नीतीश की दुश्वारी का सबब: बड़े भाई से नहीं, भतीजे से खा रहे लगातार शिक़स्त

Written by Jayant Jigyasu | Published on: June 1, 2018
अररिया और जहानाबाद के उपचुनाव में जीत के बाद अब जोकीहाट विधानसभा उपचुनाव में भी महागठबंधन की जीत महज जीत नहीं है. यह लालू प्रसाद की गैरमौजूदगी में मिली विजय है. नीतीश इसलिए छटपटा रहे हैं कि RCP टैक्स के सरगना व सारी सरकारी मशीनरी लगा देने के बावजूद 41,224 मतों से उन्हें करारी शिक़स्त खानी पड़ी. परेशान इसलिए भी कि लगातार तीन बार उन्हें लालू ने नहीं, तेजस्वी ने हराया है जिन्हें वो अभी भी 'प्यार' से 'बच्चा' कहते नहीं अघाते. नींद हराम हो जाएगी सुशासन बाबू, जो कुकर्म और धोखाधड़ी आपने बिहार की जनता से किया है, वो आपको नेस्तनाबूद करके रख देगी. इ तs शुरूआत हईं, आगे-आगे देखs होखऽ तs का!



तेजस्वी ने नतीजे आते ही बड़ा ही सधा और ज़ोरदार बयान दिया है कि ये हार तलवार बाँटने वाले लोगों की हार है और ये अमनपसंद लोगों की जीत है. सचमुच जिस तरह दो लाख तलवारों की अॉनलाइन ख़रीद की बात सामने आई, उससे लोगों के बीच संदेश गया कि मुख्यमंत्री रहते हुए भी नीतीश कुमार कुछ नहीं कर पा रहे हैं. भाजपा ने इस बार उन्हें लाचार, बेबस और मजबूर सीएम के रूप में मौन धारण करने की यंत्रणा से गुज़रने के लिए छोड़ दिया है. कुछ लोग उनकी इस दशा पर सहानुभूति जताते हैं, कुछ तरस खाते हैं और कुछ कहते हैं कि जैसा किया, वैसा भर रहे हैं.

यह अकारण नहीं है कि जोकीहाट में लगातार चार बार से जीत रहे जदयू की गुलामगिरी से आजिज़ आकर जनता ने इस बार महागठबंधन पर  भरोसा जताया और घनघोर अवसरवादी, सत्तालोलुप व धोखेबाज़ नीतीश एवं दंगाई भाजपा को सीट से बेदखल कर दिया. जोकीहाट के बोल्ड अक्षरों में लिखे संदेश को पढ़ा जाना चाहिए. 

उधर डॉ. मीसा भारती ने परिणाम की घोषणा के साथ ही बड़ी ही विवेकपूर्ण प्रतिक्रिया दी है, "#JokihatByelectionResult में जीत के बावजूद @RJDforIndia EVM को लेकर एकमत है कि विश्व के सबसेबड़े लोकतंत्र के भविष्य को सत्ता पक्ष के सम्भावित घालमेल, घुन लगती व्यवस्थाओं & लू या सर्दी जुकाम का बहाना ढूंढने वाली अपारदर्शी मशीन के भरोसे छोड़ा नहीं जा सकता".

मीडिया की चयनित प्रश्नाकुलता के दौर में महागठबंधन के कुछ समर्थक और हमदर्द केसी त्यागी के मज़े ले रहे हैं, "Chachaji is in Big Trouble. का हो त्यागीजी, तनि पानी पिया दs हमार चच्चा के!" ये वही त्यागी हैं जिन्होंने महागठबंधन टूटने पर चबा-चबा के बयान दिया था, "हम बीजेपी के साथ ज़ादे सहज थे. लालू प्रसाद हमारे लिए अछूत हैं". कभी शरद यादव के पीछे खड़े रहने वाले इस टीटीएम एक्सपर्ट की फिर से राज्यसभा जाने की लालसा पर नीतीश ने लहरल-खौलल (बहुत गर्म) पानी उझल (उड़ेल) दिया.

