भारत में दक्षिणपंथी राजनीति की पकड़ मज़बूत होने के साथ-साथ, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों, महिलाओं आदि को लगातार हाशिये पर किया जा रहा है।
फ़ोटो साभार : सोशल मीडिया
मध्यप्रदेश के सीधी जिले में प्रवेश शुक्ला नाम के एक भाजपा कार्यकर्ता द्वारा एक कोल आदिवासी पर पेशाब करने की दहशतभरी घटना को हिंदी के कई अखबारों ने 'मूत्र विसर्जन कांड' का नाम या संज्ञा दी है। हिंदी थिसारस में दस से ज़्यादा तरह से 'विसर्जन' की व्याख्या की गई है और दर्जनों पर्यायवाचियों में से एक भी शब्द ऐसा नहीं है, जिससे इस कृत्य की वीभत्स तस्वीर परिलक्षित होती हो। हम सब जानते हैं कि भारतीय संदर्भों में 'विसर्जन' को कमोबेश बेहद पवित्र अर्थों के साथ प्रयोग में लाया जाता है। सवाल उठता है कि हम किस तरह के शब्दों का चयन एक घृणित गतिविधि को बताने या समझाने के लिए करते हैं। यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी तमाम ऐसे किस्से सामने आए हैं जिसमें लोगों के साथ अमानवीय कृत्य किए गए हैं। जो लोग मध्यप्रदेश की आंचलिक सामाजिक स्थिति को समझते हैं, वे जानते ही हैं, इस विध्यं या बघेलखंड अंचल में ब्राह्मणों का कितना वर्चस्व व प्रभाव है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के साथ ही 'प्रतिष्ठा' और अवसर की समता के उल्लेख के अलावा 'व्यक्ति की गरिमा' और 'बंधुता' सुनिश्चित करने का स्पष्ट उल्लेख है। अभी मूल अधिकारों की बात तो करने की स्थिति ही नहीं बन पा रही है। क्योंकि भारतीय समाज का एक वर्ग तो संविधान की प्रस्तावना ही पढ़ना नहीं चाहता। आरोपी भाजपा से जुड़ा है इसलिए कांग्रेस मुखर है। परंतु समझना तो यह भी होगा कि क्या प्रवेश शुक्ला नाम के इस व्यक्ति ने यह कार्य महज़ भाजपा कार्यकर्ता होने की वजह से किया? सिर्फ न पकड़े जाने की स्थिति से आश्वस्त होकर ऐसा किया? उपरोक्त कारण उसकी विकृत मानसिकता के सहायक हो सकते हैं और हैं भी। परंतु मुख्य कारण है, उसका सवर्ण होना और जिस पर वह पेशाब कर रहा है, उसका आदिवासी होना। अर्थात उसके मुकाबले कथित तौर पर निचले वर्ण का होना। सबसे बड़ी मानसिकता यही है कि, उस व्यक्ति को वह मनुष्य ही नहीं मानता।
पिछले दिनों प्रखर पत्रकार श्रवण गर्ग ने एक बेहद महत्वपूर्ण शब्द का प्रयोग किया - ‘सवर्ण राष्ट्रवाद’...मध्यप्रदेश में जो हुआ, वह चेता रहा है कि सवर्ण राष्ट्रवाद की सोच में सामान्य दलित और आदिवासियों की क्या हैसियत होगी। यह घटना राजनैतिक व संवैधानिक असफलताओं को विस्तारित करती हुई अंततः भारतीय समाज की सामाजिक विफलता को सामने ला रही है। यह राजनीतिक छीटांकशी से समझ में आ जाने वाला मामला भी नहीं है। हां इतना ज़रूर समझ में आ रहा है कि भारत में दक्षिणपंथी राजनीति की पकड़ मजबूत होने के साथ-साथ, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों, महिलाओं और धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्म समभाव को मानने वाले समुदायों या वर्गों को लगातार हाशिये पर किया जा रहा है। फिर तो स्पष्ट है कि भारत में डॉ. लोहिया के शब्दों में कहें तो पांच प्रतिशत सवर्ण पुरूषों का ही बोलबाला है। दूसरे शब्दों में सवर्ण राष्ट्रवाद की नींव धीरे-धीरे मजबूत होती जा रही है।
