यूपी: चुनाव को धार्मिक रंग देने की तैयारी में मोदी, योगी और संघ, जनता को तय करनी होगी प्राथमिकता

Written by Navnish Kumar | Published on: December 20, 2021
काशी विश्वनाथ कॉरिडोर उद्घाटन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार फिर अपनी वेशभूषा बदलते हुए, हिंदुत्व के रंग में रंगे दिखे। भगवा वस्त्रों में गंगाजी में डुबकी लगाई। ट्वीट किया 'मां गंगा की गोद में उनके स्नेह ने कृतार्थ कर दिया। ऐसा लगा जैसे मां गंगा की कलकल करती लहरें विश्वनाथ धाम के लिए आशीर्वाद दे रही हैं। हर हर महादेव। हर हर गंगे।'



संकेत साफ था यूपी चुनाव हिंदुत्व के मुद्दे के इर्द-गिर्द ही लड़ा जाएगा। अयोध्या के बाद काशी में दीवाली मनाने को भी समूचे राजनैतिक माहौल को धार्मिक रंग देने की संघी कोशिश के तौर पर ही देखा जा रहा है। कुल मिलाकर अयोध्या के साथ बनारस को पूरे देश के सामने धर्म और विकास के एक मॉडल के रूप में पेश करने की कोशिश सरकारी नजर आती है। देखें तो काशी कॉरिडोर का उद्घाटन बनारस में हुआ, लेकिन इसमें पूरे देश और खासकर पूरे उत्तर प्रदेश को डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से शामिल करने की कोशिश की गई। वजह साफ है कि कहने को भले यह एक धार्मिक आयोजन हो लेकिन इसका मकसद पूरी तरह राजनैतिक और यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा को जीत दिलाना है। इसी मकसद से अगले एक महीने तक देश भर में 'दिव्य काशी भव्य काशी' थीम पर 'प्रभात फेरी' की योजना है।

340 करोड़ से बने काशी कॉरिडोर प्रथम फेज का शिलान्यास मोदी ने 8 मार्च 2019 को किया था और अब उप्र चुनाव से पहले 13 दिसंबर को उन्होंने इसका उद्घाटन किया है। मकसद चुनावी लाभ लेना ही है। इस कॉरिडोर में 24 इमारतें बनाई गई हैं जिनमें श्रद्धालुओं के रुकने आदि की सुविधाएं होंगी। परियोजना के लिए मंदिर के आसपास की 300 से ज़्यादा संपत्तियों को ख़रीदा गया। 1,400 दुकानदारों, किरायेदारों और मकान मालिकों को दूसरी जगह बसाया गया है। परियोजना के दौरान पुरानी संपत्तियों को तोड़ा गया। 40 प्राचीन मंदिरों को फिर से बनाया गया। कॉरिडोर की कई तस्वीरें भी पीएम मोदी के सोशल मीडिया हैंडल से प्रसारित की गईं, ताकि जनता के बीच इसकी भव्यता और सुंदरता को पहुंचाकर हिंदुत्व की भावनाओं में उफान लाया जा सके। जब करोड़ों रुपए खर्च कर कोई निर्माण होगा तो निश्चित ही वह आलीशान होगा। लेकिन इसके बाद भी सवाल उठ सकता है कि क्या काशी 7 सालों में क्योटो बन पाई है, जिसका मोदी ने सत्ता में आने पर वादा किया था। खैर मोदी जानते हैं कि काशी के नाम पर लोगों की भावनाओं को कैसे भुनाया जा सकता है, इसलिए उद्घाटन के मौके पर उनका पूरा भाषण काशी के गौरवशाली अतीत, काशी-विश्वनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण और कॉरिडोर के काम पर केंद्रित रहा, राजनीति पर उन्होंने सीधे कोई बात नहीं की। लेकिन जो कहा, उसका संबंध चुनावी राजनीति से ही है।

