नफरत की बुनियाद पर उन्माद की राजनीति

Written by अरविंद शेष | Published on: June 9, 2016
 

​भाजपा के 'कांग्रेस-मुक्त भारत' के नारे का विस्तार इतनी जल्दी 'मुसलमान-मुक्त भारत' में हो जाएगा, इसकी उम्मीद नहीं थी। लेकिन जिस दौर में दादरी में गाय के मांस के हवाले से भीड़ के हाथों मोहम्मद अख़लाक की हत्या कर दिए जाने को सही ठहराने के आशय के बयान बाकायदा सांसद और मंत्री के हैसियत से संजीव बालियान या फिर सांसद योगी आदित्यनाथ जैसे लोग दे रहे हों तो अब पर हैरानी नहीं होनी चाहिए।

लेकिन क्या ऐसा पहली बार हुआ है, जब भाजपाई हिंदुत्व की रगों में दौड़ती नफरत की बुनियाद पर हिंदू राष्ट्र का हवामहल खड़ा करने का ख्वाब परोसा गया है? और शायद इसे भी एक शुद्ध भाजपाई अभ्यास के तौर पर मान लिया जाना चाहिए कि तीर जब अपना काम कर जाए, तो दिखावे का अफसोस जाहिर कर देने, उससे खुद के अलग रहने या फिर बिना किसी शर्म के पलटी मार देने में कोई हर्ज नहीं है।

भाजपा में, लेकिन कथित तौर पर लोकतंत्र में यकीन रखने वाले वैसे बहुत सारे लोगों को थोड़ी देर के लिए इस बात से राहत मिल जाती होगी कि पार्टी ऐसे बयानों की जिम्मेदारी नहीं लेती। लेकिन भोलेपन और मासूमियत की चाशनी में लिपटा भाजपा का यह ‘सच’ ज्यादा छिपा नहीं रह पाता। दरअसल, न तो योगी आदित्यनाथ या साध्वी प्राची इतने मासूम हैं और न भाजपा इतनी भोली कि इस तरह की ‘बाजियों’ के नफा-नुकसान का अंदाजा इन्हें न हो। इसलिए बयानों के असर को और ज्यादा तीखा बनाने के लिए सब मोर्चे पर खेल लिया जाता है।

नब्बे के दशक की शुरुआत में ही मंडल आयोग की सिफारिशों पर अमल के साथ पैदा हुए सामाजिक न्याय के नारे की भ्रूण हत्या के इरादे से निकली ‘रथयात्रा’ आखिरकार बाबरी मस्जिद विध्वंस की मंजिल तक पहुंची। और इस मंजिल तक पहुंचने के लिए लालकृष्ण आडवाणी ने जो राह तैयार की, साध्वी प्राची, साक्षी महाराज या योगी आदित्यनाथ जैसे लोग तो उस पर अपने तरीके से चलने वाले महज कुछ मुसाफिर हैं। दरअसल, तब से लेकर भाजपा ने लगातार भारतीय राजनीति में एक ऐसी जमीन तैयार की है, जिसमें ‘हीरो’ बनने के लिए सिर्फ एक तयशुदा फार्मूले पर अमल की जरूरत होती है। और प्रवीण तोगड़िया हों या फिर योगी आदित्यनाथ, प्रमोद मुतालिक या साध्वी प्राची, इन सबके लिए यह ज्यादा आसान रास्ता है आग लगाने वाले दो-चार बयान, उत्पात और मीडिया में कवरेज का इंतजाम- जिसके लिए किसी खास तैयारी की जरूरत नहीं पड़ती। प्रमोद मुतालिक को मंगलोर में पब पर हुए हमले से पहले कितने लोग जानते थे? या फिर कितने लोगों को यह पता था कि साध्वी प्राची या साक्षी महाराज जैसे लोग क्या हैं?

मगर भाजपा का दुख यह है कि भारतीय भूभाग के पिछले पांच-सात सौ सालों के इतिहास ने यहां ऐसा सामाजिक-राजनीतिक ढांचा खड़ा कर दिया है, जिसका बहुमत इस तरह के उन्माद को ‘इलाज’ के लायक ही मानता है। अगर ‘गुजरात प्रयोग’ जैसे छिटपुट उदाहरण दिए जाते हैं तो यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इसे आजादी के बाद देश के सत्ता संचालकों की नाकामी कहें या यथास्थितिवाद को बनाए रखने की महीन राजनीति कि सत्ता के ‘लोकतांत्रिक’ ढांचे के बावजूद हर मोर्चे पर लोकतंत्र को कुंठित करने की कोशिश हो रही है। यही वजह है कि न तो सत्ता अपने मूल स्वरूप में व्यवहार के स्तर पर लोकतांत्रिक हो सकी और न इसके सामाजिक नतीजे हासिल किए जा सके।

