भारत में 1000 चोटी की कंपनियों में 25 परसेंट ऐसी हैं जिनकी बाज़ार पूंजी मोदी राज के 5 साल में आधी से भी कम हो गई। यही नहीं इन कंपनियों पर कर्ज़ का बोझ भी काफी बढ़ गया है।
बिजनेस स्टैंडर्ड के कृष्णकांत ने 964 कंपनियों का सैंपल लिया है। 225 कंपनियां भयंकर रूप से आर्थिक परेशानी में हैं। 2014 में जितना भी कोरपोरेट लोन था उसका बड़ा हिस्सा इनमें से 144 कंपनियों ने लिया था। इन कंपनियों ने तो अपनी बाज़ार पूंजी 75 फीसदी गंवा दी है। इनका मुनाफा इतना गिर गया है कि लोन नहीं चुका पा रहे हैं। इन कंपनियों पर साढ़े आठ लाख करोड़ का कर्ज़ है।
इसी तरह का ट्रेंड अपनी वित्तीय स्थिति की रिपोर्ट करने वाली कंपनियों की संख्या में भी दिख रहा है। पिछले पांच साल में 15 प्रतिशत कंपनियों ने अपनी वित्तीय स्थिति की रिपोर्टिंग बंद कर दी। जैसे वित्त वर्ष 2018 में 2,875 कंपनियों ने अपना वित्तीय रिज़ल्ट प्रकाशित किया। 2014 में 3, 408 कंपनियों ने रिजल्ट रिपोर्ट किया था। अगर आप तुलना करें तो 2009 में 2,764 कंपनियों ने अपनी वित्तीय स्थिति रिपोर्ट की थी जो 2014 में 3,408 हो गया था। यूपीए में कंपनियों की संख्या बढ़ती है, मोदी राज के पांच साल में घट जाती है।
नरेंद्र मोदी के दौर की अर्थव्यवस्था ढलान के लिए जानी जाएगी। अच्छा होता इस तरह का विश्लेषण हिन्दी के अख़बारों में भी छपता। पाठकों में अर्थव्यवस्था को देखने का नज़रिया विकसित होता। बाकी यही सब मुद्दा चुनाव के बाद चलने वाला है इसलिए इसकी तैयारी करते रहिए। जय श्री राम के नाम पर भटकाने में भले सफल हो जाएं लेकिन नौकरी का सवाल लौट कर तो आएगा ही।
अब उन बेरोज़गारों से पूछने का समय आ रहा है जिन्होंने कहा था कि चुनाव में बेरोज़गारी मुद्दा नहीं है। सुशील मोदी ने भी कहा है कि बेरोज़गारी पर चुनाव नहीं होता है। हो सकता है दोनों सही हों मगर चुनाव के बाद तो बेरोज़गारी सवाल बनता ही होगा। इससे दोनों इंकार नहीं कर सकते हैं।
बिजनेस स्टैंडर्ड के कृष्णकांत ने 964 कंपनियों का सैंपल लिया है। 225 कंपनियां भयंकर रूप से आर्थिक परेशानी में हैं। 2014 में जितना भी कोरपोरेट लोन था उसका बड़ा हिस्सा इनमें से 144 कंपनियों ने लिया था। इन कंपनियों ने तो अपनी बाज़ार पूंजी 75 फीसदी गंवा दी है। इनका मुनाफा इतना गिर गया है कि लोन नहीं चुका पा रहे हैं। इन कंपनियों पर साढ़े आठ लाख करोड़ का कर्ज़ है।
इसी तरह का ट्रेंड अपनी वित्तीय स्थिति की रिपोर्ट करने वाली कंपनियों की संख्या में भी दिख रहा है। पिछले पांच साल में 15 प्रतिशत कंपनियों ने अपनी वित्तीय स्थिति की रिपोर्टिंग बंद कर दी। जैसे वित्त वर्ष 2018 में 2,875 कंपनियों ने अपना वित्तीय रिज़ल्ट प्रकाशित किया। 2014 में 3, 408 कंपनियों ने रिजल्ट रिपोर्ट किया था। अगर आप तुलना करें तो 2009 में 2,764 कंपनियों ने अपनी वित्तीय स्थिति रिपोर्ट की थी जो 2014 में 3,408 हो गया था। यूपीए में कंपनियों की संख्या बढ़ती है, मोदी राज के पांच साल में घट जाती है।
नरेंद्र मोदी के दौर की अर्थव्यवस्था ढलान के लिए जानी जाएगी। अच्छा होता इस तरह का विश्लेषण हिन्दी के अख़बारों में भी छपता। पाठकों में अर्थव्यवस्था को देखने का नज़रिया विकसित होता। बाकी यही सब मुद्दा चुनाव के बाद चलने वाला है इसलिए इसकी तैयारी करते रहिए। जय श्री राम के नाम पर भटकाने में भले सफल हो जाएं लेकिन नौकरी का सवाल लौट कर तो आएगा ही।
अब उन बेरोज़गारों से पूछने का समय आ रहा है जिन्होंने कहा था कि चुनाव में बेरोज़गारी मुद्दा नहीं है। सुशील मोदी ने भी कहा है कि बेरोज़गारी पर चुनाव नहीं होता है। हो सकता है दोनों सही हों मगर चुनाव के बाद तो बेरोज़गारी सवाल बनता ही होगा। इससे दोनों इंकार नहीं कर सकते हैं।