लेकिन सवाल धार्मिकता के बखान का है। याद करें सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण और पुनरूत्थान में नेहरू सरकार के मंत्रियों और सरदार पटेल ने शिलान्यास या प्राण प्रतिष्ठा करवाई थी। क्या किसी ऐसे फोटो को सरदार पटेल ने तब रिलिज किया था जिससे वे शिलान्यास करवाते या पूजापाठी के रूप में जाहिर हुए हो। कोई फोटो नहीं मिलेगा। क्योंकि सोमनाथ मंदिर का पुर्ननिर्माण तब के नेताओं के लिए निजी आस्था का मामला था। उसमें न दिखावा था और न वोट बनाने का छल! शायद किसी अन्य सभ्यता संस्कृति व धर्म में ऐसा दिखावा, ऐसा प्रायोजन मिलता है जैसा भारत के प्रधानमंत्री मोदी इन दिनों आधुनिक दुनिया के आगे बार-बार प्रदर्शित कर रहे हैं? वरिष्ठ पत्रकार हरिशंकर व्यास याद करते हुए कहते हैं कि सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण सरदार पटेल और कांग्रेसजनों की सात्विक हिंदू प्रवृत्ति, निःस्वार्थ पुण्यता में था जबकि 70 साल बाद राजनीतिक मकसद और सियासी टाइमलाइन से आज मंदिरों का पुनरूत्थान हो रहा है। सरदार पटेल ने सपने में नहीं सोचा था कि वे मंदिर बनवा रहे हैं तो हिंदुओं के नेता बनेंगे। न ही उन्होंने ऐसा कोई दिखावा, प्रायोजन किया कि देखो दुनिया वालों, देखो हिंदुओं मैं शिलान्यास कर रहा हूं या ऐसे पूजा करता हूं। यह सब हिंदू वोटों को भरमाने, बहकाने और छल के साथ सौ टका दिखावा है! लेकिन पीएम मोदी की भाव भंगिमा, उनका भाषण और अभिनय एकदम सुपर हिट था। 

अखिल भारतीय किसान महासभा के सयुंक्त सचिव व वरिष्ठ पत्रकार बादल सरोज कहते हैं कि यह सब अनायास नहीं था। किसानों से मिली पटखनी के साथ रोजगार, महंगाई और वित्तीय मोर्चों पर विफलताओं को भगवा आडंबरों से ढकने और देश की अर्जित संपदा की चौतरफा लूट करवाने की हरकतों को धर्म की आड़ में छुपाने की असफल कोशिश थी। दूसरी ओर धर्माधारित राष्ट्र की अवधारणा को पूरी ताकत के साथ प्राण प्रतिष्ठित कर मुख्य आख्यान बनाने की साजिश थी। इसीलिये काशी स्वांग को बाद में अयोध्या कांड तक ले जाया गया गया। भाजपा के सारे मुख्यमंत्रियों उपमुख्यमंत्रियों की बनारस में बैठक के बाद उन्हें रामलला के दर्शन के लिए अयोध्या लाया गया था। यह वह विषाक्त समझदारी है जिसे आजादी की लड़ाई के दौरान भारत की जनता पराजित कर चुकी थी। धर्माधारित राष्ट्र की बेतुकी और विभाजनकारी समझदारी को ठुकरा चुकी थी और राज्यों के एक धर्मनिरपेक्ष संघ गणराज्य की स्थापना कर चुकी थी। लेकिन जिन भेड़ियों को गांव से बाहर खदेड़ दिया गया था, कारपोरेट पूंजी से गलबहियां करके कालान्तर में वे ही सरपंच बन बैठे हैं। इस गठजोड़ को और मजबूत करने के इरादे से बनारस में मोदी इसे विकास और परम्परा का नया नाम दे रहे थे। लेकिन काशी और अयोध्या में जो किया और दिखाया गया वह हिंदू आचरण नहीं, हिंदुत्व की लीला का मंचन है। एकदम शुद्ध रेडियोएक्टिव और खांटी हिंदुत्व का मंचन। 

वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग नए हिंदू राष्ट्र के उदय से जोड़ते हुए तुलनात्मक नजरिए से सवाल उठाते हैं कि 13 दिसंबर के दिन को ऐतिहासिक बनाते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने काशी विश्वनाथ कॉरिडोर अपने हिंदू भक्तों को समर्पित कर दिया। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि विश्वनाथ धाम का यह नया परिसर एक भव्य भवन भर नहीं है। यह प्रतीक है हमारे भारत की सनातन संस्कृति का। यह प्रतीक है हमारी आध्यात्मिक आत्मा का। यह प्रतीक है भारत की प्राचीनता, परम्पराओं का। भारत की ऊर्जा का, गतिशीलता का। जबकि दूसरी ओर, कोई पांच दशक पहले (22 अक्टूबर, 1963) देश के प्रथम प्रधानमंत्री और ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के रचनाकार पं. जवाहरलाल नेहरू ने पंजाब में सतलुज नदी पर निर्मित भारत की सबसे बड़ी बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना राष्ट्र को समर्पित करते हुए कहा था कि मेरी आँखों के सामने एक नमूना हो जाता है ये काम, सारे हिंदुस्तान के बढ़ने का, हिंदुस्तान की एकता का। आप इसे एक मंदिर भी पुकार सकते हैं या एक गुरुद्वारा भी या एक मस्जिद। लगभग 284 करोड़ रुपए की लागत से निर्मित तब के इस सबसे बड़े बांध के पूरा होने के पहले नेहरू 13 बार निर्माण-स्थल पर गए थे। क्या एक धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक राष्ट्र के नागरिक होने के तौर पर हमें विचार नहीं करना चाहिए कि पौराणिक महत्व के मान्य स्थलों के जीर्णोद्धार/पुनरुद्धार के ज़रिए देश में धार्मिक क्रांति और आध्यात्मिक/साम्प्रदायिक पुनर्जागरण तो हो सकता है, आर्थिक-सामाजिक न्याय की कल्पना कैसे साकार की जा सकती है? क्या भय नहीं महसूस होता कि आगे बढ़ने के स्थान पर देश को ऐसे कालखंड में धकेला जा रहा है जो नागरिकों को किसी काल्पनिक मोक्ष की प्राप्ति तो करवा सकता है, साक्षात रोटी और रोज़गार नहीं दिला सकता!

क्या उत्तर प्रदेश में ‘हिन्दू सरकार’ होने की एक प्रायोजित और झूठी अफवाह फैला कर प्रदेश के 75 फीसद आबादी वाले हिन्दू समुदाय को उनकी सामाजिक, आर्थिक और सियासी भागीदारी से वंचित करने तथा कुछ पूंजीपतियों को देश के समस्त संसाधन को सौंप देने का आपराधिक ‘कुचक्र’ रचा जा रहा है। यह आजादी की लड़ाई में शहीद हुए ‘हिन्दुओं’ का भी अपमान है। क्या कोई हिन्दू सरकार ऐसा ‘अपमान’ कर सकती है? क्या कोई दल यह दावा कर सकता है कि उसने अयोध्या में राम मंदिर बनवाकर ‘रामजी’ को महल में स्थापित करवाया? क्या कोई दल भगवान राम से बड़ा हो सकता है? और क्या कोई हिन्दू ऐसा कह-कर सकता है? आज बेतहाशा महंगाई है। लोगों की आय गिर गई है और घरों में कुपोषण फ़ैल गया है। इसका खामियाजा कुपोषण के रूप में जहां प्रदेश की बहुसंख्यक ‘हिन्दू’ जनता उठा रही है वहीं भाजपा इस मुद्दे पर मौन है। क्या कोई हिन्दू सरकार अपने ही हिन्दू भाइयों के खिलाफ ऐसा कर सकती है? आज प्रदेश के पढ़े लिखे इस बहुसंख्यक ‘हिंदू’ समुदाय के पास नौकरी के अवसर नहीं हैं। बेहतर शिक्षा के लिए अच्छे स्कूल, कालेज नहीं हैं। स्वास्थ्य सेवा की नाकाम असलियत से हम कोरोना के भीषण आक्रमण के दौर में दो-चार हो चुके हैं। नौकरीपेशा तबके की सामाजिक सुरक्षा को लगातार ख़त्म किया जा रहा है। मतलब यह कि इस ‘हिन्दू’ समुदाय की आय और सामाजिक बेहतरी का सूचकांक लगातार गिर रहा है, लेकिन योगी मोदी दोनों चुप हैं। फिर यह किस तरह से हिन्दू सरकार हुई? योगी सरकार द्वारा ‘हिन्दू’ हितैषी सरकार होने के नाम पर प्रदेश के दलितों, पिछड़ों को समाज में बांटा जा रहा है? बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय, जिसमें हम रहते हैं उसे सामाजिक, आर्थिक और सियासी तौर पर क्या चाहिए? आखिर ऐसा क्यों है कि यह सरकार आप से बात किये बिना आपके लिए न केवल झूठे, स्तरहीन सियासी ‘एजेंडे’ तय कर रही है बल्कि इसके आड़ में आपकी पीढ़ियों को मानसिक रूप से पंगु बना रही है? प्रदेश के लगभग एक लाख प्राइमरी स्कूलों में एक ही अध्यापक क्यों हैं? इतनी स्तरहीन शिक्षा ‘हिन्दू सरकार’ होने के ‘झूठे’ दावे के नाम पर दी जा रही है। क्या हम चुप रहकर अपने इस समुदाय की ‘शैक्षिक’ तबाही को ख़ामोशी से यूँ ही देखते रहेंगे? अगर यह एक ‘हिन्दू सरकार’ है तो बहुसंख्यक हिन्दुओं के सामाजिक, आर्थिक, सियासी बेहतरी के बुनियादी सवालों पर बात करने से यह सरकार क्यों भागती है? क्या सिर्फ भय और आतंक को फ़ैलाने की राजनीति से हिन्दू समुदाय का भला हो पायेगा?

