कहानी: आतंकवाद का मज़हब

Written by महेन्द्र दुबे | Published on: February 26, 2019
सुबह के आठ बजे होंगे। दिसम्बर की कड़ाके की ठण्ड और उस पर सुबह-सुबह गाँव से निकलने की मज़बूरी! अम्मा का सख़्त आदेश था, यहां घर की पूजा वो करेगी लेकिन गाँव की पूजा में मुझको जाना होगा, कुल देवता की पूजा है, बड़ा बेटा ही भोग चढ़ायेगा! मैं आँगन में खड़ी मोटर साईकल पर बैठा, शीत लहर से बचने की जुगत में मफलर से सिर और कान बांध कर निकलने की हिम्मत जुटा रहा था कि अम्मा घर से निकल आयी!

‎"अरे सुन! पूजा का सामान भूल मत जाना! तुम को तो लौटने में रात हो ही जायेगी! वो भी कोई ठिकाना नहीं है! इक़बाल को बोल भी देना! अन्धेरा होने से पहले सब सामान पहुंचा ही देगा! लाल फूल जरूर ले लेगा! और हाँ बेल पत्र साफ़-साफ़ लेगा! कटा फटा न हो"! अम्मा तेज आवाज में बोली!

मैंने मोटर साईकल स्टार्ट की और आँगन से गेट की ओर बढ़ने लगा।

"अरे सुन! गाड़ी धीरे चलाना! गाँव पहुँच के फोन कर देना! और हाँ इकबाल मियाँ जी को अच्छे से समझा देना! कुछ गड़बड़ हुई तो उनकी मुल्लागिरी आज कस के निकालूंगी" मेरे आँगन से बाहर निकल के आने तक अम्मा की आवाज और तेज हो गयी थी!

ठण्डी हवा में शरीर अकड़ा जा रहा था। मैं धीमी रफ़्तार में मोटर साईकल पर ठिठुरता हुआ इकबाल के घर के रास्ते की ओर बढ़ने लगा।

"इकबाल को इस वक़्त घर में ही होना चाहिए। सुबह की नमाज के बाद वो मस्जिद से सीधा घर निकल जाता है लेकिन फोन नहीं उठाया कटुआ! साला फोन भी तो घर छोड़ के मस्जिद जाता है! चलो उसके घर ही चलता हूँ!  मियां जी घर पर ही होंगे या घर के आसपास ही कोई मुल्ला फ़ांस रहे होंगे".... मैं उसके घर में मिलने की उम्मीद में उसके मोहल्ले की ओर बढ़ रहा था!

अभी जौहरी चौक से इकबाल के घर जाने वाली गली की तरफ मुड़ने ही वाला था कि इक़बाल सी ही जानी पहचानी आवाज सुनायी दी!

"अबे पण्डित! अबे इधर बे! पण्डित! अबे इधर देख साले बजरंगी"!

मैंने मोटर साईकल रोकी, घूम कर देखा, खान साहब चौक के कोने में धीरू की चाय गुमटी के सामने अखबार लहराते खड़े थे। मेरे गाड़ी मोड़ कर गुमटी पहुँचने तक वो अखबार में मुँह घुसाये बेंच में जम गया था।

मैं गुमटी के सामने मोटर साईकल खड़ी करके उसके बगल में बैठ गया।

"आज सुबह-सुबह यहां कैसे बे कटुआ! आज मस्जिद से ही चाय के लिए कोई मुल्ला फंसा लाये का बे"! मैं हमेशा की तरह शुरू हो गया!

वो मेरी तरफ घूमा और फिर वापस नजर अखबार में घुसाते हुए अखबार मेरी आँखों के सामने ले आया और अखबार में नजर गड़ाए-गड़ाए ही मुझे सुनाने लगा!

"अब बोल पंडित! क्या बोलता है? नाम पढ़ के सुनाऊँ? ध्रुव सक्सेना... मनीष गांधी..." इकबाल अखबार में छपी हिंदुत्ववादी संगठन और पार्टी के सदस्यों के पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी आईएसआई को मदद पहुँचाने के आरोप में गिरफ्तार किये जाने की खबर पढ़ कर मुझे सुना रहा था!

