‘नफरत के गुरूजी’

Written by सुभाष गाताडे | Published on: February 13, 2017
गोलवलकर के महिमामंडन से उठते प्रश्न


गोलवलकर

 संघ के सुप्रीमो जनाब मोहन भागवत की सूबा मध्य प्रदेश की बैतुल की यात्रा पिछले दिनों सूर्खियों में रही, जहां वह हिन्दू सम्मेलन को संबोधित करने पहुंचे थे। सूर्खियों की असली वजह रही बैतुल जेल की उनकी भेंट जहां वह उस बैरक में विशेष तौर पर गए, जहां संघ के सुप्रीमो गोलवलकर कुछ माह तक बन्द रहे।  इस यात्रा की चन्द तस्वीरें भी शाया हुई हैं। इसमें वह दीवार पर टंगी गोलवलकर की तस्वीर का अभिवादन करते दिखे हैं। फोटो यह भी उजागर करता है कि भागवत के अगल बगल जेल के अधिकारी बैठै हैं। 
 
विपक्षी पार्टियों ने - खासकर कांग्रेस ने - इस बात पर भी सवाल उठाया था कि आखिर किस हैसियत से उन्हें जेल के अन्दर जाने दिया गया। उनके मुताबिक यह उस गोलवलकर को महिमामंडित करने का प्रयास  है, जिसे ‘एक प्रतिबंधित संगठन के सदस्य होने के नाते गिरफ्तार किया गया था। यह जेल मैनुअल का उल्लंघन भी है। केवल कैदी के ही परिजन एवं दोस्त ही जेल परिसर में जा सकते हैं और वह भी वहां जाने से पहले जेल प्रबंधन की अनुमति लेने जरूरी है।’
 
गौरतलब है कि संघ के तत्कालीन सुप्रीमो गोलवलकर की यह पहली तथा अंतिम गिरफतारी आज़ाद हिन्दोस्तां में गांधी हत्या के बाद हुई थी, जब संघ पर पाबन्दी लगायी गयी थी। प्रश्न उठता है कि आखिर गोलवलकर के इस कारावास प्रवास को महिमामंडित करके जनाब भागवत ने क्या संदेश देना चाहा। कहीं ऐसा तो नहीं कि गांधी हत्या - जो आज़ाद भारत की पहली आतंकी कारवाई थीं, जिसमें बड़े बड़े नेता तथा फायनान्शियर शामिल थे - की विकरालता का कम करने की कोशिशों का यह सचेत-अचेत हिस्सा हो। यह तो सर्वविदित है कि 2014 में जबसे भाजपा की हुकूमत बनी है तबसे गांधी के हत्यारे आतंकी गोडसे के महिमामंडन की कोशिशें कुछ ज्यादा ही परवान चढ़ी हैं। हिन्दु महासभा के लोगों द्वारा गोडसे के मंदिर बनाने से लेकर समय समय पर दिए जानेवाले विवादास्पद वक्तव्य गोया काफी न हों, ऐसे उदाहरण भी सामने आए हैं जब सत्ताधारी पार्टी के अग्रणी नेताओं तक ने गोडसे की तारीफ में कसीदे पढ़े हैं। 
 
याद रहे कि गांधी हत्या के महज चार दिन बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबन्दी लगानेवाला आदेश जारी हुआ था - जब वल्लभभाई पटेल गृहमंत्री थे - जिसमें लिखा गया था:
 
..संघ के सदस्यों की तरफ से अवांछित यहां तक कि खतरनाक गतिविधियों को अंजाम दिया गया है। यह देखा गया है कि देश के तमाम हिस्सों में संघ के सदस्य हिंसक कार्रवाइयों में - जिनमें आगजनी, डकैती, और हत्याएं शामिल हैं - मुब्तिला रहे हैं और वे अवैध ढंग से हथियार एवं विस्फोटक भी जमा करते रहे हैं। वे लोगों में पर्चे बांटते देखे गए हैं, और लोगों को यह अपील करते देखे गए हैं कि वह आतंकी पद्धतियों का सहारा लें, हथियार इक्ट्ठा करें, सरकार के खिलाफ असन्तोष पैदा करें ..
 