पेशाब करने की घटना से प्रदेश के मुख्यमंत्री यानी मामाजी, बेहद द्रवित हुए। पीड़ित आदिवासी को भोपाल बुलवा लिया, उसके 'पांव पखारे'... 'पांव पंखारना' फिर एक कर्मकांडी शब्द है। पहली बात तो यह है कि पीड़ित के घर जाया जाता है, या उसे अपने घर बुलाया जाता है? भाजपा के लिए यह नया नहीं है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री मारे गए इंस्पेक्टर के परिवार वालों को अपने घर बुलाते हैं। उनके घर नहीं जाते। वैसे भी यह दल आपदा में अवसर ढूंढ ही लेता है। अनायास ही 'मतदाताओं' के दिमाग में 'कृष्ण और सुदामा' का प्रतीक बिठाने का प्रयास किया गया। यह भी समझाने का प्रयास किया गया कि भले ही द्वापर युग हो या कलियुग, आना तो सुदामा को ही पड़ेगा। इतना ही नहीं त्वरित न्याय करते हुए, प्रदेश सरकार ने आरोपी के घर के एक छोटे हिस्से को बुलडोज़र से तोड़ दिया। इस तरह से बिना न्यायालयी प्रक्रिया के घर तोड़ना उचित व कानूनी नहीं है, भले ही आरोपी पर कितने ही संगीन आरोप लगे हों।
पीड़ित 'कोल' जनजाति से आता है। इस जनजाति की सामाजिक व आर्थिक स्थिति बेहद दयनीय है। इनमें से अधिकांश जंगलों से बेदखल हो चुके हैं और शहरों, कस्बों या गांवों में बंधुआ मज़दूरी में बंधे रहते हैं लेकिन ये विध्यं के बड़े इलाके में बसते हैं और चुनाव के परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं। इसके बावजूद वे सत्ता और उच्चवर्ग की दया पर ही अधिक निर्भर हैं। मूल सवाल तो यही है कि क्या प्रवेश शुक्ला, इस तरह की सामाजिक एंव आर्थिक स्थिति में रहने वाले के अलावा अन्य किसी वर्ग पर नशे की हालत में भी पेशाब करने की सोच सकता था? कतई नहीं सोच सकता था! मुख्य बात तो यही है कि आज़ादी के स्वर्ण काल में इस तरह की घटना पर जिन प्रमुख लोगों की प्रतिक्रिया आनी चाहिये थी, वह अभी तक देखने या पढ़ने में नहीं आई है। ऐसे में स्थिति और भी गंभीर हो जाती हैं जबकि देश की राष्ट्रपति स्वंय एक आदिवासी हैं।
केंद्र और प्रदेश के आदिवासी कल्याण मंत्रियों, केंद्र व राज्य मानवाधिकार आयोगों, केंद्र व राज्य आदिवासी कल्याण आयोगों की अधिकारिक प्रतिक्रिया का अभी भी इंतज़ार है। 'पैर पूजना' केंद्र और मध्यप्रदेश सरकार का नया चमत्कार है। प्रधानमंत्री दलितों के पैर धोते हैं। मध्यप्रदेश में कमोबेश हर सरकारी कार्यक्रम के पहले कन्याओं के पैर पूजने का नियम सा बना दिया है। परंतु महिलाओं पर होने वाले अपराधों में मध्यप्रदेश अव्वल है। वहीं अब आदिवासी के पैर धो दिए गए, लेकिन उनके खिलाफ होने वाले अपराधों में भी मध्यप्रदेश सबसे आगे है।
रमणिका गुप्ता अपनी पुस्तक, 'आदिवासी अस्मिता का संकट' में लिखतीं है, "मुझसे वे तथाकथित कोयला चोर आदिवासी एक साथ कई सवाल पूछ रहे थे और खोज रहे थे जवाब, जो उनके इतिहास और उद्गम से जुड़े थे। एक सवाल था, 'भारत में अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहले हम पहाड़िया आदिवासियों ने युद्ध शुरू किया था, फिर शुरू हुआ था कोल्हन और संताल परगना में भीषण संग्राम। तब 1857 की लड़ाई को आज़ादी की पहली लड़ाई क्यों कहा गया? इनसे बहुत पहले पहाड़िया, कोल्हन और संताल, हूल अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद कर चुके थे।"
