भगवान राम, राम राज्य और वनवासी समुदाय

Written by Navnish Kumar | Published on: August 8, 2020
अरसे बाद सही, भगवान राम को टेंट व तिरपाल से आजादी मिल गई हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर 5 अगस्त को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण शुरू हो गया है और भगवान राम अपने घर (राम मंदिर) में विराजमान हो गए हैं। राज सत्ता ने भगवान राम के समक्ष दंडवत होकर 'राम सबमें हैं, राम सबकें हैं' के आह्वान के साथ रामराज्य और सबको साथ लेकर चलने की बात कही हैं। लेकिन रामराज्य के इस आह्वान में भगवान राम के सबसे प्रिय (जन) वनवासी (वनाश्रित दलित, आदिवासी, टोंगिया और घुमंतू यायावर समुदाय) ही पीछे छूट गए हैं। 



सैंकडों साल से वनाश्रित समुदाय बिजली, सड़क, पानी जैसी मूलभूत बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं और टेंट-तिरपालों में रहने को मजबूर हैं। हालांकि आजादी के 6 दशक बाद ही सही देश की संसद ने इस अन्याय को महसूस किया। और सर्वसम्मति से इन समुदायों के वन भूमि पर अधिकार को मान्यता प्रदान करते हुए, वनाधिकार कानून-2006 पारित किया। यही नहीं, कानून की प्रस्तावना में ही ऐतिहासिक अन्याय का ज़िक्र कर, एक तरह से लोगो से देरी से न्याय के लिए माफी मांगी हैं और कानून पर प्रभावी अमल की प्रतिबद्धता को सार्वजनिक तौर से जाहिर किया हैं। लेकिन डेढ़ दशक होने को हैं। सैंकड़ो साल की गुलामी (ऐतिहासिक अन्याय) से निजात दिलाने का वनाधिकार कानून भी, सूचना के अधिकार (आरटीआई) जैसे जन सरोकार से जुड़े कानून की तरह, नौकरशाही के मकड़जाल में उलझकर रह गया हैं।

वनाधिकार कानून वनाश्रित दलित, आदिवासी, टोंगिया और घुमंतू यायावर वन गुर्जर समुदायों के वन भूमि पर अधिकार को मान्यता देता हैं। कानून का मकसद वनाधिकार के साथ लोगों को बसाना हैं ताकि वनाश्रित समुदाय भी आजादी के साथ सम्मान और गरिमापूर्ण जीवन जी सकें। लेकिन इस सबके उलट जंगलात महकमा अपनी पूरी ताकत लोगों को बसाने की बजाय, येन केन प्रकारेण वन भूमि से भगाने में लगा रहा हैं। इस के लिए वह न सिर्फ प्रशासन और समाज कल्याण (नोडल एजेंसी) जैसी संस्थाओं को बरगला रहा हैं बल्कि एकतरफा विस्थापन की मंशा से वनाधिकार कानून के साथ लाखों वनाश्रित परिवारों के भविष्य पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाने में जुटा है।

सहारनपुर, पश्चिमी उप्र के तराई क्षेत्र व उत्तराखंड में बड़ी संख्या में निवास कर रहे घुमंतू यायावर समुदाय यानि वन गुर्जरों की बात करें तो वनाधिकार कानून के लागू होने के 14 साल बाद भी इन हज़ारों परिवारों के दावे फार्म भरे जाना तो दूर, ज्यादातर जगहों पर  इनकी ग्राम सभाओं का गठन तक नहीं किया जा सका हैं। उल्टे, कानून की मंशा के विपरीत वन विभाग, यदा-कदा विस्थापन की बात ही करता दिखता हैं। लेकिन हकीकत में वन विभाग और ज़िला प्रशासन के पास विस्थापन का कोई ठोस रोड मैप नहीं हैं। और यह सब भी वह वनाधिकार कानून के तहत नहीं, बल्कि अवैध  तरीकों से ही करना चाह रहा हैं। मसलन, वन टोंगिया निवासी मुन्नी लाल बताते हैं कि बिना रोड मैप के विस्थापन के सुनहरे सब्जबाग दिखाकर वन महकमा और प्रशासन इन समुदायों को वनाधिकार से वंचित कर, फिर से गहरे अंधेरे में धकेल देना चाहता हैं। हरिद्वार गैंडी खत्ता और पथरी के विस्थापन से भी सबक नहीं लिया जा रहा है। जहां लोगों को जो जमीनें दी गईं, आज 3 दशक बाद भी राजस्व रिकॉर्ड में उनका इंद्राज नहीं हो सका हैं। 

