मोदी सरकार का अंतिम साल। संवैधानिक प्रथाओं के तहत तो यह होना चाहिए था कि मोदी सरकार अपने तीन महीने के खर्चे का ब्योरा रखती। लेकिन सत्ता की राजनीति इन प्रथाओं का ख्याल नहीं रखती है। जाते-जाते मोदी सरकार ने एक पूरा बजट पेश कर दिया। यानी काम के पांच साल लेकिन बजट पेश किया छह बार। इस बजट पर बात करने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि यह अंतरिम बजट है, नई सरकार आने पर अगर नई सरकार चाहे तो यह बजट पूरी तरह बदला भी जा सकता है। कहने का मतलब यह है की यह बजट के साथ-साथ एक ऐसा जरिया भी है जिसके सहारे सरकार जनता से वायदा भी करे और वायदा खिलाफी भी कर जाए।
हम यहां देश के अन्नदाता यानी किसानों से जुड़े बजट के हिस्से परबात करते हैं।
कार्यवाहक वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने लोकसभा में कहा कि हमारी सरकार ने किसानों की आय दोगुनी करने के लिए इतिहास में पहली बार सभी 22 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत से कम से कम 50 फीसदी तय किया है। इस बयान की हकीकत यह है कि यह सिर्फ समां बाँधने का तरीका है। मोदी जी ने किसानों की दोगुनी आय वाली बात साल 2016 में कही थी और तब सरकार के पास कामकाज के लिए काफी समय बाकी था। तब से लेकर अब तक सरकार ने इसे लागू करने के लिए एक योजना तक कागज पर प्रस्तुत नहीं की है।
अगर 2023 तक भी किसान की आमदनी दोगुनी करनी है तो किसान की आय 10.4 फीसदी की सलाना रफ्तार से बढ़नी चाहिए। लेकिन पिछले चार साल में किसान की आमदनी सिर्फ 2.2 सलाना की दर से बढ़ी है। इस हिसाब से अगर किसान की आय दोगुनी करने में 6 नहीं, कम से कम 25 साल लगेंगे। चुनाव जीतने के बाद लागत से 50 फीसदी अधिक समर्थन मूल्य से भाजपा साफ़ मुकर गयी। मोदी सरकार ने फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे दिया कि ऐसा करना मुश्किल है। इसलिए ऐसा लाभकारी मूल्य किसी भी फसल को नहीं मिला है। साथ में यह भी हकीकत है कि सरकार किसानी लागत स्वामीनाथन आयोग के द्वारा दिए गए अनुशंसाओं के तहत नहीं कर रही है। जिसकी मांग किसानी संघर्ष से जुड़े लोग कर रहे हैं। अभी हाल ही जिस लागत से फसल की कीमत तय की जाती है, उस लागत से भी धान की कीमत 2340 रुपये होना चाहिए था लेकिन यह केवल 1750 रुपये ही है। इस तरह से निर्धारित समर्थन मूल्य से कम फसल का मूल्य मिलने की वजह से महारष्ट्र में तिलहन के किसानों को तकरीबन 1125 करोड़ रुपये का नुकसान का सामना करना पड़ा है।
इस बजट की सबसे बड़ी खबर किसानों से ही जुड़ी है। इस बजट में मोदी सरकार ने वादा किया है कि 2हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानों को 6000 रुपये सालाना की डायरेक्ट सहायता 2000 रुपये की तीन किस्तों में दी जाएगी। इसके लिए सरकार ने इस साल के लिए 75000 करोड़ रुपये की व्यवस्था की है।पहली नज़र में यह योजना बहुत आकर्षक लगती है। लगता है जैसे कि किसानों के संघर्ष को कुछ तो मिला। लेकिन धीरे-धीरे इस योजना की पोल भी खुल जाती है।यहां यह समझने वाली बात है कि यह सहायता सभी किसानों को नहीं मिलेगी।किसानों का एक बहुत बड़ा वर्ग भूमिहीन है। आदिवासी किसानों की जमीन पट्टे पर ही है। इनके पास जमीन का मालिकाना हक नहीं है। बहुत सारे किसान दूसरे के जोत में जाकर काम करता है। उसे इस योजना कोई फायदा नहीं होने वाला है।