"मगर आतंकवाद का धर्म तो इस्लाम है बे! ये साले मुल्ले ही होंगे, हिन्दू नाम धरके राष्ट्रवादी पार्टी को बदनाम कर रहे है! बोल न बे पण्डित! कुछ बोलता क्यों नहीं है"!

इक़बाल फिर मेरी ओर देख कर आँख नचाने लगा!

"कट्टू साले! बड़ा खुश हो रहा है बे! अच्छा ये सब छोड़! हिन्दू हो या मुसलमान मुझे क्या बे! मरें साले! मैं गाँव जा रहा हूँ, ये लिस्ट पकड़; पूजा के सामान की लिस्ट है! अम्मा को शाम तक सब सामान पहुंचा देना! और भूलना नहीं बे! फूल चौक से बेलपत्र, फूल और आम की टेरी लेना! लाल फूल जरूर ले लेना, पत्ते साफ़-साफ़ लेना, कटे फटे न हो और याद रहे बेटा! अम्मा छह साढ़े छह तक पूजा करेगी अँधेरा होने से पहले घर पहुंचा ही देना! नहीं तो आज अम्मा तुम्हारी कटुआगिरी कस के निकालेगी"!

मैं इतना कह कर वापस मोटर साईकल पर बैठ चुका था।

"अबे पण्डित पईसा तो दे जा! ये अम्मा के नाम पर कब तक हमको लूटते रहोगे बे! हम नहीं लगाने वाले अपना पईसा! बाभनों का का भरोसा बे, फिर साले दो कि न दो। एक तो ये आरती पूजा का सामान खरीद के कुफ़्र करो, उस पर पईसा भी अपना लगाओ! धन भी जाए और धरम भी" इकबाल बोले जा रहा था! मैंने मोटर साईकल स्टार्ट की और मुस्कुराता हुआ मोटर साईकल मोड़ने लगा।‎

"अबे सुन! सुन बे पंडित! गाँव जा रहा है तो वो बजरंगी सच्चिदानन्द को आईएसआई वाली खबर जरूर सुना देना! और हाँ खान गुरूजी को मेरा सलाम कहना मत भूलना बे साले"!

मेरे निकलते निकलते वो ऊँची आवाज में इतना और बोला!

शहर की घनी आबादी से निकल कर मैं गाँव के रास्ते में पहुँच चुका था। ठण्डी हवा से नाक बहने लगी थी। मेरी रफ़्तार और भी धीमी हो गयी और मैं गाँव की यादों में उतरने लगा था।

"खान गुरुजी"! पूरा नाम अब्दुल्ला खान! मेरे और आस पास के गाँव का शायद ही कोई हमउम्र ऐसा होगा जो गुरूजी से पढ़ा न हो। लम्बी दाढ़ी, कुर्ता पायजामा, सिर पर जालीदार गोल टोपी, अक्सर होठ तक बह आयी पान की पीक और जबान से फूटने वाला पहला शब्द "बेटा"! 

गुरूजी अक्सर कहते थे कि मैं ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूँ मगर मैं उनके 'ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं होने को' आज तक समझ नहीं पाया कि वो कितना ज्यादा को 'ज्यादा' बोलते थे। उनको हिंदी उर्दू तो आती ही थी, अंग्रेजी भी जानते थे। इकबाल कहता था कि गुरूजी हाफ़िज नहीं है मगर हाफ़िज से ज्यादा जानते है। उस पर रामायण, महाभारत, बाइबिल सब पर बात कर लेते थे। रामायण तो उन्हें याद ही थी और फिर गाँव की रामायण मण्डली उनके बिना कभी जमती भी नहीं थी। 

गुरूजी को मैं जब भी याद करता हूँ मेरे सामने उनकी दो ही तस्वीर उभरती है। एक में वो दाढ़ी टोपी में मस्त हो कर हारमोनियम बजाते रामायण मण्डली के बीच में बैठे राम चरित मानस गाते दिखते हैं, और दूसरी में छड़ी पकड़े धर्मशाला के एक कमरे में हमारे बचपन में हम लोगों को पढ़ाते मिलते हैं। छड़ी से याद आ गया कि मुझसे बहुत कोशिश के बाद भी "वन्देमातरम" याद नहीं होता था, वो कई दिन तक मुझे याद कराते रहे मगर मैं आधा अधूरा ही सुना पाता था। एक दिन उन्होंने सब बच्चों को जाने दिया बस मुझे रोक लिया और छड़ी सामने रख कर सीधा हुकुम सुना दिया "बेटा आज या तो पूरा सुनाओगे या फिर ये छड़ी ही टूटेगी" बस फिर क्या था, जो गुरूजी याद न करा पाये वो सामने नाचती छड़ी के खौफ ने याद करा दिया।