यही नहीं विस्थापन, इस घुमंतू यायावर समुदाय की सांस्कृतिक विरासत और पारंपरिक व्यवसाय के लिए भी बड़ा खतरा हैं। पशुपालन के काम से जुड़ा यह समुदाय यमुनोत्री-गंगोत्री तक जाता हैं। हालांकि वर्तमान में ऊपर का रास्ता बंद हैं लेकिन वन गुर्जरों की जंगल, वन्य जीवों और प्रकृति के साथ समन्वय और सह-अस्तित्व की संस्कृति पूरी दुनिया में अनूठी हैं।
सहारनपुर में शिवालिक जंगल से वन गुर्जरों के विस्थापन की पूरी कवायद सेना की फायरिंग रेंज की आड़ में की जा रहीं हैं जो अवैद्यानिक हैं। मुन्नीलाल कहते हैं कि फायरिंग रेंज की आड़ में वन गुर्जरों की बेदखली, वनाधिकार कानून का खुला उल्लंघन हैं। कहा फायरिंग रेंज की आड़ में लोगों को कानून के बाहर, समाधान के लिए बाध्य किया जा रहा हैं। हालांकि जानकारों के अनुसार, भारतीय सेना ऐसी जगह फायरिंग (रेंज निर्माण) अभ्यास नहीं करती हैं जहां लोग रहते हो। गत वर्ष अभ्यास के दौरान रिहायशी डेरे पर गोला गिरने से एक वन गुर्जर महिला की मृत्यु हो गई थी। तब भी यह बात उठी थी। लेकिन वन विभाग इसे आपदा में अवसर के तौर पर देख रहा हैं। तभी वह न सिर्फ सेना को गुमराह कर रहा हैं बल्कि कानून का भी उल्लघंन कर रहा हैं। खास है कि इसके लिए भी समुदाय (ग्राम सभा) की सहमति नहीं ली गई हैं। 

सवाल सरकार की विस्थापन नीति यानि सेटलमेंट पालिसी का भी हैं। मसलन, प्रशासन वन गुर्जरों को किन शर्तो पर व कहां बसाना चाहता हैं। क्या राजस्व विभाग जमीन देने को राजी है। अगर हां, तो कहां, कितनी जमीन हैं। अधिसूचना हुई या नहीं। दूसरा सबसे बड़ा क्या इस (चिंहित भूमि व विस्थापन की शर्तों) पर वनाश्रित समुदायों की सहमति ली गई हैं। वनाधिकार कार्यकर्ता व अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन उप महासचिव रोमा कहती हैं कि वन निवासियों के भविष्य व उनसे जुड़ी किसी भी बात के लिए ग्राम सभाओं की सहमति जरूरी है लेकिन वन गुर्जरों के मामले में अभी ग्राम सभाओं का भी गठन नहीं हो सका हैं। जो 'सबको न्याय' की रामराज्य की धारणा के साथ वनाधिकार कानून के भी खिलाफ हैं और सरकारों की कमज़ोर इच्छाशक्ति को ही प्रदर्शित करता हैं। 

संसद से सर्वसम्मति से पारित वनाधिकार कानून पर 14 साल बाद भी प्रभावी अमल नहीं हो पाया हैं तो इसके पीछे सबसे बड़ी व हैरान कर देने वाली बात राजनीतिक दलों व नेताओ की चुप्पी हैं। ऐतिहासिक अन्याय और पीढ़ियों को न्याय का सवाल इस चुप्पी को रहस्यमय भी बना दे रहा हैं। ऐसे में वन गुर्जर समुदाय को टेंट-तिरपाल से निजात कब तक मिल पाती हैं, देखने वाली बात होगी। लेकिन इससे राजनीतिक दलों औऱ नेताओ के जन सरोकारों के साथ खड़े होने की प्रतिबद्धता की पोल बखूबी खुल जा रहीं हैं।

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