जिस समुदाय के व्यक्ति पर पेशाब की गई उसके पूर्वज भी विध्यं या बघेलखंड के राजा रह चुके हैं, और आज इन आदिवासियों की यह स्थिति वास्तव में चौकाती है। रमणिका गुप्ता ईशारे में व व्यंग्य से जिन्हें 'कोयला चोर' कह रहीं हैं, वास्तव में वे उस भूमि के स्वामी है, जहां से कोयला निकाला जा रहा है। अपनी ही संपत्ति को प्रयोग में लाना अब उन्हें चोर की संज्ञा दे रहा है। कोल जहां के शासक रहे हैं, वहां एक व्यक्ति उन पर पेशाब कर रहा है। हमें अपनी सामाजिक सोच के संदर्भों को ठीक से टटोलना होगा।
आदिवासियों के संदर्भ में निर्मला पुतुल लिखतीं है, "ये वे लोग हैं, जो हमारे ही नाम लेकर, गटक जाते हैं, हमारे हिस्से का समुद्र"
अरुंधती रॉय लिखती हैं, "वे वही सांस लेंगे जो आप उनके सांस लेने के लिए छोड़ेगे। वे वहीं रहेंगे जहां आप उनका सामान फेंक देंगे। उन्हें रहना होगा। वे और कर ही क्या सकते हैं। सुनवाई के लिए और उंची अदालत नहीं है। आप ही उनके माता और पिता। आप ही जज और जूरी हैं। आप ही दुनियां हैं। आप ही ईश्वर हैं।"
इसलिए यह सहज ही है कि समाज सभ्य बना रहे। अभी कुछ दिन पहले ही फादर स्टेन स्वामी की पुण्यतिथि थी। उनकी मृत्यु उन सबके लिए चेतावनी थी, जो सीधे-सीधे आदिवासी हितों के लिए कार्य कर रहे हैं या भविष्य में करना चाहते हैं। ऐसे तमाम लोग इस व्यवस्था को इसलिए मान्य नहीं हो सकते क्योंकि वे पैर धोने का 'आडंबर' नहीं करेंगे। इसलिए वे अपनी नियति स्वयं ही निर्धारित कर रहे हैं।
मूल बात यह है कि अन्य दल इस घटना की महज़ निंदा करके, अलग नहीं हट सकते। उन्हें बताना होगा कि भले ही वे आज सरकार में नहीं है, परंतु उनके पास इस अपमानजनक घटना की पुनरावृत्ति न होने देने को लेकर क्या कोई कार्ययोजना है? यह कोई चुनावी मुद्दा नहीं है। यह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की अस्मिता का प्रश्न है। मध्यप्रदेश के अखबारों का विश्लेषण करें तो लगेगा मानों जैसे बुलडोज़र चला देने और राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में निरूद्ध कर देने से समाधान निकल आया है। वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है।
मध्यप्रदेश में कई अंचलों में दलितों की बारात पुलिस सुरक्षा के बिना नहीं निकल पा रही हैं। थाने में जाकर आवेदन देकर सुरक्षा मांगनी पड़ती है। यहां पुनः 'सवर्ण राष्ट्रवाद' याद आ रहा है। आज़ादी के 75 वें वर्ष में ऐसी घटना का घटित होना समझा रहा है कि हमने अपनी यात्रा के मार्ग को उलट दिया है और उलटी यात्रा शुरू कर दी है आज मणिपुर में आदिवासियों के साथ जो हो रहा है, उस पर सत्ताधारी वर्ग चुप्पी लगाए है। मध्यप्रदेश के सीधी में जो हुआ उसे 'एकल घटना' बताकर पल्ला झाड़ा जा रहा है। वास्तविकता में यह पूरे दलित व आदिवासी समाज के प्रति किया गया अपराध है, और इतनी आसानी से खुद को पाक-साफ नहीं बनाया जा सकता। यह कोई साधारण भूल नहीं है। महात्मा गांधी ने कहा है 'भूल प्रायश्चित से मुक्ति पाने का दावा नहीं कर सकती, भले ही दुनिया के सारे धर्मग्रंथों से उसका समर्थन क्यों न किया जा सके।'
