टैंड पर मजबूती से जमे हैं कि, सरकार इन कानूनों को पहले वापस ले, तब आगे वे कोई और बात करें। 

हालांकि किसान से अधिक यह कृषि कानून, आम उपभोक्ताओं के लिये भी नुकसानदेह साबित होंगे। यह आंदोलन जिन तीन बिलों के खिलाफ हो रहा है उनमें एक में गेहूं-चावल आदि खाद्यान्न को आवश्यक वस्तु अधिनियम से बाहर कर, उनके असीमित भंडारण की अनुमति भी कानूनन दे दी गयी है। इसका क्या असर उपभोक्ताओं पर पड़ेगा, यह जानने के लिए थोड़ा पहले चलना होगा जब अचानक तुअर, मूंग, अरहर आदि दालों की कीमत आसमान छूने लगी थी। 70-80 रुपये किलो की दाल 2015-16 में 200 का आंकड़ा पार कर गई थी। सवाल है ऐसा क्यों हुआ था? क्या दालों का उत्पादन गिर गया था या अचानक खपत बढ़ गई थी। बहरहाल दोनों ही कारण नहीं थे। देश के तुअर और मूंग उत्पादक प्रदेशों मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा में सब जगह ठीकठाक फसल हुई थी। फिर कीमतों में ऐसा उछाल क्यों? 

कारण, मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार 2014 में अडानी विल्मार आदि कंपनियों द्वारा किसानों और छोटे स्टॉकिस्टों से, 30 रुपये की सस्ती दर पर दालों की सैंकड़ो लाख टन की खरीददारी, फिर मोदी सरकार के स्टॉक की सीमा कानून से दालों के बाहर कर देने और सही समय पर दालों का आयात न करना और बाद में महंगा आयात करना आदि हैं। 

सवाल अडानी ग्रुप का नहीं हैं, सवाल उससे कहीं आगे का यह हैं कि तब तमाम कानून थे जिनके आधार पर ऐसे शातिर व्यापार पर मोदी सरकार, नियंत्रण कर सकती थी, पर नए कृषि कानूनों ने तो कॉरपोरेट को मनचाहे दाम तय करने व असीमित भंडारण करने सहित अनेक सुविधाएं कानूनन दे दी हैं। सच तो यह है कि, यदि ये काले कानून जस के तस लागू हो गए तो घर का पूरा बजट केवल अनाज व तेल खरीदने में ही खर्च हुआ करेगा। यानि नए कृषि कानूनों का खामियाजा किसान को ही नहीं, उपभोक्ताओं को भी भुगतना पड़ेगा।

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