उधर उत्तरप्रदेश के कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा उपचुनाव के नतीजे गठबंधन के पक्ष में रहे. जिस तरह से कैराना में  चुनाव से ठीक पहले 9 किमी बने अधूरे एक्सप्रेसवे का उद्घाटन रोडशो की शक्ल में किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार किया, वो भारतीय संसदीय राजनीति का एक छिछला और उथला उदाहरण है. मगर जहाँ कैराना में इस सरकार के पाले-पोसे और अप्रत्यक्ष संरक्षण पाए गुंडों ने कहर बरपाया था, उसका हिसाब वहाँ की जनता ने अजित सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल के टिकट पर चुनाव लड़ रहीं विपक्ष की साझा उम्मीदवार तबस्सुम हसन को जिता कर चुकता किया है. वहां उन्होंने भाजपा प्रत्याशी व मरहूम हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को 49,454 मतों से हराया. रालोद, सपा, बसपा, कांग्रेस और तमाम छोटे-छोटे दलों की साझा उम्मीदवार तबस्सुम हसन 16 वीं लोकसभा में उत्तर प्रदेश से लोकसभा पहुँचने वाली पहली मुस्लिम सांसद हैं.
आज़ाद हिन्दुस्तान में इतना डिफ्रैंचाइज़ इतनी बड़ी आबादी कभी नहीं हुई थी.

 जयंत चौधरी समेत उनकी पूरी पार्टी का विजिलेंट रहना और अक़लियत-दलित बाहुल कई बूथों पर ईवीएम में गड़बड़ी की शिकायत और वहाँ पुनर्मतदान की मांग के साथ उसी दिन चुनाव आयोग का दरवाज़ा खटखटाना बेहद ज़बरदस्त मूव था. वहाँ 73 मतदान केंद्रों पर पुनर्मतदान हुए. इसी सक्रिता और त्वरित निर्णय लेने में दक्षता की आवश्यकता आज विपक्ष को है. कभी-कभी ऐसा लगने लगता है कि उसका "प्रतिक्रिया समय" सामान्य नहीं है, रिफ्लेक्शन एक्शन में वो मंद हो जाते हैं जिसका फ़ायदा बीजेपी जोड़-जुगत-जुगाड़-तिकड़म कर उठा ले जाती है. उधर नूरपूर विधानसभा उपचुनाव में सपा प्रत्याशी नईमुल हसन ने बीजेपी प्रत्याशी अवनी सिंह को 6211 वोटों से हराकर विजय हासिल की है.

जिस तरह तब घोषित आपातकाल के दौर में भारतीय जनमानस ने लोकतंत्र की हिफ़ाज़त का प्रण कर लिया था और आननफानन में सब जेपी की अगुवाई में एकजुट हो गए थे, उसी प्रतिबद्धता और कंसिस्टेंसी की आज ज़रूरत है. हालांकि, उसी जनता पार्टी के बनने में संघ के देशव्यापी प्रसार के बीज छुपे हुए थे जिसका खामियाजा आज देश भुगत रहा है. पर, उस वक़्त कांग्रेस के अंदर छुपे कुछ संघी सलाहकारों ने पूरे नेतृत्व को बरगलाया और सूचना व प्रसारण मंत्रालय से लेकर सभी विभागों में तानाशाही का सा आलम छा गया. ख़ुद्दार इंद्र कुमार गुजराल ने राज्यमंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया. संजय गांधी अतिरिक्त संवैधानिक शक्ति का आनंद उठा रहे थे. पर, यह नहीं भूलना चाहिए कि नेहरू के नाती ने जो खुराफ़ात किया, उसका नुक़सान नेहरू की बिटिया को अपनी छवि धूमिल कराके उठाना पड़ा. कहते हैं कि अॉटोक्रेट संजय की मम्मा ने इमरजेंसी लगाई और डेमोक्रेट नेहरू की बिटिया ने आपातकाल हटाया.

बहरहाल, जनता अलायंस ने 1977 में कुल 345 सीटें हासिल की, जिनमें बिहार में 54 में 54 और यूपी में 85 में 85 सीटें जीतीं. यह अब तक की पहली सरकार थी जो 50 फ़ीसदी से ज़्यादा मत लेकर सत्ता में आई थी. यह न तो नेहरू, न इंदिरा और न ही 1984 में 406 सीटें हासिल करने वाले राजीव को मयस्सर हो पाया. 2014 के बाद संभवतः 24 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए, जिसमें सत्तापक्ष कोई भी नई सीट नहीं जीत पाई है.

आज वक़्त की मांग है कि विपक्ष अपनी तमाम अगली ईगो को बगल में रखकर एकजुटता दिखाए जिसकी शुरूआत पिछले वर्ष दिल्ली में "साझा विरासत बचाओ" मुहिम छेड़कर  शरद यादव ने की जो देश के विभिन्न हिस्सों में चली. कर्नाटक में नई सरकार के शपथग्रहण के दौरान भी विपक्षी नेताओं के जमावड़े के बीच उन सबकी भावभंगिमा व देहभाषा बड़ा सकारात्मक संदेश दे रही थी.