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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मध्यप्रदेश के सीधी जिले में प्रवेश शुक्ला नाम के एक भाजपा कार्यकर्ता द्वारा एक कोल आदिवासी पर पेशाब करने की दहशतभरी घटना को हिंदी के कई अखबारों ने 'मूत्र विसर्जन कांड' का नाम या संज्ञा दी है। हिंदी थिसारस में दस से ज़्यादा तरह से 'विसर्जन' की व्याख्या की गई है और दर्जनों पर्यायवाचियों में से एक भी शब्द ऐसा नहीं है, जिससे इस कृत्य की वीभत्स तस्वीर परिलक्षित होती हो। हम सब जानते हैं कि भारतीय संदर्भों में 'विसर्जन' को कमोबेश बेहद पवित्र अर्थों के साथ प्रयोग में लाया जाता है। सवाल उठता है कि हम किस तरह के शब्दों का चयन एक घृणित गतिविधि को बताने या समझाने के लिए करते हैं। यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी तमाम ऐसे किस्से सामने आए हैं जिसमें लोगों के साथ अमानवीय कृत्य किए गए हैं। जो लोग मध्यप्रदेश की आंचलिक सामाजिक स्थिति को समझते हैं, वे जानते ही हैं, इस विध्यं या बघेलखंड अंचल में ब्राह्मणों का कितना वर्चस्व व प्रभाव है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के साथ ही 'प्रतिष्ठा' और अवसर की समता के उल्लेख के अलावा 'व्यक्ति की गरिमा' और 'बंधुता' सुनिश्चित करने का स्पष्ट उल्लेख है। अभी मूल अधिकारों की बात तो करने की स्थिति ही नहीं बन पा रही है। क्योंकि भारतीय समाज का एक वर्ग तो संविधान की प्रस्तावना ही पढ़ना नहीं चाहता। आरोपी भाजपा से जुड़ा है इसलिए कांग्रेस मुखर है। परंतु समझना तो यह भी होगा कि क्या प्रवेश शुक्ला नाम के इस व्यक्ति ने यह कार्य महज़ भाजपा कार्यकर्ता होने की वजह से किया? सिर्फ न पकड़े जाने की स्थिति से आश्वस्त होकर ऐसा किया? उपरोक्त कारण उसकी विकृत मानसिकता के सहायक हो सकते हैं और हैं भी। परंतु मुख्य कारण है, उसका सवर्ण होना और जिस पर वह पेशाब कर रहा है, उसका आदिवासी होना। अर्थात उसके मुकाबले कथित तौर पर निचले वर्ण का होना। सबसे बड़ी मानसिकता यही है कि, उस व्यक्ति को वह मनुष्य ही नहीं मानता।
पिछले दिनों प्रखर पत्रकार श्रवण गर्ग ने एक बेहद महत्वपूर्ण शब्द का प्रयोग किया - ‘सवर्ण राष्ट्रवाद’...मध्यप्रदेश में जो हुआ, वह चेता रहा है कि सवर्ण राष्ट्रवाद की सोच में सामान्य दलित और आदिवासियों की क्या हैसियत होगी। यह घटना राजनैतिक व संवैधानिक असफलताओं को विस्तारित करती हुई अंततः भारतीय समाज की सामाजिक विफलता को सामने ला रही है। यह राजनीतिक छीटांकशी से समझ में आ जाने वाला मामला भी नहीं है। हां इतना ज़रूर समझ में आ रहा है कि भारत में दक्षिणपंथी राजनीति की पकड़ मजबूत होने के साथ-साथ, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों, महिलाओं और धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्म समभाव को मानने वाले समुदायों या वर्गों को लगातार हाशिये पर किया जा रहा है। फिर तो स्पष्ट है कि भारत में डॉ. लोहिया के शब्दों में कहें तो पांच प्रतिशत सवर्ण पुरूषों का ही बोलबाला है। दूसरे शब्दों में सवर्ण राष्ट्रवाद की नींव धीरे-धीरे मजबूत होती जा रही है।