अभी तक सरकार के पास ऐसे कोई आंकड़ा नहीं है जिससे यह पता चला कि 2 हेक्टयेर से कम जोत कितने हैं। सरकार के पास ऐसा कोई मैकेनिज्म नहीं है जिससे उन किसानों को टारगेट किया जा सके जिनकी जोत 2 हेक्टयेर से कम है। इस योजना की तुलना तेलंगाना के रायतु बंधु योजना से की जा रही है। जबकि रायतु बंधु योजना में हर किसान को सलाना 10 हजार मिलता है।इस तरह से इस योजना के तहत 2 हेक्टेयर यानी पांच एकड़ पर 50 हजार मिलता है। इसलिए केवल 6000 रुपये की सरकारी सहायता, 1 लाख लागत लगाकर फसल उगाने वाले किसान की सहायता के लिए मजाक की तरह लगता है। और सच्चाई यह है कि इन सबसे निपटने के लिए सरकार के पास केवल 3 महीने हैं और तीन महीने में उसे इस योजना पर तक़रीबन 20 हजार करोड़ खर्च करने हैं।
इस योजना पर किसानों के बीच काम करने वाले योगेंद्र यादव का कहना है “प्रधानमंत्री किसान सम्मान के नाम पर किसानों को प्रति वर्ष 6000 रुपये देने की घोषणा की गई, सरल भाषा में कहा जाए तो अगर 5 लोगों का परिवार है तो, प्रति व्यक्ति ₹3.33 प्रतिदिन। मोदी जी आप चाय पर चर्चा कराने में माहिर हैं। कम से कम चाय का तो दाम दे देते।”
वित्त मंत्री ने किसान कर्ज पर ब्याज सब्सिडी की भी बात की। लेकिन यह ब्याज सब्सिडी की बात केवल उस समय के लिए की गयी है जब किसान गंभीर प्राकृतिक आपदा से ग्रस्त हो और तब, जब इस प्राकृतिक आपदा की वजह से सरकार किसान कर्ज की ब्याजदर को निर्धारित करने का फैसला लेती है। इस सहायता में घालमेल यह है कि हमारी सरकारें किसानों को प्राकृतिक आपदाओं की वजह से होने वाली हानि की घोषणा करने में बहुत लापरवाही दिखाती हैं।किसान प्राकृतिक आपदा से परेशान रहता है और सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता है। इस सहायता से आकलन यह है कि केवल 1 फीसदी किसानों को ही फायदा पहुँच सकता है।
मंत्री जी ने कहा कि यह सरकार गौ संरक्षण और उन्नयन के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार है। लेकिन इस सरकार से पूछना चाहिए कि यह सरकार उन किसानों के लिए क्या कर रही है जिन किसानों की वजह से गौ संरक्षण हो पाता है। न ही यह सरकार आवारा पशुओं की परेशानी को हल करने के लिए तैयार है। इस सरकार में गाय से जुडी हर नीति की वजह से आवारा गोवंश की समस्या बढ़ती जा रही है। पिछले साल के बजट में दुग्ध अवसंरचना के विकास के लिए इस सरकार ने तकरीबन साढ़े दस हजार करोड़ रूपये की व्यवस्था की थी। उसमें से इस सरकार ने केवल 440 करोड़ रुपये का बंटवारा किया और इस बार फिर राष्ट्रीय गोकुल मिशन योजना पर साढ़े सात सौ करोड़ की व्यवस्था कर दी है।
