हिंदुत्व और सेक्युलर राजनीती के बीच मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कहां है?

Written by विद्या भूषण रावत | Published on: April 22, 2019
अभी कुछ दिनों पहले कोलकाता से प्रकाशित अख़बार टेलीग्राफ में अलीगढ से इमरान सिद्दीकी की एक रिपोर्ट कहती है कि कैसे मुस्लिम मतदाता इस समय संघ के लगातार फैलाये जा रहे जहर और घृणा के बीच रह रहे हैं. एक व्यक्ति से जब इमरान ने यह पुछा के अच्छे दिन कब आयेंगे तो उनका कहना था के हमारे लिए तो ‘जीना’ ही अच्छे दिन हैं.

अभी मैं पूर्वांचल में था. पिछले तीन महीने में मैंने कम से कम तीन बार इधर की यात्रा की और ट्रेन से लेकर चौराहों तक बहस को देखा और सुना. ट्रेन में बहस को नियंत्रण करने वाले अधिकांश संघी खबरों के विशेषज्ञ होते हैं और ये दो तीन बातों में लीड लेते हैं. पहले पाकिस्तान और फिर मुसलमान. 

ये बात मैं कह सकता हूँ कि हिंदुत्व के घृणित एजेंडे ने भारत में एक विभाजन रेखा खींच दी है. इस चुनाव में भी मुस्लिम विरोध का खुलापन जो भाजपा कर रही है और उनके असुरक्षा के नाम पर सेक्युलर कहलाये जानी वाली पार्टियों ने जो उसका दोहन किया है उसको समझा जाना जरुरी है. शर्मनाक है के संविधान का नाम और सेकुलरिज्म का राग अलापने वाली पार्टिया भी संघ के अजेंडे के विरुद्ध एक वैचारिक फाइट नहीं दे पा रही हैं और उनके अत्यधिक महत्वकांक्षी नेता मुस्लिम असुरक्षा के लाभ लेकर सेकुलरिज्म के नाम पर संसद में जाना चाहते हैं. सेकुलरिज्म का मतलब ये नहीं कि मुस्लिम या अन्य सम्प्रदायों के राजनैतिक प्रतिनिधित्व को ख़त्म कर दिया जाए. 

सेकुलरिज्म की इस पूरी डिबेट के सामाजिक से लेकर राजनैतिक हीरो द्विज विशेषज्ञ और नेता हैं. हिंदुत्व की राजनीती ने अभी सामाजिक न्याय की ताकतों का एजेंडा भी खुद ही सेट किया है और उनके अति महत्वाकांक्षी नेताओं की बाछें खिली हैं क्योंकि कई स्थानों पर जहां मुस्लिम प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए था वहां गैर मुस्लिम उम्मीदवारों को इसलिए खड़ा किया जा रहा है कि ध्रुवीकरण न हो. 

मुस्लिम प्रश्नों पर न बोलकर बार बार ये बताया जा रहा है कि ध्रुवीकरण भाजपा को लाभ पहुंचाएगा और ये हकीकत भी है लेकिन अभी कितने वर्ष तक ये सवाल खड़ा कर मुस्लिम राजनैतिक नेतृत्व को आप समाप्त करेंगे? क्या ये प्रश्न हमें अपने लोकतंत्र की कमजोर कड़ी नहीं नज़र आते और जो लोग नेहरु, आंबेडकर, लोहिया आदि का नाम लेते हैं वो इन प्रश्नों को छुपा देना चाहते हैं.

अभी कुछ दिनों पहले कुशीनगर, देवरिया, गोरखपुर में था और तरह तरह से लोगों की नब्ज टटोल रहा था. सवर्ण जो संघी है, वे नैरेटिव बनाने में माहिर है, चाहे वे ग्राम पंचायत में हो या रेलवे स्टेशन अथवा बसों में. बाकि लोग उन्हें ज्यादा चुनौती भी नहीं देते. इसका एक कारण ये भी है कि अभी भी रिजर्वेशन में सवर्णों का दबदबा है. लेकिन पिछड़ी जातियों में एक नैरेटिव प्रचारित कर दिया गया है वो ये कि मोदी, अमित शाह, विजय रुपानी सभी पिछड़े हैं.