27 फरवरी 1948 को प्रधानमंत्राी जवाहरलाल नेहरू को लिखे अपने ख़त में - जबकि महात्मा गांधी की नथुराम गोडसे एवं उसके हिन्दुत्ववादी आतंकी गिरोह के हाथों हुई हत्या को तीन सप्ताह हो गए थे - पटेल लिखते हैं:
 
सावरकर के अगुआईवाली हिन्दु महासभा के अतिवादी हिस्से ने ही हत्या के इस षडयंत्रा को अंजाम दिया है... जाहिर है उनकी हत्या का स्वागत संघ और हिन्दु महासभा के लोगों ने किया जो उनके चिन्तन एवं उनकी नीतियों की मुखालिफत करते थे।’’ 
 
वही पटेल 18 जुलाई 1948 को हिन्दु महासभा के नेता एवं बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सहायता एवं समर्थन से भारतीय जनसंघ की स्थापना करनेवाले श्यामाप्रसाद मुखर्जी को लिखते हैं: 
 
‘..हमारी रिपोर्टें इस बात को पुष्ट करती हैं कि इन दो संगठनों की गतिविधियों के चलते खासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चलते, मुल्क में एक ऐसा वातावरण बना जिसमें ऐसी त्रासदी (गांधीजी की हत्या) मुमकिन हो सकी। मेरे मन में इस बात के प्रति तनिक सन्देह नहीं कि इस षडयंत्रा में हिन्दु महासभा का अतिवादी हिस्सा शामिल था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियां सरकार एवं राज्य के अस्तित्व के लिए खतरा हैं। हमारे रिपोर्ट इस बात को पुष्ट करते हैं कि पाबन्दी के बावजूद उनमें कमी नहीं आयी है। दरअसल जैसे जैसे समय बीतता जा रहा है संघ के कार्यकर्ता अधिक दुस्साहसी हो रहे हैं और अधिकाधिक तौर पर तोडफोड/विद्रोही कार्रवाइयों में लगे हैं।'
 
ध्यान रहे कि संघ की गतिविधियों को लेकर यह सारे वक्तव्य, बयान उन्हीं सरदार पटेल के दिए गए हैं जिन्हें संघ तथा अन्य आनुषंगिक संगठन अपने अधिक करीब मानते हैं।
 
अगर हम गांधी हत्या के विशिष्ट प्रसंग से आगे बढ़ें और गोलवलकर के समग्र आकलन का प्रयास करें तो कई ऐसी चीजों से परिचित होते हैं, जो उनके व्यक्तित्व की विवादास्पदकता को और बढ़ाती हैं। तैंतीस सालों तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रहनुमाई किये माधव सदाशिव गोलवलकर उर्फ गोलवलकर गुरूजी, जिन्होंने 1940 में संघ के संस्थापक-सदस्य डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के इन्तकाल के बाद सरसंघचालक का पदभार संभाला, उन्हें सावरकर-हेडगेवार आदि की श्रेणी में हिन्दुत्व का अहम सिद्धान्तकार और संगठनकर्ता माना जाता है।
 
स्थूल रूप में कहा जा सकता है कि हिन्दु राष्ट्र की संकल्पना के लिए प्रतिबद्ध गोलवलकर के विचारों एवम कार्यों के तीन ऐसे अहम पहलू हैं जिन पर बात जरूरी है। पहले, ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ चले संघर्ष के प्रति हेडगेवार-गोलवलकर द्वारा अपनाया गया रूख एक ऐसा अहम पहलू है जिसका खामियाजा संघ परिवार को आज भी भुगतना पड़ता है। दूसरे, गोलवलकर के सामाजिक विचार जिनमें वे दलित-स्त्रिायों की स्वाधिकार की मांगों के मुखालिफ दिखते हैं एक अहम मसला है। तीसरे, तत्कालीन दौर में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के हिटलर-मुसोलिनी के ‘सामाजिक प्रयोगों’ की गोलवलकर द्वारा की गयी हिमायत या आजादी के बाद कम्युनिजम विरोध के नाम पर अमेरिका एवम उसकी जालिमाना नीतियों का समर्थन जिसमें विएतनाम पर हमले जैसी बात भी शामिल रही है।
 
उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष से संघ परिवार का आधिकारिक तौर पर दूर रहना एक ऐसी स्थापित चीज है कि उसके लिए विशेष प्रमाणों की जरूरत भी नहीं है। गौरतलब है कि संघ ने अपनी तरफ से स्वतंत्रता आन्दोलन में शामिल होने का एकभी कार्यक्रम कभी हाथ में नहीं लिया था। संघ के साहित्य में उसके संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार को स्वतंत्रता आन्दोलन के एक अग्रणी नेता के रूप में पेश किया जाता है गोया उन्होंने उस समय के विभिन्न आन्दोलनों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया हो। लेकिन इसमें जानने योग्य है कि उन्होंने इस हलचल भरे कालखण्ड में कांग्रेस के नेतृत्व में चले आन्दोलन में कार्यकर्ता के तौर पर हिस्सा लिया था और जेल गये थे। और वह भी इस मकसद से कि इसके जरिये लोगों को अपनी राजनीति की ओर आकर्षित किया जा सके। 
 
बर्तानवी साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के प्रति संघ की उदासीनता/तटस्थता की चरम सीमा 1942 के 'भारत छोड़ो' आन्दोलन के समय खुल कर सामने आयी थी जिन दिनों गोलवलकर सरसंघचालक पद पर विराजमान थे। तब संघ न केवल इस उग्र जनान्दोलन में शामिल नहीं हुआ बल्कि उसने इस आन्दोलन को ही निरर्थक बताया। अंग्रेज सरकार के आदेश पर संघ ने पहले से चले आ रहे सैनिक विभाग भी बन्द किये थे लेकिन इसके पीछे का तर्क तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकर गुरूजी द्वारा संघ के वरिष्ठ संगठनकर्ताओं को 29 अप्रैल 43 को भेजे परिपत्रा/सर्क्युलर में मिलता हैः 
 
‘‘...हमने सैनिक कवायद तथा युनिफॉर्म के बारे में सरकार के आदेश का पालन करते हुए यह फैसला लिया है। .. ताकि कानून का पालन करने वाली हर संस्था की तरह हमभी अपने काम को कानून के दायरे में जारी रख सकें।... यह उम्मीद करते हुए कि परिस्थितियां जल्दी बदल जाएंगी हमने प्रशिक्षण का एक हिस्सा ही रोक दिया था लेकिन अब हम परिस्थिति में तब्दीली का इन्तज़ार किये बगैर इस काम को बिल्कुल समाप्त कर रहे हैं।‘‘ ( The Brotherhood in Saffron: The RSS and Hindu Revivalism- Walter K. Andersen and Shridhar K Damle- Vistaar Publications, New Delhi 1987) 
 
यह अकारण ही नहीं था कि संघ की गतिविधि पर 1943 में तैयार की गयी आधिकारिक रपट में गृहमंत्री ने निष्कर्ष निकाला कि यह कहना सम्भव नहीं है कि कानून और व्यवस्था के लिए संघ से कोई फौरी खतरा है। .. 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन  के दौरान हुई हिंसा के सन्दर्भ में बम्बई के गृहविभाग की टिप्पणी थी कि,
 
‘..संघ ने खुद को कानून के दायरे में रखा है और अगस्त 42 में चले उत्पातों में शामिल होने से उसने खुद को बचाया है।..‘‘( सन्दर्भः वही)
 
संघ सुप्रीमो के तौर पर गोलवलकर के कारकीर्द का दूसरा अहम मसला दलितों एवम स्त्रियों के प्रति तत्कालीन नेतृत्व का पुरातनपंथी नज़रिया रहा है जिस पर ब्राहमणवादी पुनरूत्थान का प्रभाव साफ दिखता है। यह अकारण नहीं था कि आज़ादी के वक्त जब नया संविधान बनाया जा रहा था, तब संघ ने उसका जोरदार विरोध किया था और उसके स्थान पर मनुस्मृति को अपनाने की हिमायत की थी। इस विरोध की बानगी ही यहां दी जा सकती है। अपने मुखपत्र  आर्गेनायजर, (30 नवम्बर, 1949, पृष्ठ 3) में संघ की ओर से लिखा गया था कि,
 
 ‘हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गयी थी। आज तक इस विधि की जो ‘मनुस्मृति’ में उल्लेखित है, विश्व भर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम-पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है।’’ 
 