क्या इन बुनियादी बातों को इसलिए नजरअंदाज किया जायेगा क्योंकि देश में एक हिन्दू सरकार होने का ‘झूठा’ भ्रम फैलाया गया है? असलियत देखें तो वसुधैव-कुटुम्बकम की नीति पर चलने वाले हिन्दू समाज को अपने सियासी फायदे के लिए मुस्लिम विरोध तक सीमित कर देना वैश्विक स्तर पर हिन्दुओं की छवि का सबसे बड़ा नुकसान है। हिंदूवादी सरकार होने का ढोंग बेनकाब हो चुका है। इस सरकार को उखाड़ फेंकने का वक्त आ गया है। अवसर का इस्तेमाल कर हिन्दू समुदाय द्वारा अपनी की गई गलतियों का प्रायश्चित किया जाना चाहिए। अन्यथा धर्म को ही खाने, ओढ़ने और बिछाने के लिए तैयार हो जाइए। क्योंकि मोदी योगी उप्र के चुनाव हिंदू और धार्मिक धुर्वीकरण को केंद्र में रखकर लड़ने जा रही है। भाजपा की प्राथमिकताओं को देख कर लगता ही नहीं कि देश में जनहित के लिए कोई और विषय आवश्यक है। यह वही देश है जो विकास के अधिकतर पैमानों पर अभी भी काफी पिछड़ा हुआ है। यहां 20 प्रतिशत से ज्यादा आबादी अभी भी अशिक्षित है। 25 प्रतिशत से भी ज्यादा आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। अमीरों-गरीबों के बीच की खाई का मुंह और फैलता ही चला जा रहा है। यह वही देश है जो अभी अभी महामारी की एक ऐसी लहर से निकला है जिसने पूरे देश को जैसे एक विशाल श्मशान घाट में बदल दिया था। शायद ही कोई ऐसा शख्स हो जिसके परिवार, संबंधियों, दोस्तों या परिचितों में से किसी के घर को भी मौत छू कर ना गई हो। अपने प्रियजनों की मौत और उनके अंतिम दर्शन तक ना कर पाने के अफसोस का बोझ अपने अपने दिलों पर लिए लोग क्या इतनी जल्दी उस त्रासदी को भूल गए हैं? 