पेशाब करने की घटना से प्रदेश के मुख्यमंत्री यानी मामाजी, बेहद द्रवित हुए। पीड़ित आदिवासी को भोपाल बुलवा लिया, उसके 'पांव पखारे'... 'पांव पंखारना' फिर एक कर्मकांडी शब्द है। पहली बात तो यह है कि पीड़ित के घर जाया जाता है, या उसे अपने घर बुलाया जाता है? भाजपा के लिए यह नया नहीं है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री मारे गए इंस्पेक्टर के परिवार वालों को अपने घर बुलाते हैं। उनके घर नहीं जाते। वैसे भी यह दल आपदा में अवसर ढूंढ ही लेता है। अनायास ही 'मतदाताओं' के दिमाग में 'कृष्ण और सुदामा' का प्रतीक बिठाने का प्रयास किया गया। यह भी समझाने का प्रयास किया गया कि भले ही द्वापर युग हो या कलियुग, आना तो सुदामा को ही पड़ेगा। इतना ही नहीं त्वरित न्याय करते हुए, प्रदेश सरकार ने आरोपी के घर के एक छोटे हिस्से को बुलडोज़र से तोड़ दिया। इस तरह से बिना न्यायालयी प्रक्रिया के घर तोड़ना उचित व कानूनी नहीं है, भले ही आरोपी पर कितने ही संगीन आरोप लगे हों।
पीड़ित 'कोल' जनजाति से आता है। इस जनजाति की सामाजिक व आर्थिक स्थिति बेहद दयनीय है। इनमें से अधिकांश जंगलों से बेदखल हो चुके हैं और शहरों, कस्बों या गांवों में बंधुआ मज़दूरी में बंधे रहते हैं लेकिन ये विध्यं के बड़े इलाके में बसते हैं और चुनाव के परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं। इसके बावजूद वे सत्ता और उच्चवर्ग की दया पर ही अधिक निर्भर हैं। मूल सवाल तो यही है कि क्या प्रवेश शुक्ला, इस तरह की सामाजिक एंव आर्थिक स्थिति में रहने वाले के अलावा अन्य किसी वर्ग पर नशे की हालत में भी पेशाब करने की सोच सकता था? कतई नहीं सोच सकता था! मुख्य बात तो यही है कि आज़ादी के स्वर्ण काल में इस तरह की घटना पर जिन प्रमुख लोगों की प्रतिक्रिया आनी चाहिये थी, वह अभी तक देखने या पढ़ने में नहीं आई है। ऐसे में स्थिति और भी गंभीर हो जाती हैं जबकि देश की राष्ट्रपति स्वंय एक आदिवासी हैं।
केंद्र और प्रदेश के आदिवासी कल्याण मंत्रियों, केंद्र व राज्य मानवाधिकार आयोगों, केंद्र व राज्य आदिवासी कल्याण आयोगों की अधिकारिक प्रतिक्रिया का अभी भी इंतज़ार है। 'पैर पूजना' केंद्र और मध्यप्रदेश सरकार का नया चमत्कार है। प्रधानमंत्री दलितों के पैर धोते हैं। मध्यप्रदेश में कमोबेश हर सरकारी कार्यक्रम के पहले कन्याओं के पैर पूजने का नियम सा बना दिया है। परंतु महिलाओं पर होने वाले अपराधों में मध्यप्रदेश अव्वल है। वहीं अब आदिवासी के पैर धो दिए गए, लेकिन उनके खिलाफ होने वाले अपराधों में भी मध्यप्रदेश सबसे आगे है।
रमणिका गुप्ता अपनी पुस्तक, 'आदिवासी अस्मिता का संकट' में लिखतीं है, "मुझसे वे तथाकथित कोयला चोर आदिवासी एक साथ कई सवाल पूछ रहे थे और खोज रहे थे जवाब, जो उनके इतिहास और उद्गम से जुड़े थे। एक सवाल था, 'भारत में अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहले हम पहाड़िया आदिवासियों ने युद्ध शुरू किया था, फिर शुरू हुआ था कोल्हन और संताल परगना में भीषण संग्राम। तब 1857 की लड़ाई को आज़ादी की पहली लड़ाई क्यों कहा गया? इनसे बहुत पहले पहाड़िया, कोल्हन और संताल, हूल अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद कर चुके थे।"