मैंने घड़ी देखी! ग्यारह बज चुके थे। तीन घण्टे में मैं अपने गाँव से करीब 15 किमी पहले पड़ने वाले कस्बे आजादपुर के चौक तक ही पहुँच सका था। कस्बे के चौक के एक कोने में कोई सभा थी। तख्त के बने मंच के सामने "आजादपुर मोमिन मंच" का बैनर लगा था। कुछ हरे झन्डे बेतरतीब यहां वहां लगाये गये थे। पहनावे और इस्लामिक प्रतीकों से मुस्लिम लग रहे 20-25 मुस्लिम लड़के तख्त के आसपास खड़े थे।

मुझे चौक पर एक ठीकठाक होटल नजर आ गया तो गुरूजी के लिए मिठाई लेने के लिए मैं रुक गया। सामने तख्त के मंच पर एक दाढ़ी टोपी वाला भाषण शुरू कर चुका था। मैं होटल के सामने मोटर साईकल खड़ी करके भाषण सुनने लगा।

"ख्वातीन-ओ-हज़रात! हमारी कौम को बदनाम करने वाले इन राष्ट्रवादी हिन्दू संगठनों से अब पूछिये कि भोपाल में जो आईएसआई के एजेंट पकड़े गये है वो कौन से फिरके के, कौन से मसलक के, कौन से अक़ीदे के मुसलमान हैं... इस्लाम आतंक का धर्म है न... मुसलमान आतंकवादी हैं न... तो ये पाकिस्तान के दामाद जो निकले हैं वो किस धर्म के हैं... हमें हिन्दू भाइयों से कोई दिक्कत नहीं है वो हमारे भाई हैं, और रहेंगे... मगर ये कौन से वाले वाले हिन्दू है... इनको कौन पनाह दे रहा है... ऐसे हिंदुओं को हिंदु आतंकवादी कोई नहीं बोल रहा है लेकिन अगर भूले से भी वो मुसलमान होते तो अभी तक अखबार, टीवी, रेडियो सब चीख-चीख कर इस्लाम को आतंक का मज़हब और मुसलमानों को आतंकवादी बता रहे होते! ये अब नहीं चलेगा..." उसका बोलना जारी रहा! मैंने इतना ही सुना फिर होटल के भीतर आ गया और चाय मंगा कर पीने लगा!

"ये हिन्दू कौम बहुत हरामी होती है" मेरे पीछे वाली टेबल पर बैठकर आपस में बात कर रहे तीन लड़कों के बीच से निकल कर ये शब्द मेरे कान तक पहुंचे! मैंने उनकी ओर कान लगा दिया।

उन लड़कों की बातचीत का जितना कुछ मैं सुन पाया उसमें हिंदुओं के लिए उनके मन में बहुत नफरत दिखी। वो तीनों मुसलमानों को झूठे केसेस में फंसाने के लिए हिंदुओं को जिम्मेदार बता रहे थे, हिंदुओं को काफ़िर कह रहे थे और वो बातचीत में हिंदुओं और यहूदियों से मुसलमानों के मेल जोल को गैर इस्लामिक बता रहे थे! मैं ज्यादा देर वहां बैठ नहीं सका! होटल के काउंटर से मिठाई लेकर बाहर निकल आया और मोटर साईकल स्टॉर्ट कर गाँव की ओर निकल गया।