सामाजिक चिंतक और मुंबई आईआईटी के पूर्व प्रोफेसर राम पुनियानी ने ‘राइज एंड एक्ट’ की तरफ से आयोजित ‘राष्ट्रीय एकता, शांति और न्याय’ विषयक प्रशिक्षण शिविर में कहा है कि धार्मिक सत्ता स्थापित करने का प्रयास लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है। देश में पिछले कुछ सालों से ऐसे ही प्रयास किये जा रहे हैं जिससे मुल्क की साझी विरासत पर खतरा मंडरा रहा है। हमें इन खतरों से न सिर्फ़ सावधान रहना होगा बल्कि समझना भी होगा। आजादी की लड़ाई सभी धर्म जाति के लोगों ने मिलजुल कर लड़ी थी। आज उन्हें विभाजित किया जा रहा है। एक धर्म विशेष के लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। प्रो.पुनियानी ने कहा कि समतावादी समाज के निर्माण के लिए संवैधानिक संस्थाओं और मूल्यों की रक्षा करने की जरूरत है जिन पर आज सर्वाधिक खतरा है। आज दलित, आदिवासी, महिला और अल्पसंख्यक निशाने पर हैं। उनकी दशा दिनों दिन खराब होती जा रही है। इतिहास को तोड़ मरोड़ कर गलत प्रचार किया जा रहा है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति मिली-जुली रही है जिन्हें आज तोड़ने का हर स्तर पर प्रयास किया जा रहा है। हमारी कोशिश समता और समानता आधारित समाज के निर्माण की होनी चाहिए।

अब सवाल है कि आपकी प्राथमिकता क्या है। सत्ताधारी तो चाहेंगे कि लोग यह सब भूल जाएं। वो चाहेंगे कि जनता ये भी भूल जाएं कि देश की अर्थव्यवस्था जिस तरफ जा रही है। इतिहास में पहली बार अर्थव्यवस्था बढ़ने की जगह सिकुड़ रही है। धनी परिवार इस झटके को झेल सकते हैं लेकिन गरीबों और मध्यम वर्ग के लिए खतरे की घंटी है। हाल के दशकों में जो करोड़ों लोग धीरे धीरे गरीबी से निकल पाए वो गरीबी की चपेट में वापस जा चुके हैं। पिछले कम से कम 12 सालों में ऐसी महंगाई नहीं देखी गई। बेरोजगारी दर ने 45 सालों के रिकॉर्ड को तोड़ दिया है।

राजनीतिक तमाशों के परे देखेंगे तो समझ में आएगा कि देश इस समय किन हालात में है। इस समय देश को एक ऐसी राजनीति की जरूरत है जो बताए कि करोड़ों लोगों को रोजगार कैसे मिलेगा, घरों में चूल्हा कैसे जलेगा, बच्चे स्कूलों में कैसे पहुंचेंगे, अस्पताल, डॉक्टरों और अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या कैसे बढ़ेगी? ऑक्सीजन जैसी मूलभूत चीज की कमी कैसे दूर होगी? अस्तित्व के लिए जरूरी ऐसे सवाल हमारे सामने खड़े हैं। ऐसे में, क्या सबसे ज्यादा चिंता इस बात की होनी चाहिए कि कौन सा मंदिर कहां और कब बनेगा? जनता किसे चुनना चाहती है वो चुनावों में बता सकती है, लेकिन राजनीतिक पार्टियों के पास अपनी प्राथमिकताओं को दिखाने का मौका चुनाव के पहले ही उपलब्ध रहता है। इस समय ऐसा लग रहा है कि वो अपनी प्राथमिकताएं तय कर चुकी हैं। और उसमें फिलहाल आम लोगों की जिंदगियों को बेहतर बनाने के प्रयासों की कोई जगह नहीं दिखती। स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विश्व भूख सूचकांक 2021 की सूची में भारत 101वें स्थान पर आ गया है। 2020 में भारत 94वें स्थान पर था। ऐसे में जनता को ही अपनी प्राथमिकता तय करनी होगी क्योंकि मोदी योगी व संघ भाजपा की प्राथमिकताएं साफ है।

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