पूर्वांचल में जब भी जाता हूँ राजनैतिक साथी मिलते हैं. एक कुशवाहा जी जो भाजपा के सदस्य हैं लेकिन पिछड़ी जातियों के सवाल पर एक हैं, मुझसे मिलने आये. हमारी बातचीत चलने लगी तो उन्होंने बताया कि भाजपा में मोदी और शाह के आने के बाद ब्राह्मण हाशिये पर चले गए हैं और पिछडों को बहुत सम्मान मिलने लगा है. मैंने उनसे कहा कि भाजपा एक शुद्ध तौर पर ब्राह्मण बनिया पार्टी है जिसमें अन्य जातियों के लोगो का इस्तेमाल वैसे ही हुआ है जैसे वर्णव्यस्था की इजाजत है. उन्होंने कहा नहीं, मोदी शाह ने ब्राह्मणों को हासिये पर लगा दिया है जिससे पिछड़ी जातियों के लोग आगे आ रहे हैं जैसे गुजरात के मुख्य मंत्री विजय रुपानी, उत्तर प्रदेश में उपमुख्यमंत्री केशव मौर्या, स्वामी प्रसाद मौर्या आदि. फिर वह आगे बोले कि मोदी और अमित शाह स्वयं ही पिछडी जाति के हैं इसलिए वे पिछडों के बारे में अधिक चिंतित हैं और किसानों को बहुत लाभ दे रहे हैं.

मैंने कहा : मोदी, शाह और रुपानी पिछड़े नहीं हैं. लेकिन एक क्षण के लिए मै आपकी बात मान भी लू्ं कि वे पिछड़ी जाति से आते हैं तो कृपया मुझे उनके द्वारा पिछड़ी जातियों के लिए पांच महत्वपूर्ण कार्य बताईये.

वे बताने लगे कि कैसे मोदी ने किसानों का ख्याल रखा और उन्हें अब मदद दे रहे हैं. 

तो किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?
वो तो पहले भी कर रहे थे और अब तो बहुत कम हो गया है. ये मोदी जी के कारण है.

पिछडों के लिए आरक्षण की व्यस्था पर मोदी ने कुछ नहीं किया और सवर्णों को १० प्रतिशत आरक्षण दे दिया.
नहीं ये झूठ है. १० % की व्यवस्था सब के लिए है.
क्या आपको पता है कि विश्विद्यालयों में दलित पिछड़े वर्ग के छात्र और अध्यापक क्यों परेशान हैं.
क्या आप बता सकते हैं कि भारत की न्याय पालिका में कितने दलित और पिछड़े हैं. 
क्या आप बताएँगे कि अभी नियुक्त लोकपाल कार्यालय में कितने पिछड़े सदस्य बने हैं.
क्या आप बताएँगे कि प्रधानमंत्री के कार्यालय में कितने पिछड़े हैं. क्या आप जानते है कि वहां ब्राह्मणों का ही क्यों वर्चस्व है?
क्या आप बताएँगे कि केंद्र के सभी मलाई-वाले मंत्रालयों में कौन काबिज है. वित्त, रक्षा, गृह, सुचना प्रसारण, मानव संशाधन, पर्यावरण और वन, उद्योग आदि में अधिकांश मंत्री बिना चुनाव जीते मंत्री बने हैं? उसमे कितने पिछड़े हैं? क्या पिछड़े इन पदों के लायक नहीं हैं?

मेरी बात बड़ी हो गयी. कुशवाहा जी बोले मोदी जी ने पिछडों का सम्मान किया है और उनके विरोधी बस गलत कहते हैं. आज देश आगे बढ़ रहा है, दुनिया में हमारा नाम है, विज्ञान में तरक्की कर लिया है. भारत को आज सभी पूछ रहे हैं. पाकिस्तान की हालत ख़राब है.
अच्छा ये बताये कि क्या आंबेडकर ने 370 का विरोध किया.

मैंने कहा हो सकता हो किया है लेकिन ये उनकी व्यक्तिगत राय है लेकिन अब 370 संविधान का हिस्सा है और कश्मीर के साथ भारत के जुड़ाव का एक मजबूत चिन्ह. जहां तक राज्यों के विशेष दर्जे की बात है, आप अरुणाचल, नागालैंड हिमाचल, मणिपुर, उत्तराखंड आदि राज्यों में भी जमीने नहीं खरीद सकते. इन राज्यों में भी विशेष दर्जे हैं. हकीकत तो ये है कि अरुणाचल और नागालैंड जाने के लिए भी आपको परमिट की जरुरत है जो एक प्रकार का देशी वीसा ही है लेकिन कोई उसके विरुद्ध नहीं कहता क्योंकि उसमे मुस्लिम वाला एलिमेंट नहीं है.

