अपनी अपनी चिंताएं: कोई गाय को पालक खिलाने को चिंतित है तो कोई कश्मीर को लेकर

Written by Mithun Prajapati | Published on: September 17, 2019
रात के करीब 11 बज चुके थे। सड़क खाली थी। यहां तक कि गायें भी नजर नहीं आ रही थी। मार्केट की दुकानें लगभग बन्द हो चुकी थीं। वह पुलिस वाला भी जा चुका था जो बिना हेलमेट वालों को चालान का डर दिखाकर पैसा ऐंठ रहा था। मैं दुकान पर बैठा फेसबुक निहारता देश की सम्याओं पर चिंतित हुआ जा रहा था। अचानक एक नई कार का ब्रेक दुकान के सामने लगा। मैंने मोबाइल छोड़ उस कार की तरफ न चाहते हुए भी देख लिया। एक लंबा सा व्यक्ति कार से निकला और पूछा- भैया पालक है क्या? 



उसके पूछने के अंदाज और चेहरे की मायूसी से कोई भी आसानी से समझ सकता था कि यह व्यक्ति पालक के लिए कब से भटक रहा है और बहुत उम्मीद लेकर यहां पहुंचा है। 

मैंने मोबइल को जेब के हवाले किया और दुःख जताने वाले अंदाज में कहा- सर पालक तो खत्म हो गयी है। कुछ और सब्जी ले लीजिये।

यह जानकर उसका मायूस चेहरा और मायूस हो गया। मैंने इतनी उदासी इसके पहले नोटबन्दी के दौरान उन व्यक्तियों के चेहरे पर देखी थी जिनका नम्बर आने से पहले एटीएम में पैसे खत्म हो जाया करते थे। 

वह व्यक्ति लटके हुए मुंह से बोला- बड़ी उम्मीद लेकर यहां आया था। बहुत ढूंढा पर पालक न मिल रही। दुकानें सब बन्द हो गयी हैं। कहीं मिल सकती है क्या?

मुझे लगा हो सकता है घर मे कोई बीमार हो और डॉक्टर ने पालक खाने की सलाह दी हो। या यह भी हो सकता है कि इनका मन ही हो गया हो कि आज पालक ही खाना है। हो भी सकता था। अमीर लोग हैं जो मन में आ जाता है करते ही हैं। मैं एक अमीर को जानता हूँ उन्होंने एक बार नौकर से बारिश के सीजन में नई आलू खाने की बात कही थी। नौकर बेचारा ढूंढता रहा पर नई आलू कहीं न मिली और वह नौकरी से दूसरे दिन निकाल दिया गया।

वह मेरी तरफ उम्मीद से देख रहे थे। जैसे वो कश्मीर हों और मैं शेष भारत। उन्हें उम्मीद थी कि मैं पालक मिलने मे उनकी पूरी मदद करूँगा। पर मैंने उन्हें कहा- सर इस समय तो बहुत मुश्किल है। 

वह बोले- कहीं किसी के पास तो होगा। जो दुकान बंद करके चले गए हैं उनके पास हो सकता है। किसी का फोन नम्बर हो तो आप एक बार फोन करके पता कर लो न प्लीज।

उसकी बात में जो प्लीज शब्द था वह बड़ी उम्मीदों से कहा गया था। मैं अबतक फ़ेसबुक से बाहर आ चुका था। मेरी चिंता अब कश्मीर मे चला आ रहा 41 दिन कर्फ्यू या वहां के नागरिकों के हालात या चिन्मयानंद की गिरफ्तारी नहीं थी। मुझे बस अब एक ही चिंता थी कि मेरे सामने खड़े व्यक्ति को जो कुछ ही वक़्त पहले मेरे सामने आया उसे रात के करीब 11 बजे मैं पालक कैसे उपलब्ध करवाऊं?

मैंने अपने पहचान के कई भाजीवालों को फोन लगाया। सबने कहा कि पालक नहीं बची है। यदि कोई कहता कि उसकी दुकान में पालक पड़ी है तो मैं निकालकर किसी तरह उस व्यक्ति को पकड़ा देता। पर ऐसा हो न सका। मैंने आखिरी बचे भाजी वाले व्यक्ति को फोन लगाया जिसका नम्बर मेरे पास था। उसने कहा- पालक तो है पर थोड़ी गली हुई है। खाने लायक नहीं है। 
मैने यह बात मेरे सामने खड़े व्यक्ति को बताई जो मेरी बात पर ही ध्यान लगाए था। उसने कहा- अरे भाई ला दो। कैसा भी चलेगा। गाय को ही तो खिलाना है।

गाय शब्द कान में पड़ते ही मेरा माथा ठनका। मैं जिस व्यक्ति की चिंता को दूर करने के लिए रात को लोगों के पास फोन लगाये जा रहा हूँ उसकी चिंता यह है कि गाय को पालक मिल जाए। अब जिस व्यक्ति पर इतनी देर से दया आ रही थी अब उसपर मैं खीझने लगा। पर मैंने अपने आप को सम्भाला और कहा- सर गाय को सड़ा हुआ पालक खिलाएंगे तो कुछ हो नहीं जाएगा? 

उन्होंने कहा- अरे यार तुम पालक का जुगाड़ करो बस। जो गाय प्लास्टिक और कचरा हजम कर जाती है उसको गला हुआ पालक क्या नुकसान पहुंचा पायेगा। वैसे भी गाय भूखी होगी तो खा लेगी।

उनके तर्क में दम था। मैंने जिसको फोन लगाया था उसकी दुकान से पालक लाकर उनको पकड़ा दिया। वे गाड़ी मे बैठे खुशी से आगे बढ़ गए।

वे चले गए। मैं बैठा  यह मनन कर रहा था कि सबकी अपनी चिंताएं हैं। कोई कश्मीर मे चले आ रहे कर्फ़्यू को लेकर चिंतित है तो कोई गाय को पालक खिलाने को लेकर। अपनी अपनी चिंताएं हैं।

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