सांसों की जरुरत पर सियासत और ऑक्सीजन की लूट

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: April 24, 2021
कोरोना की दूसरी लहर में कुप्रबंधन और कुव्यवस्था से लाशों में तब्दील हुए शहर



उच्चतम न्यायालय ने कोरोना महामारी की दूसरी लहर से पैदा हुए हालात और कोविड-19 से सम्बंधित स्थिति को राष्ट्रीय आपातकाल क़रार दे दिया है. देश में हालत गंभीर है और नागरिक असहाय हैं. कोरोना संक्रमित लोगों की संख्यां रिकॉर्ड स्तर से बढ़ रही है. 24 घंटे में नए मरीजों की संख्यां लगभग साढ़े 3 लाख तक पहुँच चुकी है. अस्पतालों में बेड, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर के साथ ही इलाज करने वाली मशीनरी व् दवाईयों की कमी से भी जूझना पड़ रहा है. देश के अलग-अलग शहरों से ऑक्सीजन की हो रही लूट की ख़बर सामने आ रही है. आज इंसानी जान को अपनी सांसों को बनाए रखने के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर पर निर्भर होना पड़ रहा है. 

हमारा देश एक बार फिर कोरोना महामारी की वजह से गंभीर चुनौती का सामना कर रहा है. पिछले साल कोविड-19 के विस्तार के बाद सरकारी लापरवाही के बावजूद कई सरकारी तुगलकी फरमान को जनता नें सहर्ष स्वीकार किया. रातों रात देश में पूर्णबंदी की घोषणा कर दी गयी. ताली थाली बजाने का फ़िजूल कार्यक्रम किया गया. उस समय अस्थायी अस्पताल, जाँच केंद्र, पीपीई किट, मास्क व् तमाम सुविधाएँ उपलब्ध कराने को लेकर सरकारी तंत्र स्वघोषित रूप से तत्पर हुई और साल के अंत तक ऐसा मान लिया गया कि हमारा देश कोरोना से जंग जीत चूका है. कोरोना की इस लड़ाई को अंजाम तक पहुचाने के लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने वैक्सीन तक का इजाद कर लिया हालाँकि वैक्सीन लेने के बाद भी देश में 21 हज़ार लोगों के कोरोना पॉजिटिव होने की खबर है. इन सभी कवायदों के बीच ऐसा लगने लगा था कि कोरोना से लडाई लड़ने की दिशा में हम दुनिया के अन्य देशों से बहुत आगे निकल चुके हैं. लेकिन फिर अचानक से परिस्थितियां हमारे हाथ से फ़िसलती चली गयीं और आज एक बार फिर हम कोरोना की गिरफ़्त में हैं.  

एक देश के रूप में, एक राजनीतिक-प्रशासनिक तंत्र के रूप में, एक सरकार के रूप में आज हम विफ़ल होते हुए दिख रहे हैं. यह भी कह सकते हैं कि पिछले एक साल की परिस्थिति से हम कुछ सीख नहीं पाए हैं. कोरोना की पहली लहर के समय तैयार की गई आधारभूत स्वास्थ्य सुविधाएं भी इस दूसरी लहर में काम नहीं आ रही हैं. जब दुनिया भर के वैज्ञानिकों द्वारा पहले ही कोरोना को हल्के में नहीं लेने की चेतावनी दे दी गयी थी तो फिर ऐसी लापरवाही कैसे हो गयी? भारत फार्मेसी के क्षेत्र में दुनिया भर में 60 फ़ीसदी से अधिक की हिस्सेदारी रखता है तो वह देश दवाई और ऑक्सीजन की किल्लत का सामना क्यूँ कर रहा है? यह सिर्फ़ सरकार के बेबस हो जाने की बात नहीं है बल्कि जमाखोरों और कालाबाजारी करने वालों के गठजोड़ के सामने घुटने टेकने की भी बात है या यूँ कहें कि उनके साथ किए गए सरकारी गठजोड़ की भी बात है. 

ऑक्सीजन से जुड़े तथ्य:
कोरोना कुप्रबंधन का नजारा हर तरफ़ दिख रहा है. ताजनगरी आगरा में कोरोना मरीज़ों  के लिए दिए जाने वाले बेड पर बोलियाँ लगाई जा रही हैं तो महाराष्ट्र के नासिक में ऑक्सीजन सिलेंडर में लीक होने के कारण 24 मरीजों की जान चली गयी. ऑक्सीजन की कमी के कारण देश भर में सैकड़ों लोगों की मौतें हर ऱोज हो रही है. जबकि ऑक्सीजन से जुड़े तथ्य कुछ और ही बयां करते हैं. 18 अप्रैल को भारत सरकार द्वारा जारी किए गए आंकड़े के अनुसार भारत की कुल ऑक्सीजन खपत मेडिकल क्षेत्र में 4300 मीट्रिक टन है. 2021 की शुरुआत में भारत ने 9294 मीट्रिक टन ऑक्सीजन (एक्सपोर्ट डेटा कॉमर्स डिपार्टमेंट के अनुसार) दुनिया के अलग अलग देशों को बेची गयी. हालाँकि भारत की ऑक्सीजन उत्पादन करने की क्षमता 7000 मीट्रिक टन है जिसमें से लगभग 3800 मीट्रिक टन मेडिकल क्षेत्र में खपत के लिए दी जाती है और बाकी ओद्योगिक क्षेत्र  में जाता है. एक मीट्रिक टन 1000 किलो वजन के बराबर होता है.
 