देविरया और कुशीनगर में भाजपा उम्मीदवारों की घोषणा के बाद, कुशवाहा जी थोडा सहमे थे क्योंकि दोनों ही स्थानों पर भाजपा ने ब्राह्मण उम्मीदवारों को टिकट दिया है. अब हमारा वार्तालाप देखिये.

ये पडरौना में कौन जीत रहे हैं. मैंने सुना सपा ने आर पी एन सिंह के खिलाफ हल्का कैंडिडेट दिया है और भाजपा के कोई दुबे जी हैं.
वहां सपा जीत रही है.
आप किसका समर्थन कर रहे हैं?

सपा का क्योंकि वहा कुशवाहा जी का बहुत काम है. वह बहुत मज़बूत उम्मीदवार हैं.
मैंने पूछा देवरिया में क्या स्थिति है.
देखिये भाजपा ने राम प्रसाद त्रिपाठी को टिकेट देकर अपनी फजीहत करा दी है.
क्यों ?
ये वोही त्रिपाठी है जिनके बेटे बस्ती से सांसद थे और उसने अपने विधायक को जूता मारा था. उनका टिकेट काटकर बाप को देविरया से टिकट दे दिया.

अच्छा. लेकिन गठबंधन का उम्मीदवार भी तो कोई बनिया है, विनोद जायसवाल.
नहीं, वह ठीक है. राजनैतिक परिवार से है. 
क्यों कांग्रेस के नियाज़ हसन क्या ठीक नहीं.
दरअसल, वो तो सबसे अच्छे हैं. उन्होंने तो बहुत काम किया है लेकिन मुसलमान है न, हम लोग वोट नहीं कर पायेंगे. 
क्या दो सवर्णों की लड़ाई में नियाज़ नहीं जीत पायेंगे.
नहीं, सपा बसपा का अपना वोट बैंक है जो जायसवाल को जाएगा और मुसलमान भी उधर ही जायेगा, कुशवाहा जी बोले.
अच्छा.. आप तो भाजपा के हैं, वोट किसको देंगे,
दोनों जगह गठबंधन को. 

दरअसल वोट एक जगह अपनी बिरादरी को देंगे और दूसरी जगह उसे जो मुसलमान प्रत्याशी को हरा सके उसे देंगे.

इसी देवरिया की पथरदेवा सीट पर पिछले विधान सभा के चुनाव में समाजवादी पार्टी ने शाकिर अली को टिकट दिया जिनके बारे में उनके विरोधी भी कहते थे कि उन्होंने अच्छा काम किया लेकिन खुद समाजवादी पार्टी के लोगों ने उन्हें वोट नहीं दिया और नतीजा ये निकला कि भाजपा एक ‘नाम बड़ा दर्शन छोटे’ वाले भूमिहार बाबा चुनाव जीत गए.

एक युवा निषाद भाई हमें बताने लगे कि कैसे मोदी जी ने पाकिस्तान को सबक सिखा दिया. आज भारत का दुनिया भर में नाम को गया है. दुनिया के देश मोदी जी का नाम लेते हैं.

मैंने उन्हें कहा, भाई, तुम्हारा जन्म कब हुआ? क्या तुम्हें लगता है कि भारत 2014 में आज़ाद हुआ? लेकिन उनका क्या करें जिनका पूरा ब्रहम ज्ञान दैनिक जागरण अख़बार, जी न्यूज़  या आजतक और गीता प्रेस गोरखपुर की पुस्तकों के साथ बड़ा हुआ हो.

अभी लोग रंग के उत्सव में फाजिल नगर में एक कार्यक्रम में एक बुजुर्ग सामने बैठे थे. हम लोग चर्चा कर रहे थे. बात देशभक्ति पर थी और ये कि 20 करोड़ मुसलमानों को आरएसएस कहां भेजेगा. मैंने कहा कि ये जुमले चलने वाले नहीं लेकिन ये केवल और केवल मुसलमानों को इतना जलील करने के लिए बनाए जा रहे हैं ताकि स्वतंत्र राजनितिक नेतृत्व की उनकी इच्छा ही ख़त्म हो जाए.

मास्टरजी हमारी बात सुन रहे थे. अचानक से उन्होंने हमारी बहस में प्रवेश किया. बताया कि मोदी जी और संघ ने मुसलमानों को देश से बाहर भेजने के लिए कभी नहीं कहा. मोदी जी तो केवल इतना चाहते हैं कि मुसलमान देश की मुख्यधारा में रहें और देश का सोचें.

