जसिन्ता केरकेट्टा ने गाँधी पीस फाउंडेशन में दिए अपने वक्तव्य
मैं झारखंड के उरांव आदिवासी समूदाय से आती हूं और हिंदी में कविताएं लिखती हूं। मैं हिंदी में कविताएं लिखती हूं इसलिए आदिवासी साहित्य की परिभाषा गढ़ने वाले लोगों के अनुसार मेरी कविताओं का टोन आदिवासी न होकर सवर्ण है। दलित समूदाय के बीच जब होती हूं तो वे मुझे दलित कवि कहते हैं। हिंदी भाषा में लिखने-पढ़ने वालों के बीच होती हूं तो वे मुझे आदिवासी कवि कहते हैं।
मैं कई बार सोचती हूं कि साहित्य में मैं दलित हूं, आदिवासी हूं, हिंदी कवि हूं या क्या हूं? जेएनयू में कविता पाठ के दौरान हिंदी के आदिवासी प्रो. ने कहा कि आप आदिवासी हैं लेकिन आपकी कविताओं में मुख्यधारा की शैली का प्रभाव है। मैंने उनसे कहा कि आदिवासी शैली क्या है? उन्होंने कहा कि अपने पूर्वजों को पढ़िए। तब मैं सोचने लगी कि पूरखों ने तो लिखा नहीं, उन्होंने तो गाया और उनके गीतों में जो मूल्य थे, जो बात थी, जो पीड़ा थी वह आज भी आदिवासी कवियों, लेखकों की रचनाओं में है। हां शैली में परिवर्तन हुआ है लेकिन इतने सालों में जब पूरे आदिवासी समूदाय की जीवनशैली में परिवर्तन आया है तब सिर्फ कवियों व लेखकों की लेखन शैली पर सवाल उठाना कितना उचित है? क्या यह देखना ज्यादा जरूरी नहीं कि आदिवासी लेखक, कवि नए तरीके से क्या लिख रहे हैं?
नई पीढ़ी की कविताओं की आत्मा क्या है? इस पर कोई बहस नहीं होती। हिंदी में लिखने के बाद भी हिंदी भाषी हमारी जाति से ही संबोधित करते हैं। और आदिवासी समूदाय के कुछ प्रबुद्ध जन इसे नकारते हैं। नई पीढ़ी के लेखक और कवि, खासकर जो आदिवासी समूदायों से आ रहे हैं उनके सामने समस्या हैं कि उनकी परिभाषा किस तरह से गढ़ी जा रही है। जब आदिवासी कवि या लेखक अपनी रचनाओं के जरिए अपने समाज की वकालत करता है, इसकी बातों को सामने रखता है, तब वह खुश होता है जब उसके नाम के आगे उसका उपनाम भी जुडा होता है, ताकि यह स्पष्ट हो कि कोई आदिवासी ही अपने समाज की बातें रख रहा है। पर, क्या कविताएं जातियों का प्रतिनिधित्व करने के लिए जन्मती हैं? वे तो जाति, धर्म, काल और देश की सीमाओं के पार जाती हैं। पूरी पृथ्वी की बात करती हैं और समस्त मानव-जाति और उसकी मनुष्यता की बात कहती हैं।
हम जातियों, सीमाओं को तोड़ने की बात करते हैं फिर साहित्य में हर जाति, धर्म के लिए एक कोना क्यों तय करते हैं? और यह कोना तय करने का काम कौन कह रहा है? सबको सबके हिस्से की जमीन देने की बात कौन कर रहा है?
आज साहित्य में कई कार्यक्रम हो रहे हैं। उनमें से कई तो मृत विषयों पर होते रहते हैं। जब देष का आधा हिस्सा संघर्षरत है, शोषित है। उनपर गोलियां चल रहीं है, प्रतिरोध की आवाज के सिर पर, पीठ पर , जांग पर गोलियां दागी जा रहीं हैं, ठीक उसी समय दूसरे हिस्सों में बैठे लोग प्राचीन विषयों पर कार्यक्रम चला रहे हैं। तब लगता है साहित्य का गहरा जुड़ाव संवेदनाओं से तो है, पर ये संवेदनाएं जीवंत विषयों के लिए पैदा न हो तो साहित्य किस काम का है? कई बार लगता है कि जीवंत विषयों पर संवेदनाएं पैदा न हो इसकी भी लगातार कोशिश हो रही है।
मेरे कुछ मित्रों को लगता है कि कविताओं में मेरी जो पहचान है वह मेरे लेखन की वजह से नहीं बल्कि मेरे आदिवासी होने की वजह से है या फिर मेरे स्त्री होने के कारण। लेकिन मेरी कविताएं सुनते वक्त हाॅल के आधे से अधिक लोगों की आंखों में मैंने आंसू देखें हैं, अलग-अलग जाति, धर्म के लोगों की जुड़ती संवेदनाएं देखी हैं। तब सोचती हूं कि ये आसूं की बूंदें, ये जुड़ती संवेदनाएं क्या सिर्फ मेरे आदिवासी होने की वजह से हैं या सिर्फ मेरे स्त्री होने की वजह से? क्या यह कविताओं की अपनी ताकत नहीं है?