हिन्दू आतंकी भी होते हैं! होते होंगे! मुसलमान होते हैं तो हिन्दू क्यों नहीं होंगे? लेकिन ये हिन्दू आतंकी बन कर क्या चाहते हैं? भोपाल में पकड़े गये हिन्दू लड़के पाकिस्तान की दलाली कर रहे थे तो इसमें हिन्दू आतंकवाद घुसाने का क्या मतलब है? लेकिन यही सवाल तो उनका भी है कि कोई मुसलमान आतंकवादी है तो इसमें इस्लाम घुसाने की क्या जरूरत है? लेकिन ये लोग तो जिहाद वाले हैं, इस्लामिक शासन चाहते हैं, सभी को मुसलमान बनाना चाहते हैं! इनके धर्म में लिखा होगा लेकिन इकबाल तो... इकबाल से क्या करना है? वो तीनों लड़के भी मुसलमान ही तो थे, "हिन्दू बहुत हरामी होते हैं" यही तो कहा था उन्होंने! और हाँ मुसलमानों का हिंदुओं से मेलजोल गैर इस्लामिक है मतलब साले दिखावा करते हैं! मगर इकबाल! गुरूजी! कुछ ही अच्छे होंगे लेकिन जब बात मुसलमान और इस्लाम पर आएगी तो गुरूजी और इक़बाल भी हिंदुओं के खिलाफ ही होंगे। मतलब सब दिखावा करते हैं! मन में जहर भरे हुए हैं। कुछ लड़के क्या पकड़े गये, हिंदुओं को ही आतंकवादी बना दिए हैं साले!

मैं यही सब सोचते गांव पहुँच चुका था। मेरे भीतर धीरे-धीरे गुस्सा फूटने लगा था।

गाँव के पंचायत भवन के सामने सच्चिदानन्द अपनी खलमण्डली के साथ नजर आ गया। उसकी नजर मुझ पर पड़ गयी। रुकना पड़ा!

"दद्दा प्रणाम! कैसे हैं"? मैंने औपचारिकता पूरी कर दी।

"खुश रहो! बस चल रहा है। अपना क्या है भाई! श्रीराम की सेवा में लगे हैं। और क्या हाल है तुम्हारे अभिन्न मित्र इकबाल मियां का। बहुत सेकूलर मित्रता है भाई तुम्हारी! और हम ठहरे कम्युनल आदमी! लेकिन सच्चिदानन्द की एक बात याद रखना महराज। ये इकबाल हो या कोई और मुल्ला हो, ये काटे ऊँगली मूतने वाले नहीं है! देख रहे हो न; और फिर इनका इतिहास यही है! हिन्दुस्तान में इस्लामी इस्टेट की चाह में लाखों हिन्दुओं का कत्ल कर चुके हैं ये मुल्ले! मगर दस हिन्दु लड़के क्या पकड़े गये, अच्छे-अच्छे की सेकुलरिटी पिछवाड़े में घुस गयी है, व्हाट्सअप फेसबुक में हिंदुओं को आतंकवादी, गद्दार, हरामी कह रहे हैं! सनातनों को ललकार रहे हैं, हिन्दुस्तान में हिंदुओं को आतंकवादी गद्दार और हरामी बोला जायेगा; ये सच्चिदानन्द को कभी बर्दाश्त न होगा"! सच्चिदानन्द पूरा भाषण के मूड में थे।

"ठीक कह रहे हैं दद्दा! हमको भी समझ आ रहा है! आज्ञा दीजिये दद्दा! पूजा है घर पर! देर हो रही है"!

सच्चिदानन्द का भाषण मैं ज्यादा देर सुनना नही चाहता था, मगर जितना सुना उतने में ही मेरे भीतर उबल रहा गुस्सा नफरत में तब्दील होने लगा था।

"हिन्दू आतंकवादी होते हैं"! "हिन्दू हरामी होते हैं"! "आतंकवादी" "हरामी"! इन दो शब्दों ने मुझे अपमानित कर रखा था। मेरे भीतर नफरत भरने लगी थी। मैं पूरी तरह से हिन्दू हो चुका था! गुस्सा पूरी तरह से नफरत में तब्दील हो चुका था। मुझे हिन्दू राष्ट्र, हिन्दू और हिन्दुस्तान ही दिख रहा था! एक ही दिशा में बहा जा रहा था। पहली बार, सच्चिदानन्द मुझे सही लगने लगे थे!

मैं मोटर साईकल चलाते हुए अपने गांव से पैतृक घर की ओर बढ़ रहा था! धूप तेज हो चुकी थी। मैंने मफलर खोल कर कमर में बाँध लिया था। मैं गुरुजी के घर के पास पहुँच चुका था।

मै सोचने लगा था कि गुरुजी से मिलूं या न मिलूं?