मैंने कहा कैसे ?
बोले, जैसे क्रिकेट मैच होते हैं तो मुसलमान पाकिस्तान की जीत पर ताली बजाते हैं. अभी बालकोत हुआ तो मुसलमान खुश नहीं था.
मुझे गुस्सा आया. मैंने कहा मास्टर जी, आपका ये जुमला बहुत पुराना हो गया है, अब तो कुछ नया बोलिए. पाकिस्तान की जीत पर तालिया बजाने का संघी राग बहुत पुराना है, अब तो बातें वन्दे मातरम, भारत माता की जय, जय श्री राम आदि पर पहुँच गयी है.

मैंने उन्हें एक कहानी सुना दी. 1971 में भारत की क्रिकेट टीम जब अपने वेस्ट इंडीज के दौरे पर गयी थी तो सुनील गावस्कर का जादू वहां सर चढ़ कर बोलता था और उनके लगाए शतकों पर लोग नाचते. पोर्ट ऑफ़ स्पेन में भारत ने वेस्ट इंडीज को मैच भी हरा दिया तो तब के कप्तान क्लाइव लोयड ने कहा था कि भारत के साथ मैच खेलने में उन्हें ऐसा लग रहा था मानो भारत में मैच खेल रहे हैं और भीड़ का पूरा समर्थन भारत को था. जब कोई भी भारतीय मूल का खिलाड़ी किसी विदेशी टीम का सदस्य बनता है तो हम क्यों खुश होते हैं. जब कोई भारतीय मूल, यानि हिन्दू, किसी देश का प्रधानमंत्री या वहां की संसद का सदस्य बनता है तो हम क्यों खुश होते हैं. वो सभी तो अपने देशों के भक्त हैं तो उनकी सफलता पर हम क्यों ख़ुशी मनाएं.

मास्टर जी बता रहे थे कि वह अति-पिछड़ा वर्ग से आते हैं और अब तो जातिवाद ख़त्म सा हो गया है. उन्होंने संघ की बहुत तारीफ की और बताया कि आरएसएस की शाखाओं में दलित आदिवासी भी आते हैं. संघ के एकलव्य विद्यालय भी चल रहे हैं. वह बार-बार यही बात कर रहे थे कि संघ जाति उन्मूलन के कार्य भी कर रहा है और मुसलमानों को भी देश के लिए अपना ‘योगदान’ करना चाहिए..

हमारे मित्र भाई रामजी यादव साथ ही थे और उन्होंने तो मास्टर जी को सीधे चुनौती देकर बोला के मास्टर जी आप ये बतायें कि आपका देश के प्रति क्या योगदान है. मुसलमानों के योगदान से पहले संघी अपना योगदान बतायें. लेकिन ऐसे ही नैरेटिव बनाए जा रहे हैं और लोग सुन रहे हैं. मुशहर बस्ती का मुशहर भी जिसका मुसलमानों से दूर दूर तक वास्ता नहीं और जो ब्राह्मण, ठाकुर, भूमिहार, यादवों, कुशवाहों के द्वारा प्रताड़ित होने के वावजूद भी मुसलमानों के प्रश्न पर कट्टर हिन्दू जैसे व्यवहार करना शुरू करता है. ये थोडा जटिल प्रश्न है लेकिन इन सब पर हमारी ख़ामोशी खतरनाक है.

जहां हम दलित पिछडों के साथ आने से खुश हैं वहीं बहुत सी जातियों के अन्दर फेक नैरेटिव के साथ जहर घोला गया है. इसलिए जो दलित और पिछड़ी जाति के संघी हैं वे यही कार्य कर रहे हैं और हमारी सामाजिक न्याय और सौहार्द की लड़ाई लगातार और मुश्किल बन रही है.

इन सभी संस्मरणों से मुझे चिंता हुई कि कैसे मुसलमानों के नाम पर संघ परिवार ने गाँवों में दलित पिछडों में भी विभाजन करवाया है. जहाँ दलित पिछडों की बढ़ती एकता से भाजपाई और संघी परेशान हैं लेकिन वे सभी अभी भी इस बात में कामयाब हैं. जब मसला मुसलमानों का आता है तो हमारे सामाजिक दुराग्रह अभी भी वैसे के वैसे ही हैं. इसलिए मेरे अनुसार चुनौती बड़ी है. क्योंकि सभी सेक्युलर पार्टियों के मुसलमान नेताओं के सामने जीतने की भारी चुनौती होगी. 

