जातिवार जनगणना: हमको भी गिनो, नहीं तो गद्दी छोड़ो

Written by Jayant Jigyasu | Published on: February 21, 2020
1931 के बाद के बाद हमारे देश में कोई जातिवार जनगणना नहीं हुई। आख़िर क्या वजह है कि भारत सरकार ने अपने देश की सामाजिक सच्चाई को जानने से हमेशा मुँह चुराया? जो समाज सर्वसमावेशी नहीं होगा, उस पाखंड से भरे खंड-खंड समाज के ज़रिये अखंड भारत की दावेदारी हमेशा खोखली व राष्ट्र-निर्माण की संकल्पना अधूरी होगी। आख़िर जातिवार जनगणना की माँग क्यूं ज़रूरी है? वह इसलिए कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में अलग-अलग क्षेत्रों में ओवर-रेप्रज़ेटेड व अंडर-रेप्रज़ेंटेड लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि, उनकी आजीविका के क्षेत्र, आदि का एक हक़ीक़ी डेटा सामने आ सके जिनके आधार पर लोक कल्याणकारी योजनाओं व संविधानसम्मत सकारात्मक कार्रवाई की दिशा में तेज़ी से बढ़ा जा सके।



29 जनवरी 1953 को प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग साहित्यकार दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर की अध्यक्षता में गठित हुआ। कालेलकर ने अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को केंद्र सरकार को सौंपी थी। अपनी अनुशंसाओं में 1961 की जनगणना जातिगत आधार पर कराने, सम्पूर्ण स्त्री को पिछड़ा मानते हुए मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि में 70%, सभी सरकारी व स्वायत्तशासी संस्थाओं में प्रथम श्रेणी में 25%, द्वितीय श्रेणी में 33.33% तथा तृतीय व चतुर्थ श्रेणी में 40% आरक्षण की सिफ़ारिश कालेलकर ने की थी। यह रिपोर्ट अपने आप में अद्भुत इसलिए है कि तमाम विसंगतियों और ग़ैर बराबरी का ज़िक्र करने के बाद रिपोर्ट बनाने वाला ही आख़िर में नोट लिखता है कि इसे फिलहाल लागू नहीं किया जाए। कहते हैं कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री पंडित नेहरू ने पंडित कालेलकर की सिफारिशें ख़ारिज कर दी थी और रिपोर्ट पर कालेलकर से जबरन लिखवा लिया था कि इसे लागू करने से सामाजिक सद्भाव बिगड़ जायेगा, अतः इसे लागू न किया जाय।

फिर जब 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी, तो बीपी मंडल की अध्यक्षता में द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन हुआ। हालांकि, राम अवधेश सिंह समेत कई सांसद थे जो काका कालेलकर कमीशन की रिपोर्ट को ही लागू करने की हिमायत में खड़े थे ताकि कोई लेटलतीफ़ी व किंतु-परंतु सरकार न कर सके। मोरारजी के साथ-साथ जेपी तक को उन्होंने कठघरे में खड़ा किया जो आर्थिक आधार को कंसिडर करने की बात करने लगे थे। बहरहाल, बीपी मंडल ने 3743 जातियों को एक जमात के रूप में सामने लाया और उनकी संख्या 52 % सामने आई। इस रपट की अहम सिफ़ारिशें कुछ यूं थीं:

 पिछड़ों को सरकारी सेवाओं में 27% आरक्षण, प्रोन्नति में पिछड़ों को आरक्षण, पिछड़ों का क़ोटा न भरने पर तीन साल तक खाली रखने की संस्तुति, SC/ST की तरह ही आयु सीमा में OBC को छूट देना, SC/ST की तरह ही पदों के प्रत्येक वर्ग के लिए सम्बन्धित पदाधिकारियों द्वारा रोस्टर प्रणाली अपनाने का प्रावधान, वित्तीय सहायता प्राप्त निजी क्षेत्र में पिछड़ों का आरक्षण बाध्यकारी बनाने की सिफारिश, कॉलेज, युनिवर्सिटीज़ में आरक्षण योजना लागू करने की सिफ़ारिश, पिछड़े वर्ग को फ़ीस राहत, छात्रवृत्ति, छात्रावास, मुफ़्त भोजन, किताब, कपड़ा उपलब्ध कराने की सिफ़ारिश, वैज्ञानिक, तकनीकी व व्यावसायिक संस्थानों में पिछड़ों को 27% आरक्षण देने की सिफ़ारिश, पिछड़े वर्ग के छात्रों को विशेष कोचिंग का इंतजाम करने की सिफ़ारिश, पिछड़े वर्ग के भूमिहीन मजदूरों को भूमि देने की सिफ़ारिश, पिछड़ों की तरक्की के लिए पिछड़ा वर्ग विकास निगम बनाने की सिफ़ारिश, राज्य व केंद्र स्तर पर पिछड़ा वर्ग का अलग मंत्रालय बनाने की सिफ़ारिश एवं पिछड़ा वर्ग आयोग बनाने की सिफ़ारिश।