मैं आज भी याद करती हूं। जब गांव से रांची आई तो यहां हमारी हालत भूखों मरने वाली थी। पैसे मांग-मांग कर पढ़ाई की। पढ़ाई के बाद बड़ी समस्या थी कि अब कहां रहे, क्या खाएं। दुकानों में काम की तलाष में चक्कर लगा रही थी। छोटी बहनें साथ में थी और उनकी काॅलेज की फीस के लिए काफी पैसों की जरूरत पड़ी तब एक आदिवासी बुद्धिजीवी से कुछ आर्थिक सहयोग मांगा। तब उन्होंने साफ कहा कि पुरूषों की जात एक होती है। बदले में कुछ देंगे तो तुम्हें भी देना होगा। उन्होंने मुझे एक सलाह भी दी यदि तुम नहीं चाहती हो तो अपनी छोटी बहनों को भेज दो।
ऐसे समय में मुंबई के एक व्यक्ति जिनसे इंटरनेट पर थोड़ी-बहुत बातचीत हो जाती थी । जब उन्हें परिस्थिति का पता चला तो उन्होंने तुंरथ हमारी मदद की। वे आदिवासी नहीं हैं। आज तक मैंने उन्हें कभी नहीं देखां, कभी भी नहीं मिली। आज भी संपर्क में है। पर्व-त्योहारों पर हमें आज भी शुभकामनाएं भेजते हैं और खुश होते हैं कि जिन लड़कियों की उन्होंने मदद की वे अब अपना रास्ता खुद बना रहीं हैं।
ऐसी कुछ घटनाओं से गुजरने के बाद मैं सोचने लगी असल में यह जात-पांत क्या है जिससे हमारा भरोसा बंधा होता है। यही इसी समाज के अंदर अपने ही लोग अपनी बहनों को धंधे पर बिठा देने से गुरेज नहीं करते। क्या है यह पुरूषों की जात, स्त्रियों की जात, दलितों, आदिवासियों, सवर्णो की जात। आदिवासी समाज जाति से नहीं जाना जाता। वह एक व्यवस्था है। लेकिन कैसे उसी समूदाय से निकले खाते-पीते लोग आपको बताते हैं कि उनकी असल जात क्या है? फिर लगा कि इतने जातों में हम बंटे हैं कि ठीक-ठीक, पूरे इंसान नहीं हो पा रहे। अपनी नैसर्गिक अच्छाईयों के साथ जी नहीं पा रहे। एक नहीं हो पा रहे, साथ खड़े नहीं हो पा रहे, साथ लड़ नहीं पा रहे।
हर जाति और समाज में स्वार्थी और अपना मतलब देखने वाले लोग भरे पड़े हैं। यह एक अलग संस्कृति है जिसकी कोई जाति नहीं होती उसमें हर जाति के लोग शामिल हो सकते हैं। वे मजबूत हैं और एकजुट हैं। जाति के भीतर जाति है। फिर प्रतिरोध और पीड़ा की कैसी जाति? ऐसे में हर जाति व समाज के वैसे लोगों के साथ, जो नैसर्गिक अच्छाई और सच्चाई के पक्ष में खडा होना चाहते हैं, मिलकर लडना क्या श्रेयस्कर नहीं होगा? बस यहीं और इसी सवाल के साथ एक कविता
राष्ट्रगान बज रहा है
मेरी सोच के भीतर
अचानक बज उठा है राष्ट्रगान
और मैं खड़ा हूं
राष्ट्रद्रोही कहलाने के डर से
सावधान की मुद्रा में।
ठीक इसी समय दीमकों का झुंड
घुस आया है मेरे भीतर
मेरी देह को मिट्टी का टिला समझ
खोखला करता हुआ मुझे
और मैं चीखने में असमर्थ
खड़ा हूं सावधान की मुद्रा में ।
प्रतिरोध की हजारों आवाजें
कमर कस रही होती हैं
घरों से बाहर निकल आने को
कि ठीक उसी समय
बज उठता है राष्ट्रगान
घरों के भीतर।
जैसे कोई खौफनाक आवाज
हर आदमी के पीछे
गरदन पर बंदूक की नोक टिकाए
गूंजी हो अभी-अभी
जो जहां खड़ा है रूक जाए वही
सावधान की मुद्रा में।
राष्ट्रगान बज रहा है
मैं खड़ा हूं तनकर
और दीमकों का झुंड
मेरी देह के अंदर नाच रहा है
हर राजद्रोह से मुक्त।
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