पिछली लोक सभा में देश की लगभग 14% आबादी का प्रतिनिधत्व मात्र 22 था जो 4% लगभग था. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य से जहां से मुसलमानों की एक बहुत अच्छी संख्या संसद में पहुँचती थी पिछले चुनावों में बिलकुल शून्य में पहुँच गयी. क्या इस प्रश्न पर हमारे नेताओं की नजर नहीं जानी चाहिए. क्या ये प्रयास नहीं होने चाहिए कि भारत की धर्मनिरपेक्षता मात्र सेक्युलर नेताओं के संसद में पहुंचने से नहीं बचने वाली अपितु यहाँ के मुस्लिम, सिख, ईसाई और बुद्धिस्ट नेताओं के संसद में पहुंचने से होगी. लेकिन अभी भी हमारी पार्टियां इन मुद्दों को लेकर गंभीर नहीं है लिहाजा जिन जगहों पर मुस्लिम कैंडिडेट अच्छे नतीजे दे सकते हैं वह या तो मुस्लिम उम्मीदवार ही आपस में लड़ रहे हैं या सेक्युलर चैंपियन उनको धक्का मारने को तैयार बैठे हैं. ये गंभीर स्थिति है और यदि इसको ठीक नहीं किया गया तो इसके नतीजे नकारात्मक होंगे. एक और बात जरुरी है और वह यह कि मुसलमानों में भी दलित और पिछड़ी जातियों के लोग हैं लेकिन वो हमारे सेक्युलर अजेंडे में नहीं हैं. दिल्ली के हलकों में अंग्रेजीदा मुसलमानों ही सेक्युलर सर्किल का हिस्सा बनते हैं बाकी को नमाजी बोलकर किनारे काट लिया जाता है. सामाजिक न्याय की मंडी में भी पसमंदाओ का प्रश्न गायब है इसलिए पूरा मसला हिन्दू मुसलमान का होता है जिसका लाभ मात्र संघियों को ही नहीं है अपितु सामाजिक न्याय के उन नेताओं को भी है जो मुस्लिम असुरक्षा के जरिये अपनी अपनी सीट पक्की करते हैं लेकिन उससे मुसलमानों की असुरक्षा दूर नहीं होगी.

हम तो यही कह सकते हैं कि देश के अल्प संख्यकों को न केवल चुनावों में भाग लेने का अधिकार है अपितु संसद में भी अपने नेता लाने का अधिकार है. इन चुनावों ने साफ़ बता दिया है के हिंदुत्व के लोग मुसलमानों का नाम वोटर लिस्ट में कटवाने से लेकर उनके इलाकों में समस्या खड़ी करने के प्रयास करेंगे ताकि वे वोट न डाल पायें. सवाल ये है कि सेक्युलर ताकतें क्या कर रही हैं. क्या मुसलमानों के प्रश्नों पर केवल इसलिए बात न की जाए कि यहाँ के सवर्ण नाराज हो जायेंगे या यहाँ का ब्राह्मणवादी पूंजीवादी मीडिया उसके नैरेटिव बदल देगा. वो तो मीडिया कर ही रहा है लेकिन हम क्या इसको बिना मज़बूत विचारधारा के लड़ पायेंगे. जब तक भारत में मुसलमानों और ईसाइयो में भी जाति के सवाल को लेकर दलित पिछडो के साथ वृहत्तर एकता नहीं होगी तब तक हिन्दू मुसलमान के नाम की राजनीती से ताकतवार जातियों के अलावा किसी का लाभ नहीं है. ये समझाना बहुत जरुरी है कि किसी भी समुदाय को नेतृत्वविहीन कर हम किसी भी लोकतंत्र को मजबूत नहीं कर पायेंगे. इस सन्दर्भ में मौजूदा चुनावों के परिणाम देश के लोकतंत्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण होंगे. क्या देश के लोग ध्रुवीकरण की राजनीती को नकारेंगे या फिर उसी नैरेटिव पर चलेंगे जिसके कारण देश में आज कलह है और उसकी एकता और आपसी भाईचारगी को खतरा है ? उम्मीद है लोग इसे समझेंगे और अपना सही निर्णय देंगे ताकि जोड़ने वाली ताकतें जीते और विभाजन कर पूंजीवादी पुरोहितवादी राज्य के सपने देखने वाली शक्तियां परास्त हों.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता व राजनीतिक विश्लेषक हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं।)

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