सवाल है कि इन स्थितियों का ज्यों का त्यों बने रहना आखिरकार किसके हित में था या है। समाज को जड़ताओं और विद्रूपों से मुक्त करने के लिए जमीनी स्तर पर कुछ करने की बात तो दूर, क्या कारण है कि पिछले साठ साल की ‘अपनी सत्ता’ के बावजूद हम यह संदेश तक प्रेषित करने में विफल रहे हैं कि हमारा मकसद एक प्रगतिशील मूल्यों के साथ जीने वाले समाज की रचना है? यह कैसे संभव हो सका कि भारत में विकास के पर्याय के रूप में स्थापित होने के बाद देश के कई राज्यों में आज कुछ गिरोह जैसे अभयारण्य में विचर रहे हैं? ऐसे उदाहरण भी सामने आ रहे हैं जो अफगानिस्तान या पाकिस्तान में तालिबान के प्रभाव वाले इलाकों का चेहरा बन चुके हैं।

दादरी में मोहम्मद अख़लाक की हत्या से लेकर झारखंड के लातेहर में गाय बचाने के नारे के साथ एक बच्चे और एक युवक को मार कर पेड़ पर लटका देने की घटना कोई इक्की-दुक्की नहीं रही। अब इसका विस्तार आए दिन देखने को मिल रहा है जब कहीं से खबर आती है कि जानवरों को ले जाते ट्रक पर सवार लोगों को सार्वजनिक रूप से तालिबानी तरीके से मारा-पीटा गया या मार डाला गया। यह क्रम है, जो मंगलोर के एक पब में घुस कर युवतियों को मारने-पीटने, गिरजाघरों पर हमले वगैरह के रूप में सामने आते रहे हैं।

यह माहौल बनाने की कोशिश हो रही है कि इस देश में गैर-हिंदुओं के अलावा किसी की जगह नहीं होगी, 'मुसलमान-मुक्त भारत' उसी का नया नारा पैदा हुआ है। लेकिन क्या-क्या त्यागेंगे आप? पहले मुसलमान या ईसाई, तो फिर उसके बाद क्या फिर दलित, उसके बाद पिछड़े वर्ग का कोई दोस्त? धार्मिक और सामाजिक वर्णक्रम के विभाजन पर आधारित हिंदुत्व के रास्ते की मंजिल क्या कोई और है? और आखिरी तौर पर इसी का पैरोकार होने का बार-बार सबूत देने वाला आरएसएस और उससे गर्भनाल से जुड़ी भाजपा को रास्ता भी वही चाहिए जो उसे इस मंजिल तक पहंचाए। उसे बहुत अच्छे से मालूम है कि ब्राह्मणवादी हिंदुत्व ने इस समाज के असंख्य, लेकिन हर खंड को उसकी जड़ताओं से इस कदर बांध रखा है, जहां यह सोचने की गुंजाइश नहीं है कि साध्वी प्राची या योगी आदित्यनाथ ने क्या और क्यों कहा? जहां यह गुंजाइश बची होती है, वहां से यह सवाल उठता है कि इस तरह की घिनौनी भाषा का इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति या तो जाहिल है या शातिर। मगर जाहिल की जिद और शातिराना जिद में बड़ा फर्क होता है। और इस नाते साध्वी प्राची जैसे लोग जाहिल नहीं हैं, एक योजना का हिस्सा लगते हैं।

दरअसल, इस्लामी चेहरा लिए तालिबान से ऊपरी तौर पर नफरत करने वाली भाजपा, विहिप, बजरंग दल या श्रीराम सेना जैसी संघी जमातें उसी आबोहवा के निर्माण में लगी हैं, जो तालिबान या आईएसआईएस का मकसद है। फर्क सिर्फ काले और भगवे चोले का है।

यह दुनिया के लिए एक बेहतरीन लतीफा हो सकता है कि जिस तरह टीवी, मोबाइल, मोटरगाड़ियों, एके-47 या टैंकों-मोर्टारों या दूसरे अत्याधुनिक हथियारों जैसे विज्ञान के रहम की बदौलत तालिबान या आईएसआईएस सभ्यता की इच्छा रखने वाले एक समाज को एक असभ्य कुनबे में तब्दील करने की कोशिश में है, ठीक उसी तरह हिंदुत्व के खौफ से भी शायद यही तस्वीर बने। तो क्या हमारा आगे बढ़ना अब पूरा हो चुका है और क्या हम लौट रहे हैं?

भारतीय राजनीति की शतरंजी बिसात पर संघ के मुकाबले का माहिर खिलाड़ी-समूह कोई नहीं है। वह अपनी हर चाल के बरक्स सामने वाले को भी वही चाल चलने को मजबूर करता है जिसकी बाजी संघी झोले में जाए। यह महज संयोग नहीं है कि धर्मनिरपेक्ष और तमाम वैज्ञानिक प्रगतिशील मूल्यों के कई प्रवक्ताओं में कुछ अचानक प्रतिगामी धारा का प्रतीक बने दिखते हैं। क्या यह सचमुच की लाचारी है? क्या वास्तव में हमारे देश का कानून और संविधान इस हद तक मजबूर है कि साध्वी प्राची जैसे लोग वह करने का हक पा चुके हैं जो वे कर रहे हैं?

('चार्वाक' ब्लॉग से)

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