तभी अपने घर के आँगन में गुरूजी दिख गये। उनकी नज़र मुझ पर पड़ ही गयी। वो मुझे देख कर मुस्कुराने लगे। मैं मोटर साईकल से उतर कर उनके पास पहुँच गया!

"बेटा! आज गुरुजी की याद आ ही गयी! कैसे हो! अजी सुनती हो वन्देमातरम आया है'!

वो अपनी बेगम को आवाज देने लगे।

वन्देमातरम! गुरुजी मुझे अक्सर वन्देमातरम कह कर चिढ़ाते थे।

मैं उनके पैरों की ओर झुक गया! उन्होंने मुझे झुकने नहीं दिया और गले से लगा लिया।

"बेटा! आओ भीतर आओ"! वो मुझे घर की परछी में ले आये!

"बेटा! क्या बात है? उदास लग रहे हो! क्या हुआ है! सब ठीक तो है!" वो बैठते ही बोले। गुरुजी से मेरे चेहरे का भाव छिप नहीं सका था!

मैं "कुछ नहीं गुरुजी" "कोई बात नहीं है गुरुजी" "सब ठीक है गुरुजी" जैसे चलताऊ जुमलों से गुरुजी को बहलाते हुए अपना गुस्सा और अपनी नफरत छिपाने की कोशिश कर रहा था मगर गुरुजी से छिपा नहीं पा रहा था।

गुरुजी सामने से उठकर मेरे बगल में आकर बैठ गये। मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले...

"बेटा! मेरी गोद में पल के बड़े हुए हो! तुम्हारी जबान चुप है मगर तुम्हारा चेहरा बोल रहा है! मेरे ही बेटे न हो! अपने बाप से कुछ न छुपा सकोगे! अब बोलोगे भी कि छड़ी मंगायें"!

मेरी आँखे बहने लगी और मैंने आजादपुर और सच्चिदानन्द की बात गुरुजी से कह दी।

मेरी बात सुनते सुनते गुरुजी की आँखे भर आयी थी! थोड़ी देर तक चुप होकर वो मुझे देखते रहे और फिर उठकर खड़े हो गये और बाहर आँगन में निकल कर चहलकदमी करने लगे। मैं चुपचाप बैठा रहा।

कोई पांच सात मिनट बाद गुरुजी वापस आकर मेरे सामने खड़े हो गये! और मेरी ओर देखते हुए बोले-"बेटा कुल देवता की पूजा के लिए आये हो न! तुम्हारी अम्मा तो आज की पूजा में आज ही का तोड़ा हुआ फूल और बेल पत्र चढाती है न! तुम यहां आ गये हो तो उसकी पूजा का सामान वहां कौन लायेगा"?

"इकबाल को बोल आया हूँ गुरूजी! वो ला देगा" मैंने गुरुजी को बताया!

"इकबाल ने सलाम भेजा है या नहीं"? इस बार गुरूजी की आवाज थोड़ी तेज हो गयी थी!

"जी गुरुजी सुबह ही मिला था! आपको सलाम कहने को बोला है"! मैं जवाब दिया।

गुरुजी फिर से मेरे बगल में आकर बैठ गये और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले- "फूल बेलपत्र इकबाल के लाने से वो मुसलमान हो गये क्या"?

"नहीं! गुरूजी"!

"इकबाल के तुमसे सलाम कहलवाने से उसका सलाम हिन्दू हो गया क्या"?

"बिलकुल नहीं! गुरूजी"!

"तो फिर आतंकवादी मुसलमान हो तो आतंकवाद मुसलमान और अगर हिन्दू हो तो आतंकवाद हिन्दू कैसे हो गया वन्देमातरम"? इतना बोल कर गुरूजी मुस्कुराने लगे!

मैं गुरुजी के इस तर्क के आगे बहुत बौना हो चुका था। उनकी इस आसान सी बात में इतनी ज्यादा गरमाहट थी कि मेरा गुस्सा मेरी नफरत पिघल कर मेरी आँखों से बहने लगी थी! मुझे उनकी इतनी छोटी सी बात से समझ आने लगा था कि गुरुजी इतना ज्यादा जानने को कभी ज्यादा क्यों नहीं बोलते थे!