70 के दशक के पूर्वार्द्ध तक संघ परिवार अपने उस पुराने नक्शे पर ही चल रहा था जिसके तहत दलितों-पिछड़ों की संघ से दूरी बनी हुई थी, यहां तक कि सूबा महाराष्ट्र में जहां उसका जनम हुआ वहां पर वह चित्पावन ब्राहमणों का संगठन समझा जाता था। लेकिन इसके बाद संघ ने अपनी रणनीति में परिवर्तन कर इन तबकों को साथ जोड़ने की प्रक्रिया शुरू की। इस सन्दर्भ में देखें तो संघ परिवार के अन्दर ही हिन्दू एकता कायम करने की समझदारी में गहरा परिवर्तन आया है। हेडगेवार-गोलवलकर के दिनों की तुलना में यह एक गुणात्मक परिवर्तन है जिसमें वर्णाश्रम की चौखट को अक्षुण्ण रखते हुए, ब्राहमणवाद के वर्चस्व को पूरी तरह बनाये रखते हुए ही ‘निम्न जातियों’ को उसमें जगह दी गयी है। 
 
गोलवलकर की असलियत को संघ का नेतृत्व किस तरह छिपाना चाहता है इसका लिखित सबूत  1939 में प्रकाशित वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड शीर्षक किताब के सन्दर्भ में साफ प्रगट होता है। जानने योग्य है कि 77 पेज की उपरोक्त किताब गोलवलकर ने तब लिखी थी जब हेडगेवार ने उन्हें सरकार्यवाह के तौर पर नियुक्त किया था। ‘गैरों’ के बारे में यह किताब इतना खुल कर बात करती है या जितना प्रगट रूप में हिटलर द्वारा यहूदियों  के नस्लीय शुद्धिकरण के सिलसिले को अपने यहां भी दोहराने की बात करती है कि संघ तथा उसके अनुयायियों ने खुलेआम इस बात को कहना शुरू किया है कि वह किताब गोलवलकर की अपनी रचना नहीं है बल्कि बाबाराव सावरकर की किन्हीं किताब ‘राष्ट्र मीमांसा’ का गोलवलकर द्वारा किया गया अनुवाद है। दिलचस्प बात है कि इस मामले में उपलब्ध सारे तथ्य इसी बात की ओर इशारा करते हैं कि इस किताब के असली लेखक गोलवलकर ही हैं। खुद गोलवलकर 22 मार्च 1939 को इस किताब के लिये लिखी गयी अपनी प्रस्तावना में  लिखते हैं कि प्रस्तुत किताब लिखने में  राष्ट्र मीमांसा ‘मेरे लिये ऊर्जा और सहायता का मुख्य स्त्रोत रहा है।’ मूल किताब के शीर्षक में  लेखक के बारे में  निम्नलिखित विवरण दिया गया है: ‘‘माधव सदाशिव गोलवलकर, एम. एस्सी. एल.एल.बी. ( कुछ समय तक प्रोफेसर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)।’’ इसके अलावा, किताब की भूमिका में, गोलवलकर ने निम्नलिखित शब्दों में अपनी लेखकीय स्थिति को स्वीकारा था:
 
 ‘‘यह मेरे लिये व्यक्तिगत सन्तोष की बात है कि मेरे इस पहले प्रयास - एक ऐसा लेखक जो इस छेत्र में अनजाना है - की प्रस्तावना लोकनायक एम. एस. अणे ने लिख कर मुझे सम्मानित किया है।’’ (‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्डगोलवलकर की भूमिका से, पेज 3 )
 
अपनी दूसरी किताब ‘विचार सुमन’ में गोलवलकर एक कदम और आगे बढ़ते हैं जिसमें वह भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए तीन आंतरिक खतरों की बात करते हैं, जिसमें वह पहले नम्बर पर मुसलमानों को, दूसरे नम्बर पर ईसाइयों को तथा तीसरे नम्बर पर कम्युनिस्टों को रखते हैं।
 
निश्चित ही गोलवलकर के चिन्तन की यही वह तंगनज़री और उसमें छिपा मनुष्यद्वेष है कि रामचंद्र गुहा जैसे लिबरल विद्वान भी उन्हें ‘नफरत का गुरू’ कहने में संकोच नहीं करते। 
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