तेजस्वी में कम-से-कम एक क़िस्म की विकासशीलता है और बिहार में उन्होंने नेता, विपक्ष के रूप में सबसे सशक्त विपक्षी नेता के बतौर अब तक कोई ऐसा वक्तव्य नहीं दिया है जो किसी की गरिमा को ठेस पहुंचाती हो. शालीनता भी और बहुत सुंदर-सी प्रखरता भी. 2 अप्रैल के भारत बंद को सफल बनाने के लिए अपने सभी विधायकों के साथ तेजस्वी पटना की सड़कों पर उतरे थे. विपक्ष की ओर से यह नायाब मिसाल उन्होंने पेश की.

 मंच पर भी उस दिन सभी नेताओं से मिलते हुए उनका जेस्चर बहुत विनम्र लगा. मुझे लग रहा है कि इन्हें कांग्रेस के दबाव में नहीं आना चाहिए और कांग्रेस को भी मजबूर नहीं करना चाहिए क्षेत्रीय दलों को इस तरह अपने आगे झुकाने के लिए. 

लालू प्रसाद बहुत राजनीतिक व्यक्ति हैं, वो व्यापक देशहित में एका तोड़ने का दोष अपने सर नहीं लेंगे. पर, बेहद अविश्वसनीय नीतीश को महागठबंधन में दोबारा एंट्री देना ठीक नहीं होगा बिहार की दूरगामी राजनीति के लिए. वहाँ के लोग ऐसा नहीं चाहते. मतलब, नीतीश जी ने इस दौरान मानव मर्यादा को भी तार-तार किया. छुटभैये नेताओं से लालू समेत उनके परिवार को गालीगलौज करवाया. जनता और समर्थक तेजस्वी की धैर्यधारण की अपील के चलते रूकी रही. लालू जी की गिरती सेहत के चलते भी ये सब हो रहा. नहीं तो यह मनमानी इस स्तर तक कांग्रेस शायद नहीं कर पाती.

तेजस्वी यादव के राजनैतिक सलाहकार संजय जी ने पिछले दिनों एक पीस लिखा द प्रिंट के लिए, जिसमें वो संकेतों में कांग्रेस से कह रहे हैं कि रीजनल पार्टीज़ को खुलकर फ्रंट पर खेलने दें, तभी हम सब मिलकर 19 में बेहतर परिणाम दे पाएंगे. पर, कांग्रेस दो रीजनल पार्टीज़ में संघर्ष और प्रतिस्पर्धा करा कर अपने दरबार में पंचायती कराने की मूल प्रकृति को छोड़ना नहीं चाहती इतनी दुर्दशा होने के बावजूद.

रजनी कोठारी ने एक बार कहा था, "जम्हूरियत अपनी हिफ़ाज़त ख़ुद कर लेगी". मगर, यहाँ सुतनमादास के भरोसे लोकतंत्र अपनी रक्षा कर पाने में सर्वथा अक्षम प्रतीत हो रहा है. राजनीति सतत-अनवरत-निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है. यहाँ इतबार-सोमवार नहीं होता. चुनाव कई राजनीतिक गतिविधियों में से एक गतिविधि है, संपूर्ण राजनीति नहीं. इसे विपक्षी पार्टियों को नहीं भूलना चाहिए. 

हर बुथ पर टाइट युथ होगा, तभी 2019 में इस घनघोर लोकतंत्र विरोधी, अश्लील व अहमक विचारधारा की बेशर्म सरकार को सत्ताच्युत किया जा सकता है ताकि 2024 में भी चुनाव होने पाए. अगर मौजूदा सरकार का पुनरागमन हो गया, तो फिर भारतीय लोकतंत्र का जनाजा निकल जाने की आशंका है. इसलिए, आज वोटर्स, पार्टीज़, बौद्धिक वर्ग, ख़बरनवीस, वकील, प्रशासक, छात्र-नौजवान, मज़दूर-किसान सबकी ज़िम्मेदारी है कि अपने-अपने हिस्से का पहाड़ तोड़ें.

(ये लेखक के निजी विचार हैं। जयंत जिज्ञासु जेएनयु में शोधार्थी हैं।)

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