जब सरकार का कार्यकाल जल्द ही समाप्त हो रहा है, तो किसानों को उम्मीद थी कि सरकार आगे की नई योजनाओं की घोषणा करने के बजाय पहले की योजनाओं और घोषणाओं के सही परिणाम पेश करेगी। कुछ योजनाओं के आउटपुट के आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि सरकार यह करने से क्यों डर गयी।प्रधानमंत्री कृषि बीमा योजना में, लक्ष्य उत्पादन 50% खेत जोतने का कवरेज था, लेकिन वास्तविक कवरेज 2016-17 में 29% से गिरकर 2017-18 में 24% हो गया और 2018-19 में और कम हो गया। 22,000 ग्रामीण हाटों को पूरी तरह सुसज्जित कृषि बाजारों में परिवर्तित करना बजट 2018-19 में प्राथमिकता के रूप में घोषित किया गया था। लेकिन अभी तक केवल 85 पूर्ण हुए हैं और 180 प्रगति पर हैं। उपर्युक्त डेयरी विकास कोष के अलावा, 2430 करोड़ रुपये के पशुपालन विकास कोष की घोषणा की गई थी लेकिन इसे एक वर्ष के बाद भी स्थापित नहीं किया गया है।
किसानों को इस बजट से अपने सबसे महत्वपूर्ण सवालों के जवाब नहीं मिले, जैसे आय, मूल्य, बीमा, और ऋणग्रस्तता। सरकार ने घोषणा की कि कृषि आय 6 साल में दोगुनी हो जाएगी। आधे रास्ते में, आय में कितना सुधार हुआ है? ये नहीं बताया गया, जबकि मंत्री ने एमएसपी में ऐतिहासिक बढ़ोतरी के बारे में बात की। जब PM-AASHA योजना यह सुनिश्चित करने वाली थी कि सभी किसानों को MSP मिले, तो इसे केवल 1500 करोड़ का आबंटन क्यों मिला?
अंत में यह समझना जरूरी है कि सरकार का अंतिम बजट है, जिसमे उसे हकीकत में काम करने के लिए केवल तीन महीने हैं। और इस बजट के सहारे चुनावी हवाई किले बनाने की पूरी छूट है। इसलिए इस बजट में तकरीबन सात लाख करोड़ का राजकोषीय घाटे का अनुमान है। ऐसे में इस बजट की बातें जमीन पर कैसे लागू हो पाएंगी यह अनुमान लगाना कठिन हो रहा है, किसानों की बात तो बहुत दूर है।
अजय कुमार का यह आर्टिकल न्यूजक्लिक से साभार लिया गया है।
हम यहां देश के अन्नदाता यानी किसानों से जुड़े बजट के हिस्से परबात करते हैं।
कार्यवाहक वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने लोकसभा में कहा कि हमारी सरकार ने किसानों की आय दोगुनी करने के लिए इतिहास में पहली बार सभी 22 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत से कम से कम 50 फीसदी तय किया है। इस बयान की हकीकत यह है कि यह सिर्फ समां बाँधने का तरीका है। मोदी जी ने किसानों की दोगुनी आय वाली बात साल 2016 में कही थी और तब सरकार के पास कामकाज के लिए काफी समय बाकी था। तब से लेकर अब तक सरकार ने इसे लागू करने के लिए एक योजना तक कागज पर प्रस्तुत नहीं की है।
अगर 2023 तक भी किसान की आमदनी दोगुनी करनी है तो किसान की आय 10.4 फीसदी की सलाना रफ्तार से बढ़नी चाहिए। लेकिन पिछले चार साल में किसान की आमदनी सिर्फ 2.2 सलाना की दर से बढ़ी है। इस हिसाब से अगर किसान की आय दोगुनी करने में 6 नहीं, कम से कम 25 साल लगेंगे। चुनाव जीतने के बाद लागत से 50 फीसदी अधिक समर्थन मूल्य से भाजपा साफ़ मुकर गयी। मोदी सरकार ने फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे दिया कि ऐसा करना मुश्किल है। इसलिए ऐसा लाभकारी मूल्य किसी भी फसल को नहीं मिला है। साथ में यह भी हकीकत है कि सरकार किसानी लागत स्वामीनाथन आयोग के द्वारा दिए गए अनुशंसाओं के तहत नहीं कर रही है। जिसकी मांग किसानी संघर्ष से जुड़े लोग कर रहे हैं। अभी हाल ही जिस लागत से फसल की कीमत तय की जाती है, उस लागत से भी धान की कीमत 2340 रुपये होना चाहिए था लेकिन यह केवल 1750 रुपये ही है। इस तरह से निर्धारित समर्थन मूल्य से कम फसल का मूल्य मिलने की वजह से महारष्ट्र में तिलहन के किसानों को तकरीबन 1125 करोड़ रुपये का नुकसान का सामना करना पड़ा है।
इस बजट की सबसे बड़ी खबर किसानों से ही जुड़ी है। इस बजट में मोदी सरकार ने वादा किया है कि 2हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानों को 6000 रुपये सालाना की डायरेक्ट सहायता 2000 रुपये की तीन किस्तों में दी जाएगी। इसके लिए सरकार ने इस साल के लिए 75000 करोड़ रुपये की व्यवस्था की है।पहली नज़र में यह योजना बहुत आकर्षक लगती है। लगता है जैसे कि किसानों के संघर्ष को कुछ तो मिला। लेकिन धीरे-धीरे इस योजना की पोल भी खुल जाती है।यहां यह समझने वाली बात है कि यह सहायता सभी किसानों को नहीं मिलेगी।किसानों का एक बहुत बड़ा वर्ग भूमिहीन है। आदिवासी किसानों की जमीन पट्टे पर ही है। इनके पास जमीन का मालिकाना हक नहीं है। बहुत सारे किसान दूसरे के जोत में जाकर काम करता है। उसे इस योजना कोई फायदा नहीं होने वाला है।
अभी तक सरकार के पास ऐसे कोई आंकड़ा नहीं है जिससे यह पता चला कि 2 हेक्टयेर से कम जोत कितने हैं। सरकार के पास ऐसा कोई मैकेनिज्म नहीं है जिससे उन किसानों को टारगेट किया जा सके जिनकी जोत 2 हेक्टयेर से कम है। इस योजना की तुलना तेलंगाना के रायतु बंधु योजना से की जा रही है। जबकि रायतु बंधु योजना में हर किसान को सलाना 10 हजार मिलता है।इस तरह से इस योजना के तहत 2 हेक्टेयर यानी पांच एकड़ पर 50 हजार मिलता है। इसलिए केवल 6000 रुपये की सरकारी सहायता, 1 लाख लागत लगाकर फसल उगाने वाले किसान की सहायता के लिए मजाक की तरह लगता है। और सच्चाई यह है कि इन सबसे निपटने के लिए सरकार के पास केवल 3 महीने हैं और तीन महीने में उसे इस योजना पर तक़रीबन 20 हजार करोड़ खर्च करने हैं।
इस योजना पर किसानों के बीच काम करने वाले योगेंद्र यादव का कहना है “प्रधानमंत्री किसान सम्मान के नाम पर किसानों को प्रति वर्ष 6000 रुपये देने की घोषणा की गई, सरल भाषा में कहा जाए तो अगर 5 लोगों का परिवार है तो, प्रति व्यक्ति ₹3.33 प्रतिदिन। मोदी जी आप चाय पर चर्चा कराने में माहिर हैं। कम से कम चाय का तो दाम दे देते।”
वित्त मंत्री ने किसान कर्ज पर ब्याज सब्सिडी की भी बात की। लेकिन यह ब्याज सब्सिडी की बात केवल उस समय के लिए की गयी है जब किसान गंभीर प्राकृतिक आपदा से ग्रस्त हो और तब, जब इस प्राकृतिक आपदा की वजह से सरकार किसान कर्ज की ब्याजदर को निर्धारित करने का फैसला लेती है। इस सहायता में घालमेल यह है कि हमारी सरकारें किसानों को प्राकृतिक आपदाओं की वजह से होने वाली हानि की घोषणा करने में बहुत लापरवाही दिखाती हैं।किसान प्राकृतिक आपदा से परेशान रहता है और सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता है। इस सहायता से आकलन यह है कि केवल 1 फीसदी किसानों को ही फायदा पहुँच सकता है।