वर्तमान हालात को देखते हुए भारत सरकार द्वारा 50,000 मीट्रिक टन ऑक्सीजन को आयात करने का निर्णय लिया गया है. इसके अलावा ओद्योगिक क्षेत्र में उपयोग होने वाले ऑक्सीजन को अब मेडिकल क्षेत्र में लाया जा रहा है जिसे रेल मंत्रालय द्वारा ग्रीन कोरिडोर बना कर ऑक्सीजन एक्सप्रेस के द्वारा एक जगह से दुसरे जगह तक ले जाने का निर्णय किया गया है. ऐसे माहौल में केन्द्रीय मंत्री पीयूष गोयल का यह कहना है कि “थोडा ऑक्सीजन को कम खर्च करना चाहिए” शर्मनाक है. ऑक्सीजन की किल्लत और जनता की बदहाली के बीच केन्द्रीय मंत्रियों द्वारा ऑक्सीजन आपूर्ति को लेकर दिए गए बयान असंवेदनशीलता और गैरजिम्मेदारी का सबब है. 

कोरोना काल में अंतिम संस्कार बना कारोबार: 
कोरोना से हर ऱोज बड़ी संख्यां में लोगों की जान जा रही है. आलम यह हो चुका है कि अंतिम संस्कार भी अब कारोबार बन गया है. श्मशान और कब्रिस्तान में लाशों के अंतिम संस्कार के लिए बोलियाँ लगाई जा रही हैं. कई बड़े शहरों में अंतिम संस्कार और इसके सारे इंतजाम के लिए के लिए 30-40 हज़ार तक के पैकेज उपलब्ध कराए जा रहे हैं. आज आपदा में अवसर की भूख लाशों पर से होकर गुजर रही है. दिल्ली और चेन्नई में लाश जलाने वाली कम्पनियां हज़ारों रुपये में लाश जलाने का पैकेज दे रही हैं. कम्पनियां तो मुनाफा कमाने के लिए ही बनी होती हैं, लेकिन वे कितना और किस तरीके से कमाई करेंगें, यह आपके चुने गए शासक पर भी निर्भर करता है. 

सियासत में उलझी कोरोना महामारी:
देश में कोरोना महामारी की दूसरी लहर के चलते भयावह मंजर देखने को मिल रहा है. अकेले राजधानी दिल्ली के अन्दर 3 में से 1 व्यक्ति कोरोना संक्रमण से पीड़ित है और कई दुसरे राज्यों की स्थिति भी लगभग ऐसी ही है. राजनीतिक कुप्रबंधन और दूरदर्शिता के आभाव में आज कई शहरें लाशों में तब्दील हो चुकी है. लाशों को फुटपाथ पर जलाया जा रहा है. महामारी के इस दौर में इससे भी भयावह तस्वीर हमारे समाज में सामने आ रही है जो भविष्य में लम्बे समय तक जनता को कंगाल बनाने का रास्ता साफ़ करती है. कोरोना के कारण लोग भूख, ग़रीबी और बेरोजगारी की चपेट में हैं जो भविष्य में गंभीर परिणाम सामने ले कर आएँगे. ये सरकारी नीतियों व् कारगुजारियों से त्रस्त जनता है जो जीते जी मरने को मजबूर है. सरकार इस भयावह आपदा में भी अवसर तलाशने में लगी है. उनकी चिंता गरीबी और भुखमरी को दूर करने की नहीं है बल्कि सार्वजानिक क्षेत्रों के उधमों को अपने प्राइवेट दोस्तों के हवाले करने की है. केंद्र सरकार आपदा में देश की जनता के लिए कारगर उपाय ढूंढने का अवसर गवां चुकी है. यह सरकार की नीति और नियत दोनों की विफलता का सबूत है. 

पिछले एक साल में महामारी के दौरान यह स्पष्ट हो गया था कि भारत का मौजूदा स्वास्थ्य तंत्र इस विश्व व्यापी महामारी के हमले को झेल पाने में असमर्थ है. ग्लोबल हेल्थ सिक्योरिटी इंडेक्स 2019 के अनुसार गंभीर संक्रामक रोगों और महामारी से लड़ने की क्षमता के पैमाने पर भारत विश्व में 57 वें नंबर पर आता है. वर्तमान में देश की जनता की जिन्दगी को बचाने के लिए एक मजबूत स्वास्थ्य सेवा का आधार तैयार करना पड़ेगा जिसे पूरा करने के वर्तमान सरकार की मंशा पर कई सवाल खड़े किए जा चुके हैं. स्वास्थ्य सेवा कोई निरपेक्ष विचार नहीं है जिसे अकेले हल किया जा सके. जब स्वास्थ्य की बात की जाएगी तो उसके साथ मरीज के भूख का सवाल आर उसके मानवाधिकार का सवाल भी आएगा जो आपस में अंतर्संबंधित हैं. इनका यही आपसी सम्बन्ध कॉर्पोरेट के मुनाफ़े की भूख को चुनौती देता है. वह सरकार द्वारा एक जनहितकारी फैसले और नीति की मांग करता है लेकिन कॉर्पोरेट हितैषी वर्तमान सरकार से हम ऐसे जिम्मेदारीपूर्ण कार्य की उम्मीद फिलहाल नहीं कर सकते हैं जो सांसों की ज़रूरत पर सियासत करने तक से परहेज नहीं करते हैं.  

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