 सवाल है कि दलितों व आदिवासियों की गिनती तो संवैधानिक बाध्यता के चलते हर दस वर्ष में होने वाली जनगणना में हो जाती है, मगर पिछड़ों की गिनती नहीं होती। दो-दो बार हिंदुस्तान की सबसे बड़ी पंचायत में सर्वसम्मति बनी कि जातिवार जनगणना कराई जाएगी, एक बार जनता दल नीत युनाइटेड फ्रंट गवर्नमेंट में 2001 में जातिवार जनगणना कराने को लेकर, और दूसरी बार युपीए-II में 2011 की जनगणना जातिवार कराने को लेकर। पहली बार सरकार चली गई, और अटल बिहारी वाजपेयी ने उस माँग को सिरे से खारिज़ कर दिया, दूसरी बार मनमोहन सिंह के आश्वासन व कमिटमेंट के बावजूद कुछ दक्षिणपंथी सोच के नेताओं ने बड़ी चालाकी से उस संभावना को पलीता लगा दिया। जो जनगणना सेंसस कमीशन ऑव इंडिया द्वारा होनी थी, उसे चार टुकड़ों में बाँट कर सोशियो-इकोनोमिक सर्वे की शक्ल में कंडक्ट कराया गया। इसलिए तक़रीबन 4000 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी जो आँकड़े जुटाये गये, वो सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के हैं, न कि जातिवार जनगणना के, और उन आँकड़ों को भी जारी नहीं किया गया।

वो कौन-सा डर है जिसके चलते आज़ादी के बाद आज तक कोई भी सरकार कास्ट सेंसस नहीं करवा सकी, या मंशा ही नहीं थी, या मन में कोई बेईमानी थी? दरअस्ल, जैसे ही सही आँकड़े सारी जातियों के सामने आ जाएंगे, वैसे ही शोषकों द्वारा गढ़ा गया यह नैरेटिव ध्वस्त हो जाएगा कि ओबीसी ओबीसी की हक़मारी कर रहा है या ओबीसी दलित-आदिवासी की शोषक है। वे मुश्किल से जमात बने हज़ारों जातियों को फिर आपस में लड़ा नहीं पाएंगे, और हर क्षेत्र में उन्हें आरक्षण व समुचित भागीदारी बढ़ानी पड़ेगी।

मौजूदा सरकार ने एक शिगूफ़ा छोड़ा कि ओबीसी की हम गिनती कराएँगे। क्यूँ भाई, सिर्फ़ ओबीसी की ही क्यूं? हमारी स्पष्ट माँग है कि भारत की हर जाति के लोगों को गिना जाए कि कौन कितनी तादाद में हैं, और तदनुरूप उनके उत्थान के लिए नेकनीयती के साथ नीति-निर्माण किया जाए। जब गाय-घोड़ा-गदहा-कुत्ता-बिल्ली-भेड़-बकरी-मछली-पशु-पक्षी, सबकी गिनती होती है, तो इंसानों की क्यों नहीं? इसलिए हमारा नारा है, “हमको भी गिनो/ नहीं तो गद्दी छोड़ो”।

“जाति जनगणना की जो बात करेगा
वही देश पर राज करेगा।”

एक ऐसे संविधान-विरोधी सरकार के समय में जबकि अदालत फ़रमान जारी कर रही है कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है, हमें बहुत गंभीरता से न्याय की अवधारणा को ध्वस्त होने से बचाने के लिए इकट्ठे होकर आगे आना होगा। डेमोक्रेसी को कभी भी फॉर ग्रांटिड नहीं लिया जा सकता। आर.जी इगरसोल ठीक ही कहते थे, "Eternal vigilance is the price of liberty." 2021 में भारत सरकार के जनगणना आयोग द्वारा जनगणना क़ानून, 1948 के मुताबिक़ हम बाक़ायदा जातिवार जनगणना इसलिए चाहते हैं ताकि “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” की संविधानसम्मत माँग को मंजिल तक पहुँचा सकें। आइए, हम सब मिल कर जातिवार जनगणना रथ निकाल कर पूरे देश को यह संदेश दें कि हज़ारों सालों से जिनके पेट पर ही नहीं, बल्कि दिमाग़ पर भी लात मारी गई है, उनकी प्रतिष्ठापूर्ण ज़िंदगी सुनिश्चित करना इस समाज व देश के सर्वांगीण विकास के लिए वर्तमान समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है।
 

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