जिस समुदाय के व्यक्ति पर पेशाब की गई उसके पूर्वज भी विध्यं या बघेलखंड के राजा रह चुके हैं, और आज इन आदिवासियों की यह स्थिति वास्तव में चौकाती है। रमणिका गुप्ता ईशारे में व व्यंग्य से जिन्हें 'कोयला चोर' कह रहीं हैं, वास्तव में वे उस भूमि के स्वामी है, जहां से कोयला निकाला जा रहा है। अपनी ही संपत्ति को प्रयोग में लाना अब उन्हें चोर की संज्ञा दे रहा है। कोल जहां के शासक रहे हैं, वहां एक व्यक्ति उन पर पेशाब कर रहा है। हमें अपनी सामाजिक सोच के संदर्भों को ठीक से टटोलना होगा।
आदिवासियों के संदर्भ में निर्मला पुतुल लिखतीं है, "ये वे लोग हैं, जो हमारे ही नाम लेकर, गटक जाते हैं, हमारे हिस्से का समुद्र"
अरुंधती रॉय लिखती हैं, "वे वही सांस लेंगे जो आप उनके सांस लेने के लिए छोड़ेगे। वे वहीं रहेंगे जहां आप उनका सामान फेंक देंगे। उन्हें रहना होगा। वे और कर ही क्या सकते हैं। सुनवाई के लिए और उंची अदालत नहीं है। आप ही उनके माता और पिता। आप ही जज और जूरी हैं। आप ही दुनियां हैं। आप ही ईश्वर हैं।"
इसलिए यह सहज ही है कि समाज सभ्य बना रहे। अभी कुछ दिन पहले ही फादर स्टेन स्वामी की पुण्यतिथि थी। उनकी मृत्यु उन सबके लिए चेतावनी थी, जो सीधे-सीधे आदिवासी हितों के लिए कार्य कर रहे हैं या भविष्य में करना चाहते हैं। ऐसे तमाम लोग इस व्यवस्था को इसलिए मान्य नहीं हो सकते क्योंकि वे पैर धोने का 'आडंबर' नहीं करेंगे। इसलिए वे अपनी नियति स्वयं ही निर्धारित कर रहे हैं।
मूल बात यह है कि अन्य दल इस घटना की महज़ निंदा करके, अलग नहीं हट सकते। उन्हें बताना होगा कि भले ही वे आज सरकार में नहीं है, परंतु उनके पास इस अपमानजनक घटना की पुनरावृत्ति न होने देने को लेकर क्या कोई कार्ययोजना है? यह कोई चुनावी मुद्दा नहीं है। यह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की अस्मिता का प्रश्न है। मध्यप्रदेश के अखबारों का विश्लेषण करें तो लगेगा मानों जैसे बुलडोज़र चला देने और राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में निरूद्ध कर देने से समाधान निकल आया है। वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है।
मध्यप्रदेश में कई अंचलों में दलितों की बारात पुलिस सुरक्षा के बिना नहीं निकल पा रही हैं। थाने में जाकर आवेदन देकर सुरक्षा मांगनी पड़ती है। यहां पुनः 'सवर्ण राष्ट्रवाद' याद आ रहा है। आज़ादी के 75 वें वर्ष में ऐसी घटना का घटित होना समझा रहा है कि हमने अपनी यात्रा के मार्ग को उलट दिया है और उलटी यात्रा शुरू कर दी है आज मणिपुर में आदिवासियों के साथ जो हो रहा है, उस पर सत्ताधारी वर्ग चुप्पी लगाए है। मध्यप्रदेश के सीधी में जो हुआ उसे 'एकल घटना' बताकर पल्ला झाड़ा जा रहा है। वास्तविकता में यह पूरे दलित व आदिवासी समाज के प्रति किया गया अपराध है, और इतनी आसानी से खुद को पाक-साफ नहीं बनाया जा सकता। यह कोई साधारण भूल नहीं है। महात्मा गांधी ने कहा है 'भूल प्रायश्चित से मुक्ति पाने का दावा नहीं कर सकती, भले ही दुनिया के सारे धर्मग्रंथों से उसका समर्थन क्यों न किया जा सके।'
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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