उनका बोलना जारी था- "तुम्हारी अम्मा जब ब्याह कर गाँव आई थी तो उसे मुसलमानों से नफरत थी। तुम जब बहुत छोटे थे तब एक बार बहुत बीमार पड़ गये थे। तुम्हारे पिता जी की डयूटी लगी थी चुनाव में। तुम्हारी उल्टियाँ रुक नहीं रही थी। उस समय बिजली बत्ती भी यहां नहीं थी, रात आठ बजते बजते पूरा गाँव सो जाता था। अम्मा को जाने क्या सूझी वो तुमको गोद में उठाये रात में मेरे दरवाजे आ गयी थी। फिर मैं, बेगम और अम्मा तुमको लेकर रात में ही शहर के अस्पताल गये थे। तीन दिन तुम भर्ती रहे, बेगम तीन दिन तुम्हारी अम्मा के साथ अस्पताल रही थी! तब से अम्मा भूल गयी कि हम मुसलमान है और तुमको अब याद आ रहा है कि हम मुसलमान हैं! ये आजादपुर के तीन लौंडे और सच्चिदानन्द हिंदुस्तान नहीं हैं बेटा! हिन्दुस्तान तुम, हम, तुम्हारी अम्मा और इकबाल है। ये हमेशा हमारा रहा है, और हमेशा हमारा ही रहेगा! और बेटा! जैसे हिन्दुओं को आज आतंकवादी बोलने पर तुमको बुरा लग रहा है, अब हमारी जगह खुद को रख कर देखो! हम मुसलमानों को सालों से आतंकवादी कहा जा रहा है, हमको कैसा लगता होगा? समझ में कुछ आ रहा है वन्देमातरम"!

मेरी आँखों का बहाव तेज हो चुका था। गुरुजी ने मुझे खींच कर अपने से लिपटा लिया था।

"इ रोय काहे रहा हैय"- सामने गुरूजी की बेगम खड़ी थी।

"अब इसी से पूछो बेगम। इसको कोई कह दिया है कि हिन्दू आतंकवादी होता है, हरामी होता है तो ये हिन्दू हो गया है और सदमे में रो रहा है" गुरुजी ने अपनी बेगम को जवाब दिया!

"हाय अल्लाह! मरे हरामी अइसन कहे वाले। अरे तू हिन्दू कब से होय गया रे। तू हमार बेटा है! हमार बेटा! जबान खींच लेंगे हम जऊन हमरे बच्चे को हरामी आतंकी बोलेगा"। गुरूजी की बेगम ने मेरे दोनों हाथ पकड़ मेंरी गोद में अपना सिर रख दिया!

मैं और ज्यादा फफकने लगा और उनसे लिपट गया।

तभी मेरा मोबाइल बजने लगा।

उधर इकबाल था-"अबे पण्डित मर तो नहीं गया बे! तेरही खाने का टाइम आ गया क्या? अम्मा का सामान पहुंचा दिया है बे! बाभन 370 रुपिया लगा है कुकर! इस बार हड़पने नहीं दूंगा साले। गुरूजी से मिला कि नहीं! मेरा सलाम बोला न उनको! साले बोलता क्यों नहीं है बे! मर गया क्या! अबे सच्चिदानन्द को आईएसआई वाली खबर सुनाया कि नहीं! अबे पण्डित! क्या हुआ बे..." इकबाल बोले जा रहा था और मैंने फोन काट दिया!

मैं आंसू पोछने लगा और गुरूजी के सामने मिठाई का डिब्बा रख दिया। गुरूजी ने डिब्बा खोल कर एक मिठाई का टुकड़ा हाथ में लिया और अपनी बेगम की ओर बढाते हुए कहा-

"लो बेगम अपने इस नालायक हिन्दू बेटे को खुद ही खिला दो! वन्देमातरम" !

और मेरे बगल से उठकर सामने बैठ गये।

उनकी बेगम ने मिठाई मेरे मुँह में डाल दी।

मैं फिर से फफकने लगा और गुरूजी की बेगम मुझे थामे मेरे चुप होने तक मुझे समझाती ही रहीं!

लेखक- महेन्द्र दुबे (बिलासपुर, छत्तीसगढ़)

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