मंत्री जी ने कहा कि यह सरकार गौ संरक्षण और उन्नयन के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार है। लेकिन इस सरकार से पूछना चाहिए कि यह सरकार उन किसानों के लिए क्या कर रही है जिन किसानों की वजह से गौ संरक्षण हो पाता है। न ही यह सरकार आवारा पशुओं की परेशानी को हल करने के लिए तैयार है। इस सरकार में गाय से जुडी हर नीति की वजह से आवारा गोवंश की समस्या बढ़ती जा रही है। पिछले साल के बजट में दुग्ध अवसंरचना के विकास के लिए इस सरकार ने तकरीबन साढ़े दस हजार करोड़ रूपये की व्यवस्था की थी। उसमें से इस सरकार ने केवल 440 करोड़ रुपये का बंटवारा किया और इस बार फिर राष्ट्रीय गोकुल मिशन योजना पर साढ़े सात सौ करोड़ की व्यवस्था कर दी है।
जब सरकार का कार्यकाल जल्द ही समाप्त हो रहा है, तो किसानों को उम्मीद थी कि सरकार आगे की नई योजनाओं की घोषणा करने के बजाय पहले की योजनाओं और घोषणाओं के सही परिणाम पेश करेगी। कुछ योजनाओं के आउटपुट के आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि सरकार यह करने से क्यों डर गयी।प्रधानमंत्री कृषि बीमा योजना में, लक्ष्य उत्पादन 50% खेत जोतने का कवरेज था, लेकिन वास्तविक कवरेज 2016-17 में 29% से गिरकर 2017-18 में 24% हो गया और 2018-19 में और कम हो गया। 22,000 ग्रामीण हाटों को पूरी तरह सुसज्जित कृषि बाजारों में परिवर्तित करना बजट 2018-19 में प्राथमिकता के रूप में घोषित किया गया था। लेकिन अभी तक केवल 85 पूर्ण हुए हैं और 180 प्रगति पर हैं। उपर्युक्त डेयरी विकास कोष के अलावा, 2430 करोड़ रुपये के पशुपालन विकास कोष की घोषणा की गई थी लेकिन इसे एक वर्ष के बाद भी स्थापित नहीं किया गया है।
किसानों को इस बजट से अपने सबसे महत्वपूर्ण सवालों के जवाब नहीं मिले, जैसे आय, मूल्य, बीमा, और ऋणग्रस्तता। सरकार ने घोषणा की कि कृषि आय 6 साल में दोगुनी हो जाएगी। आधे रास्ते में, आय में कितना सुधार हुआ है? ये नहीं बताया गया, जबकि मंत्री ने एमएसपी में ऐतिहासिक बढ़ोतरी के बारे में बात की। जब PM-AASHA योजना यह सुनिश्चित करने वाली थी कि सभी किसानों को MSP मिले, तो इसे केवल 1500 करोड़ का आबंटन क्यों मिला?
अंत में यह समझना जरूरी है कि सरकार का अंतिम बजट है, जिसमे उसे हकीकत में काम करने के लिए केवल तीन महीने हैं। और इस बजट के सहारे चुनावी हवाई किले बनाने की पूरी छूट है। इसलिए इस बजट में तकरीबन सात लाख करोड़ का राजकोषीय घाटे का अनुमान है। ऐसे में इस बजट की बातें जमीन पर कैसे लागू हो पाएंगी यह अनुमान लगाना कठिन हो रहा है, किसानों की बात तो बहुत दूर है।
अजय कुमार का यह आर्टिकल न्यूजक्लिक से साभार लिया गया है।